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अधिप्रचार (Propaganda) उन समस्त सूचनाओं को कहते हैं जो कोई व्यक्ति या संस्था किसी बड़े जन समुदाय की राय और व्यवहार को प्रभावित करने के लिये संचारित करती है।
सबसे प्रभावी अधिप्रचार के बहुत से तरीके हैं। प्रचार का उद्देश्य सूचना देने के बजाय लोगों के व्यवहार और राय को प्रभावित करना (बदलना) होता है।
प्रोपेगंडा का हिंदी में शाब्दिक अर्थ है प्रचार, अधिप्रचार अथवा मत-प्रचार। प्रोपेगंडा किसी विशेष उद्देश्य से, विशेष तौर से राजनीतिक उद्देश्य के तहत, किसी विचार और नज़रिये को फैलाने के लिए किया जाता है। लेकिन इसकी बुनियाद आम तौर पर सत्य पर नहीं टिकी होती। प्रोपेगंडा की शुरुआत युद्ध के दौरान दुश्मन की सेना को नैतिक रूप से पराजित करने के लिए एक अफ़वाह के रूप में हुई थी। इसके बाद ज़िक्र मिलता है कि 1622 में पंद्रहवें पोप ग्रेगरी ने वेटिकन में प्रोटेस्टेंट सुधारों के ख़िलाफ़ प्रोपेगंडा का काम सँभाला था। प्रोपेगंडा की छवि नकारात्मक उस समय बनी जब प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने अपने राजनीतिक हितों के पत्र में व्यवस्थित रूप से प्रोपेगंडा किया। कालांतर में इसका उपयोग चुनाव-प्रचार के लिए भी होने लगा। प्रारम्भ में इसे राजनीतिक पार्टियों के चुनाव-प्रचार के दौरान प्रत्याशी के हित में समर्थन खींचने के लिए इस्तेमाल होता था। तत्पश्चात इसकी उपयोगिता समझते हुए इसका विस्तार हुआ और इसे विज्ञापन का भी अंग बना लिया गया। विज्ञापन के साथ जुड़ने पर प्रोपेगंडा में सकारात्मक पक्ष भी आया। वह भावनाओं को स्पर्श करने वाले एक सुखद एहसास के वाहक की भूमिका निभाने लगा और एक ख़ास संदर्भ में रचनात्मक हो गया।
प्रोपेगंडा द्वारा उपलब्ध करायी गयी सूचना का आधार ऐतिहासिक रूप से सकारात्मक न होकर हमेशा से ही नकारात्मक रहा है। इसके माध्यम से दी जाने वाली जानकारी प्रायः एक तरफ़ा और भ्रामक प्रकृति की होती है। प्रोपेगंडा का उपयोग राजनीतिक कारणों से किसी दृष्टिकोण-विशेष को बढ़ावा देने के लिए शुरू किया गया था। आज प्रोपेगंडा का फलक काफ़ी व्यापक हो गया है और इसका उपयोग जान-बूझ कर किसी व्यक्ति, संस्था, राष्ट्र, उत्पाद अथवा किसी राजनीतिक पार्टी के बारे में नकारात्मक सूचना फ़ैलाने के लिए किया जाने लगा है। प्रोपेगंडा का दूसरा पक्ष यह है कि इसे एक विशेष प्रकार के संदेश के रूप में भी देखा जाता है। एक ऐसे संदेश के रूप में जिसे किसी विशेष संस्कृति, दर्शन, विचार अथवा मत को किसी नारे आदि के माध्यम से बाजार और समाज में प्रचलित करने के लिए किया प्रचारित जाता है।
युद्ध के दौरान झूठ को सच साबित करने के लिए प्रोपेगंडा का उपयोग किया जाता रहा है। अमेरिका इस प्रोपेगंडा का सबसे बड़ा प्रयोक्ता माना जाता है। वह युद्ध के दौरान हमेशा ऐसी ख़बर फैलाता है कि वह मानवता की रक्षा और आतंकवाद से लड़ने के लिए युद्ध कर रहा है, जबकि उसका मकसद कुछ और होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण पिछले दो दशकों में हुए इराक और अफ़ग़ानिस्तान के युद्धों में देखने को मिला। अमेरिका हमेशा यह बताता रहा कि आतंकवाद से