आर्य समाज
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आर्य समाज एक हिन्दू सुधार आन्दोलन है जिसकी स्थापना स्वामी दयानन्द सरस्वती ने १८७५ में बंबई में मथुरा के स्वामी विरजानन्द की प्रेरणा से की थी।[1] यह आन्दोलन पाश्चात्य प्रभावों की प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू धर्म में सुधार के लिए प्रारम्भ हुआ था। आर्य समाज में शुद्ध वैदिक परम्परा में विश्वास करते थे तथा मूर्ति पूजा, अवतारवाद, बलि, झूठे कर्मकाण्ड व अन्धविश्वासों को अस्वीकार करते थे। इसमें छुआछूत व जातिगत भेदभाव का विरोध किया तथा स्त्रियों व शूद्रों को भी यज्ञोपवीत धारण करने व वेद पढ़ने का अधिकार दिया था। स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा रचित सत्यार्थ प्रकाश नामक ग्रन्थ आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है। आर्य समाज का आदर्श वाक्य है: कृण्वन्तो विश्वमार्यम् , जिसका अर्थ है - विश्व को आर्य बनाते चलो।
सन २००० में आर्यसमाज को समर्पित एक डाकटिकट | |
सिद्धांत |
"कृण्वन्तो विश्वमार्यम्" (विश्व को आर्य (श्रेष्ठ) बनाते चलो।) |
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स्थापना |
10 अप्रैल 1875 मुम्बई) |
संस्थापक | दयानन्द सरस्वती |
प्रकार | धार्मिक संगठन |
वैधानिक स्थिति | न्यास (Foundation) |
उद्देश्य | समाज सुधार, शैक्षिक, धार्मिक शिक्षा, अध्यात्म |
मुख्यालय | नई दिल्ली |
निर्देशांक | 26.4499°N 74.6399°E |
सेवित क्षेत्र क्षेत्र |
सम्पूर्ण विश्व में |
आधिकारिक भाषा |
हिन्दी |
मुख्य अंग |
परोपकारिणी सभा |
संबद्धता | भारतीय |
जालस्थल | http://www.thearyasamaj.org |
प्रसिद्ध आर्य समाजी जनों में स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी श्रद्धानन्द, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, भाई परमानन्द, राम प्रसाद 'बिस्मिल', पंडित गुरुदत्त, स्वामी आनन्दबोध सरस्वती, चौधरी छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, पंडित वन्देमातरम रामचन्द्र राव, बाबा रामदेव[2] आदि आते हैं।
दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल सन् 1875 ई. (चैत्र शुक्ला पंचमी, शनिवार, सम्वत् १९३२ विक्रमी) को मुम्बई में आर्यसमाज की स्थापना की थी। इससे पूर्व उन्होंने 6 या 7 सितम्बर, 1872 को वर्तमान बिहार प्रदेश के ‘आरा’ स्थान पर आगमन पर भी वहां आर्यसमाज स्थापित किया था। उपलब्ध इतिहास व जानकारी के अनुसार यह प्रथम आर्यसमाज था। परन्तु उसके एक-दो ही अधिवेशन हुए। स्वामी जी के आरा से चले जाने के पश्चात् थोड़े ही दिन में उसकी गतिविधियां बन्द हो गईं।
स्वामी दयानन्द ने 31 दिसम्बर 1874 से 10 जनवरी 1875 तक राजकोट में प्रवास कर वैदिक धर्म का प्रचार किया। यहां जिस कैम्प की धर्मशाला में स्वामी ठहरे, वहां उन्होंने आठ व्याख्यान दिये जिनके विषय थे - ईश्वर, धर्मोदय, वेदों का अनादि और अपौरुषेय होना, पुनर्जन्म, विद्या-अविद्या, मुक्ति और बन्धन, आर्यों का इतिहास और कर्तव्य। यहां स्वामीजी ने पं० महीधर और जीवनराम शास्त्री से मूर्तिपूजा और वेदान्त-विषय पर शास्त्रार्थ भी किया। स्वामीजी का यहां राजाओं के पुत्रों की शिक्षा के काॅलेज, राजकुमार काॅलेज में एक व्याख्यान हुआ। उपदेश का विषय था ‘‘अंहिसा परमो धर्मः”। यहां स्कूल की ओर से स्वामीजी को प्रो. मैक्समूलर सम्पादित ऋग्वेद भेंट किया गया था। राजकोट में आर्यसमाज की स्थापना के विषय में पं. देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित में निम्न विवरण प्राप्त होता है- [3]
