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ढालकर मूर्ति आदि के निर्माण के लिए काँसा (Bronze) सर्वाधिक प्रयुक्त धातु है। काँसे की कुछ विशेषताएँ हैं जो इसे ढलाई के लिए सबसे उपयुक्त बना देतीं हैं। सेट होने के ठीक पहले काँसा थोड़ा फैलता है, जिससे कि मूर्ति आदि की बारीक से बारीक स्थान भर जाते हैं। इसके बाद जब काँसा ठण्डा होता है, यह थोड़ा सा सिकुड़ता है, जिससे इसे मोल्ड से अलग करना आसान हो जाता है।[1] काँस्य मिश्रातु अनेक हैं और आजकल 'क्केवल' काँस्य कहने से कोई विशेष अर्थ नहीं निकलता। आजकल 'काँस्य' के स्थान पर 'ताम्र मिश्रातु' (कॉपर एलॉय) कहा जाने लगा है। आधुनिक कांसा प्रायः 88% ताँबा तथा 12% टिन होता है।[2]
काँसा बनाना मनुष्य ने कैसे सीखा, यह कहना कठिन है। कदाचित् ताँबा गलाने के समय उसके साथ मिली हुई खोट के गल जाने के कारण यह अकस्मात् बन गया होगा क्योंकि काँसे की वस्तुएँ तो सुमेर, मिस्र, ईरान, भारत, चीन के प्रागैतिहासिक युग के सभी स्थानों से प्राप्त हुई हैं परन्तु इन सभी स्थानों के उस प्राचीन युग के काँसे की मूल विविध धातुओं के परिमाण में अन्तर है। जैसे भारत के एक प्रकार के काँसे में ताँबा ९३.०५ भाग, जस्ता २.१४, निकेल ४,८० भाग तथा आरसेनिक मिला है एवं दूसरी भाँति के काँसे में टिन सुमेर, ईरान इत्यादि के स्थानों की भाँति प्राप्त हुआ है।
इस मिली हुई धातु से कारीगर को वस्तुओं को ढालने में बड़ी सरलता हुई तथा इस मिश्रित धातु की बनी कुल्हाड़ी खालिस ताँबे की बनी कुल्हाड़ी से कहीं अधिक धारदार तथा कड़ी बनी। ऐसा अनुमान होता है कि इस धातु के कारीगरों का अपना एक जत्था प्रागैतिहासिक युग में बन गया जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाकर अपने धंधे का प्रचार करता था। पाषाण की बनी हुई कुल्हाड़ियाँ इन काँसे की कुल्हड़ियों के समक्ष फीकी पड़ गयीं। इन्होंने इसी धातु से प्रागैतिहासिक पशु आकृतियाँ भी बनाई। इन्हीं कारीगारों ने कुल्हाड़ी बनाते बनाते चमकते हुए आभूषण भी बनाने प्रारंभ किए जिनके सबसे उत्कृष्ट युग के नमूने हमें जूड़े के काँटो के रूप में हड़प्पा, मोहनजोदेड़ो, खुरेब, हिसार, सूसा, छागर, लुरिस्तान, ऊर इत्यादि स्थानों से प्राप्त हुए हैं। इसी प्रकार काँसे के बने कड़े हड़प्पा, मोहनजोदड़ों, चान्हूदेड़ो, हिसार, सूसा, सियाल्क, चीन, कीश, ऊर तथा मिस्र से मिले हैं। अँगूठियाँ भी इस धातु की बहुत सुंदर बनी हुई मिली हैं। लूरिस्तान की बनी एक अँगूठी के ऊपर तो बड़े ही सुंदर पशु अंकित हैं।
काँसे को जब कारीगर गलाकर ढालने लगे तो इन्होंने विविध आकृतियाँ भी बनानी प्रारंभ कीं। जूड़े के काँटों के मस्तक पर बने प्रागैतिहासिक युग के पशुओं की आकृतियों दर्शनीय हैं। हड़प्पा से प्राप्त एक काँटे पर एक बारहसिंघा और उसपर आक्रमण करता हुआ एक कुत्ता दिखाया गया है, खुरेब से प्राप्त एक काँटे के मस्तक पर ऊँट, हिसार से प्राप्त काँटे पर हंस, छागर बाजार से प्राप्त काँटे पर बंदर इत्यादि। काँसे की इसके पश्चात् बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ भी बनने लगीं। इनमें सबसे मुख्य तो इस काल के सुमेर के अन्निपाद के गौ देवी के मंदिर के चबूतरे पर बने दो साँड़ तथा एक सिंह के मुख की चील है जो अपने पंजों में सिंह के दो-बच्चों को पकड़े हुए है। साँड़ों के शरीरों पर तिपतिया की उभाड़दार आकृतियाँ बनी हैं। मोहनजोदेड़ो से प्राप्त काँसे की एक ठोस स्त्रीमूर्ति भी दर्शनीय है। इस काल में प्राय: मूर्तियाँ ढालकर बनाई जाती थीं।
प्रागैतिहासिक युग में काँसे के कारीगरों ने छोटी गाड़ियाँ भी बनाई जो खिलौनों की भाँति व्यवहार में आती थीं। इस प्रकार की एक बड़ी सुंदर गाड़ी, जिसपर उसका चलानेवाला भी बैठा है, हमें हड़प्पा से प्राप्त हुई है।