लड़ने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था जबकि सच्चाई यह थी कि वह अपने सैनिकों के साथ-साथ ऐसे पत्रकारों की फ़ौज भी लेकर चल रहा था जो उसके पक्ष के थे या जिन्हें ख़रीद लिया गया था। ये पत्रकार अपनी ख़बरों को लाइव (आँखों देखा हाल) दिखाने के नाम पर ऐसी जानकारी का प्रसारण करते रहे जो सच नहीं थी। ऐसी पत्रकारिता को ही जड़ित पत्रकारिता या इम्बेडिड जर्नलिज़म कहा जाता है। इस तरह की पत्रकारिता में एक पक्ष की इच्छा के अनुसार रिपोर्टिंग की जाती है और सच को ग़ायब कर दिया जाता है। कई बार इस इस पत्रकारिता का उपयोग राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने पक्ष में जनमत बनाने के लिए भी किया जाता है।
कुछ संचारशास्त्रियों की मान्यता है कि प्रोपेगंडा का उद्भव जन-संचार माध्यमों के विकास के बाद हुआ। वे इसे संचार के हिस्से के रूप में देख कर मानते हैं कि जनमत को अपनी तरफ़ आकर्षित करने के लिए किया जाने वाला संचार प्रोपेगंडा का एक प्रकार है। यहाँ संचार और प्रोपेगंडे के संबंध पर ग़ौर करना ज़रूरी है।
इक्कीसवीं सदी के प्रारम्भिक दौर में रेडियो के अविष्कार ने प्रोपेगंडा को एक विशेष उछाल दिया। रेडियो के माध्यम से काफ़ी कम समय में एक व्यापक जन-समूह तक अपनी बात को पहुँचाया जा सकता है। रेडियो के विकास ने स्वयं-प्रेरित और प्रायोजित सूचना को फैलाने का ही काम नहीं किया, वरन् इसने उस विज्ञापन का भी सूत्रपात्र किया जिसके विकसित रूप आज विभिन्न रूपों में हमारे सामने हैं। रेडियो के विकास के पहले इतने कम समय में एक व्यापक जन-समूह तक सीधे-तौर पर अपनी बात पहुँचा पाना असम्भव सा था। यह ज़रूर है कि प्रिंट माध्यम द्वारा भी सीधे तौर पर सूचना का सम्प्रेषण किया जा सकता था, लेकिन समाचार पत्रों के पाठक कम ही थे। पाठक बनने के साथ साक्षरता की शर्त भी जुड़ी हुई थी। रेडियो ने विज्ञापन के एक नवीन संसार का अनावरण किया जहाँ पढ़ने की योग्यता होना ज़रूरी नहीं था। इससे विज्ञापन की पहुँच और प्रभाव का दायरा असीमित हो गया। विज्ञापन के साथ-साथ राजनीतिक प्रोपेगंडा का भी विस्तार बहुत तेजी से हुआ।
रेडियो के बाद प्रोपेगंडा को टीवी के आगमन ने एक और नया उछाल दिया। टीवी ने रेडियो को अपदस्थ तो नहीं कर पाया, लेकिन रेडियो के मुकाबले इसकी विश्वसनीयता लोगों को ज़्यादा प्रामाणिक नज़र आयी। बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने जब अपने उत्पादों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया तो लोगों ने उस प्रचार में अपनी छवि देखनी शुरू कर दी। इसीलिए विज्ञापन गुरु अलेक पद्मसी ने एक बार कहा था कि भारत के लोग जब किसी वस्तु के ग्राहक बनते हैं तो वह तर्क से कम और भावना से ज़्यादा बनते हैं। उन्होंने लिरिल साबुन के विज्ञापन का उदाहरण देते हुए कहा कि ‘आपको क्या लगता है यह जो लड़की बिकनी पहनकर झरने में नहाती है और नींबू की ख़ुशबू के एहसास जैसी तरोताज़ा महसूस करती है, तो वह क्या सचमुच वास्तविक भारत के गाँवों और शहरों में सम्भव है? जहाँ एक बाल्टी पानी ढंग से नहाने के लिए नसीब होता, वहाँ वह नींबू की ख़ुशबू वाले एहसास का अनुभव कैसे हो सकता है?’ इसी आधार पर पद्मसी कहते हैं कि विज्ञापन प्रोपेगंडा के माध्यम से उपभोक्ता के सामने एक ऐसी छवि निर्मित कर देता है जिसमें उपभोक्ता अपनी छवि देखने लगते हैं।