आर्यसमाज के नियमों के विषय में इस जीवन-चरित में लिखा है कि-
इसके बाद मुम्बई में 10 अप्रैल, सन् 1875 को आर्यसमाज की स्थापना हुई। इससे सम्बन्धित विवरण पं. लेखराम रचित महर्षि दयानन्द के जीवन चरित्र से प्रस्तुत है-
इसके बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं,
28 नियमों के बाद पं. लेखराम जी लिखते हैं कि फिर अधिकारी नियत किये गए। तत्पश्चात् प्रति शनिवार सायंकाल की आर्यसमाज के अधिवेशन होने लगे, परन्तु कुछ मास के पश्चात् शनिवार का दिन सामाजिक पुरुषों के अनुकूल न होने से रविवार का दिन रखा गया, जो अब तक है।
मुम्बई के बाद लाहौर में स्थापित आर्यसमाज का विशेष महत्त्व है। यहां न केवल महर्षि दयानन्द जी द्वारा आर्यसमाज की स्थापना ही की गई अपितु मुम्बई में जो 28 नियम स्वीकार किए गये थे उन्हें संक्षिप्त कर 10 नियमों में सीमित कर दिया गया और 8 सितम्बर, सन् 1877 को उन्हें विज्ञापित भी कर दिया गया। यह संक्षिप्त किये गये 10 नियम वर्तमान में भी प्रचलित हैं।
पण्डित लेखराम ने स्वामी दयानन्द का विस्तृत जीवनचरित लिखा।
आर्य शब्द का अर्थ है श्रेष्ठ और प्रगतिशील। अतः आर्य समाज का अर्थ हुआ श्रेष्ठ और प्रगतिशीलों का समाज, जो वेदों के अनुकूल चलने का प्रयास करते हैं। दूसरों को उस पर चलने को प्रेरित करते हैं। आर्यसमाजियों के आदर्श मर्यादा पुरुषोत्तम राम और योगिराज कृष्ण हैं। महर्षि दयानन्द ने उसी वेद मत को फिर से स्थापित करने के लिए आर्य समाज की नींव रखी। आर्य समाज के सब सिद्धांत और नियम वेदों पर आधारित हैं। आर्य समाज की मान्यताओं के अनुसार फलित ज्योतिष, जादू-टोना, जन्मपत्री, श्राद्ध, तर्पण, व्रत, भूत-प्रेत, देवी जागरण, मूर्ति पूजा और तीर्थ यात्रा मनगढ़ंत हैं, वेद विरुद्ध हैं। आर्य समाज सच्चे ईश्वर की पूजा करने को कहता है, यह ईश्वर वायु और आकाश की तरह सर्वव्यापी है, वह अवतार नहीं लेता, वह सब मनुष्यों को उनके कर्मानुसार फल देता है, अगला जन्म देता है, उसका ध्यान घर में किसी भी एकांत में हो सकता है।
इसके अनुसार दैनिक यज्ञ करना हर आर्य का कर्त्तव्य है। परमाणुओं को न कोई बना सकता है, न उसके टुकड़े ही हो सकते हैं। यानी वह अनादि काल से हैं। उसी तरह एक परमात्मा और हम जीवात्माएं भी अनादि काल से हैं। परमात्मा परमाणुओं को गति दे कर सृष्टि रचता है। आत्माओं को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। फिर चार ऋषियों के मन में २०,३७८ वेदमंत्रों का अर्थ सहित ज्ञान और अपना परिचय देता है। सत्यार्थ प्रकाश आर्य समाज का मूल ग्रन्थ है। अन्य माननीय ग्रंथ हैं - वेद, उपनिषद, षड् दर्शन, गीता व वाल्मीकि रामायण इत्यादि। महर्षि दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाश में इन सबका सार दे दिया है। १८ घंटे समाधि में रहने वाले योगिराज दयानन्द ने लगभग आठ हजार किताबों का मंथन कर अद्भुत और क्रांतिकारी सत्यार्थ प्रकाश की रचना की।