काँसे पर उभाड़दार काम की हुई वस्तुएँ सबसे बढ़िया लूरिस्तान से प्राप्त हुई हैं जिसमें एक तरकश पर बना काम तो देखते ही बनता है।
काँसे के बरतन भी इस काल में बने। ऐसे बरतन ईरान, सुमेर, मिस्र तथा भारत के मोहनजोदड़ो, हड़प्पा तथा लोथल से प्राप्त हुए हैं। ये भी प्रायः ढालकर या पत्तर को पीटकर बनाये जाते थे। पीछे चलकर इन पर उभाड़दार काम भी दिखाई देने लगता है जो कदाचित् मिट्टी पर काम बनाकर उसपर पत्तर रखकर पीटकर बनता था।
पीछे इन मिश्रित धातु की विविध वस्तुएँ बनीं। भारत में भी तक्षशिला से कटोरी के आकार के मसीह पात्र प्राप्त हुए हैं। जिनपर ढक्कन लगा हुआ है तथा जिसमें कलम से स्याही लेने के हेतु छेद बना है। ऐसी धातु की बनी घंटियाँ भी यहाँ से प्राप्त हुई हैं। बहुत सी छोटी-छोटी चीजों में यहाँ धर्मचक्र के आकार की बनी पुरोहित के डंडे की मूठ, मुर्गे की मूर्ति तथा मनुष्य की मूर्तियाँ इत्यादि बहुत सी मिली हैं। यहाँ पर स्त्री की ठोस मूर्ति, जो कमल पर खड़ी है, बड़ी ही सुंदर है। यह कला ईरान की कला से बहुत प्रभावित ज्ञात होती है क्योंकि ईरान में काँसे से बने बारहसिंघे प्राय: हखमनी काल के मिल चुके हैं तथा काँसे के बरतन भी उसी काल के प्राप्त हुए हैं।
काँसे का बना ई.पू. द्वितीय शताब्दी का एक चीता, जिसके पैर में पहिए लगे हैं, उज्जैन के पास नागदा से भी प्राप्त हुआ है। सिद्धार्थ की काँसे की बनी मूर्ति दक्षिण के नागार्जुन कोंडा से खुदाई में प्राप्त हुई हैं। यह प्राय: ईसा की प्रथम शताब्दी की है।
इंग्लिस्तान में सिक्के भी काँसे के बने जिसमें प्राय: ९५ प्रतिशत ताँबा, ४ प्रतिशत टिन तथा १ प्रतिशत जस्ता है। प्राचीन फ़ीनीशिया के लोगों ने भी काँसे पर बड़ा सुंदर काम किया। प्राचीन चीन में काँसे पर बड़ी सुंदर खुदाई का काम बना। यहाँ प्राय: अजगर के आकार की खुदाई के काम को मुख्यता दी गई। यहाँ के काँसे के दर्पण, घंटे तथा मूर्तियाँ उल्लेखनीय है। ईरान में कारीगरों ने काँसे पर खुदाई करके बड़े सुंदर बेल बूटे बनाए।
पीछे काँसे के बर्तनों पर ईरानियों ने चाँदी से पच्चीकारी करना भी प्रारंभ कर दिया। इस प्रकार के जो सुंदर बरतन प्राय: ईसा की १३वीं और १४वीं शताब्दी के प्राप्त हुए हैं, वे दर्शनीय हैं। इनमें ईरान के स्त्री-पुरुषों को बगीचों में क्रीड़ा करते हुए दिखाया गया है। काँसे की जालीदार कटाव के काम की लालटेनें भी अरब में प्राय: ईसा की आठवीं शताब्दी की बनी हुई मिली हैं।
अन्य धातुओं के प्राप्त हो जाने पर भी आज काँसे का उपयोग मनुष्य के जीवन में कम नहीं हुआ है। इसके बनाने की विधि में कुछ अंतर करके वैज्ञानिकों ने विविध प्रकार के काँसे प्रस्तुत कर दिए हैं। आज मूर्ति बनाने के हेतु जो काँसा बनता है उसमें ८५ प्रतिशत ताँबा, ११ प्रतिशत जस्ता तथा ४ प्रतिशत टिन रहता है। एक दूसरे प्रकार का काँसा, जो विद्युत् के तार बनाने के काम में आता है, उसमें ८७ प्रतिशत ताँबा, ९ प्रतिशत टिन तथा ५ प्रतिशत फ़ासफ़ोरस रहता है। यह साधारण काँसे से कड़ा होता है।
आज आभूषण बनाने के हेतु एक प्रकार के काँसे का व्यवहार किया जाता है जिसका रंग सुनहरा होता है। इस धातु को ऐल्युमिनियम तथा ताँबा विविध भाग में मिलाकर बनाया गया है। इसपर खुदाई का काम बड़ा सुंदर बनता है। जर्मनी में इस प्रकार का काँसा बहुत व्यवहार में आता है और वहाँ के बने इस काँसे के आभूषण आजकल यूरोप और अमरीका में बहुत पहिने जा रहे हैं।
इस प्रकार काँसा मनुष्य के उपयोग में सभ्यता के प्रारंभ से लेकर आज तक आता रहा है। भले ही इसका रंग बदल गया हो या इसकी दूसरी उपयोगिता हो गई हो, परंतु यह मनुष्य का निरंतर साथी रहा है और आगे भी कदाचित् बना रहेगा।
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