हाल ही के वर्षों में इंटरनेट और ई-मेल के आविष्कार ने प्रोपेगंडा को वैश्विक विस्तार दिया। मसलन वेब-माध्यमों में वह ताकत है जो स्थानीय मुद्दे को वैश्विक मुद्दा बना सकती है। भौगोलिकता की सारी सीमाओं का वेब-माध्यमों ने उल्लंघन करके सम्पूर्ण दुनिया को एक छोटे से गाँव में तब्दील कर दिया है। क्षण भर में लोकल से ग्लोबल हो जाने के लिए लोगों ने इंटरनेट प्रणाली का जम कर लाभ उठाया है। एक स्थानीय गायक और लोकल संगीत कैसे कुछ समय में ही इंटरनेट के माध्यम से सबसे लोकप्रिय संगीत बन जाता है इसका सबसे सशक्त उदाहरण है कोलाबेरी डी नामक गीत। मार्केटिंग की भाषा में जिसे हम वाइरल मार्केटिंग के नाम से जानते हैं दरअसल वह मीडिया की भाषा में प्रोपेगंडा ही है।
एक तरफ़ तो प्रोपेगंडे को नकारात्मक बात सकारात्मक ढंग से पेश करने वाला माध्यम की तरह देखा जाता है और दूसरी तरफ़ प्रोपेगंडा प्रचार का एक ऐसा हुनर भी है जिसमें किसी विषय-वस्तु को कुछ इस तरीके से पेश किया जाता है कि उसकी तरफ़ लोग आकर्षित हो जाएँ। संबंधित विषय को एक ऐसी भाषा, लय और संगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया जाए कि आम उपभोक्ता अपनापन महसूस करके उस उत्पाद के साथ जुड़ जाता है। इसके लिए मीडिया के विभिन्य माध्यमों का सहारा लिया जाता है। जैसे : टेलिविज़न, रेडियो, बैनर, इंटरनेट, बिलबोर्ड, लीफ़लेट इत्यादि। भावनाओं को स्पर्श देने की इस भूमिका में नकारात्मक पक्ष सिर्फ़ इतना ही है कि ऐसा प्रोपेगंडा मनुष्य की तार्किकता का संहार करके उसकी जगह पर भावनात्मक पक्ष को ज़्यादा प्रभावी बना देता है।
अमेरिका के एक विज्ञापन-लेखक ट्रीस्ट्रियन टोलिवर ने प्रोपेगंडा के बारे में कहा है : मैं हमेशा अपने बारे में यही सोचता हूँ कि आपको लोग इसलिए नहीं पसंद करते कि आपने क्या किया और उनके लिए क्या किया। बल्कि आपको हमेशा इसलिए याद किया जाता है कि आपने अपनी बातों के माध्यम से उन्हें क्या महसूस कराया। मसलन प्रोपेगंडा में यह बात बहुत मायने नहीं रखती की किसी बात को आपने कितने अच्छे तरीके से रखा बल्कि सबसे महत्त्वपूर्ण चीज होती है उससे निकलने वाली वह अनुभूति और प्रेरणा जो लोगों पर अपनी छाप छोड़ जाए। प्रोपेगंडा के सुखद एहसास में लम्बे समय तक याद रखे जाने की क्षमता होती है। इस लिहाज़ से विज्ञापन में प्रोपेगंडा का इस्तेमाल उसे सिर्फ़ नकारात्मक न बन कर सकारात्मक रूप भी देने लगा है। इस पहलू के मुताबिक प्रोपेगंडा रचनात्मक प्रकृति की अवधारणा पर आधारित एक सम्पूर्ण प्रक्रिया का नाम है। इसका उपयोग किस प्रकार से किया जाना है— यह पूरी तरह उपभोगकर्ता पर निर्भर करता है।
1. एल. मिलन और एस. रैम्पटन (2004), ‘वार इज़ सेल’, डी. मिलर (सम्पा.) टेल मी लाइज़ : प्रोपेगंडा ऐंड मीडिया डिस्टॉर्शन इन द अटैक ऑन इराक, प्लूटो प्रेस, लंदन.
2. डी. वेल्श (1993), द थर्ड राइख़ : पॉलिटिक्स ऐंड प्रोपेगंडा, रॉटलेज, लंदन और न्यूयॉर्क.
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