ईश्वर का सर्वोत्तम और निज नाम ओम् है। उसमें अनन्त गुण होने के कारण उसके ब्रह्मा, महेश, विष्णु, गणेश, देवी, अग्नि, शनि आदि अनन्त नाम हैं। इनकी अलग-अलग नामों से मूर्ति पूजा ठीक नहीं है। आर्य समाज वर्णव्यवस्था यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र को कर्म से मानता है, जन्म से नहीं। आर्य समाज स्वदेशी, स्वभाषा, स्वसंस्कृति और स्वधर्म का पोषक है।
आर्य समाज सृष्टि की उत्पत्ति का समय चार अरब ३२ करोड़ वर्ष और इतना ही समय प्रलय काल का मानता है। योग से प्राप्त मुक्ति का समय वेदों के अनुसार ३१ नील १० खरब ४० अरब यानी एक परांत काल मानता है। आर्य समाज, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को मानता है, लेकिन भूमंडलीकरण को देश, समाज और संस्कृति के लिए घातक मानता है। आर्य समाज वैदिक समाज रचना के निर्माण व आर्य चक्रवर्ती राज्य स्थापित करने के लिए प्रयासरत है। इससमाज में मांस, अंडे, बीड़ी, सिगरेट, शराब, चाय, मिर्च-मसाले आदि वेद-विरुद्ध होते हैं।
आर्य समाज ने भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। इसके अनुयायियों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में बढ-चढ कर भाग लिया। आर्य समाज के प्रभाव से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर स्वदेशी आन्दोलन आरम्भ हुआ था। स्वामीजी आधुनिक भारत के धार्मिक नेताओं में प्रथम महापुरूष थे जिन्होने 'स्वराज्य' शब्द का प्रयोग किया। आर्य समाज ने हिन्दू धर्म में एक नयी चेतना का आरंभ किया था। स्वतंत्रता पूर्व काल में हिंदू समाज के नवजागरण और पुनरुत्थान आंदोलन के रूप में आर्य समाज सर्वाधिक शक्तिशाली आन्दोलन था। यह पूरे पश्चिम और उत्तर भारत में सक्रिय था तथा सुप्त हिन्दू जाति को जागृत करने में संलग्न था। यहाँ तक कि आर्य समाजी प्रचारक फिजी, मारीशस, गयाना, ट्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका में भी हिंदुओं को संगठित करने के उद्देश्य से पहुँच रहे थे। आर्य समाजियों ने सबसे बड़ा कार्य जाति व्यवस्था को तोड़ने और सभी हिन्दुओं में समानता का भाव जागृत करने का किया।
सन् 1857 के पश्चात की क्रांति के जन्मदाता महर्षि दयानन्द सरस्वती और उनके शिष्य श्याम जी कृष्ण वर्मा (जो क्रांतिकारियों के गुरु थे), प्रसिद्ध क्रांतिकारी विनायक दामोदर सावरकर, लाला हरदयाल, भाई परमानन्द, सेनापति बापट, मदनलाल ढींगरा, रामप्रसाद बिस्मिल, गोपालकृष्ण गोखले, सरदार भगत सिंह इत्यादि शिष्यों ने स्वाधीनता आन्दोलन में कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इंग्लैण्ड में भारत के लिए जितनी क्रांति हुई वह श्याम जी कृष्ण वर्मा के ‘‘इण्डिया हाउस’’ से ही हुई। सरदार भगत सिंह तो जन्म से ही आर्य समाजी थे। इनके दादा सरदार अर्जुन सिंह विशुद्ध आर्य समाजी थे और इनके पिता श्री किशन सिंह भी आर्य समाजी थे। पंजाब केसरी लाला लाजपत राय प्रसिद्ध आर्यसमाजी नेता थे। [8] [9]
भारत को जिस तरह ब्रिटिश सरकार का आर्थिक उपनिवेश और बाद में राजनीतिक उपनिवेश बना दिया गया था, उसके विरूद्ध भारतीयों की ओर से तीव्र प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। चूंकि भारत धीरे-धीरे पश्चिमी विचारों की ओर बढ़ने लगा था, अतः प्रतिक्रिया सामाजिक क्षेत्र से आना स्वाभाविक कार्य थी। यह प्रतिक्रिया १९वीं शताब्दी में उठ खड़े हुए सामाजिक सुधार आन्दोलनों के रूप में सामने आई। ऐसे ही समाज सुधार आंदोलनों में आर्यसमाज का नाम आता है। आर्यसमाज ने विदेशी जुआ उतार फेंकने के लिए, समाज में स्वयं आंतरिक सुधार करके अपना कार्य किया। इसने आधुनिक भारत में प्रारम्भ हुए पुर्नजागरण को नई दिशा दी। साथ ही भारतीयों में भारतीयता को अपनाने, प्राचीन संस्कृति को मौलिक रूप में स्वीकार करने, पश्चिमी प्रभाव को विशुद्ध भारतीयता यानी 'वेदों की ओर लौटो' के नारे के साथ समाप्त करने तथा सभी भारतीयों को एकताबद्ध करने के लिए प्रेरित किया।
१९वीं शताब्दी में भारत में समाज सुधार के आंदोलनों में आर्यसमाज अग्रणी था। हरिजनों के उद्धार में सबसे पहला कदम आर्यसमाज ने उठाया, लड़कियों की शिक्षा की जरूरत सबसे पहले उसने समझी। वर्ण व्यवस्था को जन्मगत न मानकर कर्मगत सिद्ध करने का सेहरा उसके सिर है।[10] जातिभेद भाव और खानपान के छूतछात और चौके-चूल्हे की बाधाओं को मिटाने का गौरव उसी को प्राप्त है। अन्धविश्वास और धर्म के नाम पर किये जाने वाले हजारों अनाचारों कब्र उसी ने खोदी।
१८७५ में स्थापना के शीघ्र बाद ही इसकी प्रसिद्धि तत्कालीन समाज विचारकों, आचार्यों, समाज सुधारकों आदि को प्रभावित करने में सफल हुई, और कुछ वर्षों बाद ही आर्यसमाज की सम्पूर्ण भारत के प्रमुख शहरों में शाखायें स्थापित हो गईं। स्वामीजी के विद्वतापूर्ण व्याख्यानों तथा चमत्कारिक व्यक्तित्व ने युवाओं को आर्यसमाज की ओर मोड़ा। अन्य समकालीन सामाजिक धार्मिक आंदोलनों की अपेक्षा आर्यसमाज सही अर्था में अधिक राष्ट्रवादी था। यह भारत में पनप रहे पश्चिमीकरण के विरूद्ध अधिक आक्रमणकारी स्वभाव रखने वाला आंदोलन था।
आर्य समाज ने अपनी स्थापना से ही सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध आन्दोलन का शंखनाद किया, जैसे- जातिवादी जड़मूलक समाज को तोड़ना, महिलाओं के लिए समानाधिकार, बालविवाह का उन्मूलन, विधवा विवाह का समर्थन, निम्न जातियों को सामाजिक अधिकार प्राप्त होना आदि। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना के पीछे उपर्युक्त सामाजिक नवजागरण को मुख्य आधार बनाया। उनका विश्वास था कि नवीन प्रबुद्ध भारत में, नवजागृत होते समाज में, नये भारत का निर्माण करना है तो समाज को बन्धनमुक्त करना प्रथम कार्य होना चाहिए। स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी स्वामी जी ने ब्राह्मणों की सत्ता के खण्डन का प्रतिपादन किया और धार्मिक अंधविश्वास व कर्मकाण्डों की तीव्र भर्त्सना की। अल्पकाल में ही वे भारत के समाज सुधार के क्षेत्र में नवीन ज्ञान-ज्योति के रूप में उदयीमान हुए। इसमें उन्होनें पाया कि भारतीय युवा पाश्चात्य अनुकरण पर जोर दे रहा है। अतः उन्होनें पाश्चात्य संस्कृति पर शक्तिशाली प्रहार किया और भारतीय गौरव को सदैव ऊंचा किया।
सामान्यतः स्वामीजी ने भारतीय समाज तथा हिन्दूधर्म में प्रचालित दोषों को उजागर करने के साथ ही आंचलिक पंथों और अन्य धर्मो की भी आलोचना की। पुरोहितवाद पर करारा प्रहार करते हुए स्वामीजी ने माना था कि स्वार्थों और अज्ञानी पुरोहितों ने पुराणों जैसे ग्रंथो का सहारा लेकर हिन्दू धर्म का भ्रष्ट किया है। स्वामी जी धर्म सुधारक के रूप में मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड, पुराणपंथी, तन्त्रवाद के घोर विरोधी थे। इसके लिए उन्होने वेदों का सहारा लेकर विभिन्न दृष्टांत किए। इससे इन्होंने सुसुप्त भारतीय जनमानस को चेतन्य करने का अदभुत प्रयास किया। स्वामी जी ने हिन्दुओं को हीन, पतित और कायर होने के भाव से मुक्त किया और उनमें उत्कट आत्मविश्वास जागृत किया। फलस्वरूप समाज पश्चिम की मानसिक दासता के विरुद्ध दृढ़ आत्मविश्वास तथा संकल्प के साथ विद्रोह कर सके। इन्ही कारणों से वेलेंटाइन शिरोल नामक अंग्रेज ने 'इण्डियन अरनेस्ट' नामक अपने ग्रन्थ में स्वामीजी को 'भारतीय अशान्ति का जनक' कहा है।
देखिये, दयानंद एंग्लो वैदिक विद्यालय, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय
स्वामी दयानन्द के मूलमन्त्र था कि जनता का विकास और प्रगति सुनिश्चित करने और उनके अस्तित्व की रक्षा करने का सर्वोत्तम साधन शिक्षा है। इसी मन्त्र को गाँठ में बाँध कर आर्यसमाज ने कार्य किया। आर्यसमाज ने इस तथ्य को आत्मसात कर लिया था कि शिक्षा की जड़ें राष्ट्रीय भावना और परम्परा में गहरी जमी होनी चाहिये। हम एक प्राचीन और श्रेष्ठ परम्परा के उत्तराधिकारी हैं। हमारी शिक्षा में भारतीय नीतिशास्त्र और दर्शन को सर्वोपरि स्थान प्राप्त होगा।
1892-1893 ई. में आर्य समाज में दो भागों में विभाजित हो गई। उसके बाद दो दलों में से एक ने पाश्चात्य शिक्षा का समर्थन किया। इस दल में लाला हंसराज और लाला लाजपत राय प्रमुख नेता थे। इन्होंने 'दयानन्द एंग्लो-वैदिक कॉलेज' की स्थापना की। दूसरे दल ने पाश्चात्य शिक्षा का विरोध किया और इसके नेता स्वामी श्रद्धानन्द जी ने 1902 ई. में हरिद्वार (कांगड़ी) में एक गुरुकुल की स्थापना की। इस संस्था में वैदिक शिक्षा प्राचीन पद्धति से दी जाती थी। आज भी २०० से अधिक गुरुकुल संचालित हैं[11][12] जिसमें ज्वालापुर, देहरादून, मेरठ, झज्जर, पौन्ध, लुधियाना, सुन्दरगढ़ (उड़ीसा) आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में गुरुकुल व डीएवी कालेज स्थापित कर शिक्षा जगत में आर्यसमाज ने अग्रणी भूमिका निभाई। स्त्रीशिक्षा में आर्यसमाज का उल्लेखनीय योगदान रहा। 1885 के प्रारम्भ तक आर्यसमाज की अमृतसर शाखा ने दो महिला विद्यालयों की स्थापना की घोषणा की थी तथा तीसरा कटरा डुला में प्रस्तावित था। 1880 के दौरान लाहौर आर्यसमाज महिला शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ था। 1889 ई0 में फिरोजपुर आर्यसमाज ने एक कन्या विद्यालय स्थापित किया था।
आर्य समाज से जुड़े लोग भारत के स्वतन्त्रता-संग्राम के साथ-साथ भारत की संस्कृति, भाषा, धर्म, शिक्षा आदि के क्षेत्र में सक्रिय रूप से जुड़े रहे। स्वामी दयानन्द की मातृभाषा गुजराती थी और उनका संस्कृत का ज्ञान बहुत अच्छा था, किन्तु केशव चन्द्र सेन के सलाह पर उन्होने सत्यार्थ प्रकाश की रचना हिन्दी में की। दयानन्द ने सत्यार्थ प्रकाश जैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिन्दी में रचकर हिन्दी को एक प्रतिष्ठा दी। आर्यसमाज ने हिन्दी को 'अर्यभाषा' कहा और सभी आर्यसमाजियों के लिये इसका ज्ञान आवश्यक बताया। दयानन्द जी वेदों का की व्याख्या संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी में भी की। स्वामी श्रद्धानन्द ने हानि उठाकर भी अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी में किया जबकि उनका प्रकाशन पहले उर्दू में होता था।[13] आर्यसमाज हिन्दी के सम्वर्द्धन के मैदान में अग्रगामी बना।
सैकड़ों गुरुकुलों, डीएवी स्कूल और कॉलेजों में हिंदी भाषा को प्राथमिकता दी गई और इस कार्य के लिए नवीन पाठ्यक्रम की पुस्तकों की रचना हिंदी भाषा के माध्यम से गुरुकुल कांगड़ी एवं लाहौर आदि स्थानों पर हुई जिनके विषय विज्ञान, गणित, समाज शास्त्र, इतिहास आदि थे। यह एक अलग ही किस्म का हिन्दी भाषा में परीक्षण था जिसके वांछनीय परिणाम निकले।[14]
विदेशों में भवानी दयाल सन्यासी, भाई परमानन्द, गंगा प्रसाद उपाध्याय, डॉ. चिरंजीव भारद्वाज, मेहता जैमिनी, आचार्य रामदेव, पंडित चमूपति आदि ने हिंदी भाषा का प्रवासी भारतीयों में प्रचार किया जिससे वे मातृभूमि से दूर होते हुए भी उसकी संस्कृति, उसकी विचारधारा से न केवल जुड़े रहे अपितु अपनी विदेश में जन्मी सन्तति को भी उससे अवगत करवाते रहे। आर्यसमाज द्वारा न केवल पंजाब में हिंदी भाषा का प्रचार किया गया अपितु सुदूर दक्षिण भारत में, असम, बर्मा आदि तक हिंदी को पहुँचाया गया। न्यायालय में दुष्कर भाषा के स्थान पर सरल हिंदी भाषा के प्रयोग के लिए भी स्वामी श्रद्धानन्द द्वारा प्रयास किये गये थे।[15]
आर्य समाज की हिन्दी पत्रकारिता [16] ने देश को राष्ट्रीय संस्कृति, धर्मचिन्तन, स्वदेशी का पाठ पढ़ाया। आर्यसमाज के माध्यम से ज्ञानमूलक व रसात्मक दोनों प्रकार से साहित्य की अभूतपूर्व वृद्धि हुई। स्वामी दयानन्द पत्रकारिता द्वारा धर्म प्रचार व्यापक रूप से करना चाहते थे। वे स्वयं कोई पत्र नहीं निकाल सके परन्तु आर्य समाजियों को पत्र-पत्रिकाएँ निकालने के लिए प्रोत्साहित किया। आर्य समाज की विभिन्न संस्थाओं द्वारा प्रसारित होने वाली पत्र-पत्रिकाओं में ‘पवमान’, ‘आत्म शुद्धि पथ’, ‘वैदिक गर्जना’, ‘आर्य संकल्प’, ‘वैदिक रवि’, ‘विश्वज्योति’, ‘सत्यार्थ सौरभ’, ‘दयानन्द सन्देश’, ‘महर्षि दयानन्द स्मृति प्रकाश’, ‘तपोभूमि’, ‘नूतन निष्काम पत्रिका’, ‘आर्य प्रेरणा’ , ‘आर्य संसार’, ‘सुधारक’, ‘टंकारा समाचार’, ‘अग्निदूत’, ‘आर्य सेवक’, ‘भारतोदय’, ‘आर्य मुसाफिर’, ‘आर्य सन्देश’, ‘आर्य मर्यादा’, ‘आर्य जगत’, ‘आर्य मित्र’, ‘आर्य प्रतिनिधि’, ‘आर्य मार्तण्ड’, ‘आर्य जीवन’, ‘परोपकारी’, ‘सम्वर्द्धिनी’ आदि मासिक, पाक्षिक व वार्षिक पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं जिससे हिन्दी पत्रकारिता को नव्य आलोक मिल रहा है।[17]
आर्यसमाज के प्रचार की भाषा हिन्दी ही रही। आर्य समाज ने हिन्दी पत्रकारिता के उन्नयन में ऐतिहासिक भूमिका निभाई।
आर्यसमाज ने भारत को संस्कृत, हिन्दी, समाजविज्ञान, इतिहास, विज्ञान के हजारों विद्वान दिए। इनमें महाशय चिरंजीलाल 'प्रेम', युधिष्ठिर मीमांसक, ब्रह्मदत्त 'जिज्ञासु', पण्डित लेखराम आर्य, महात्मा हंसराज, लाला लाजपत राय, आचार्य रामदेव, स्वामी सोमदेव, गुरुदत्त विद्यार्थी, सत्यकेतु विद्यालंकार, गुरुदत्त, पद्मसिंह शर्मा, यशपाल, क्षेम चंद 'सुमन', जयचन्द विद्यालंकार, अत्रिदेव विद्यालंकार, पंडित आर्यमुनि, सत्यप्रकाश सरस्वती, राजवीर शास्त्री, इन्द्र विद्यावाचस्पति, डॉ फतह सिंह, बुद्धदेव विद्यालंकार, शांति प्रकाश, ओम आनन्द सरस्वती, राम नारायण आर्य, महात्मा आनन्द स्वामी, स्वामी इन्द्रवेश, आचार्य सोमदेव शास्त्री, उदयवीर शास्त्री, स्वामी आनन्दबोध, आचार्य धर्मवीर, राजेन्द्र जिज्ञासु आदि आते हैं।
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