हिन्दू धर्म में; सद्गृहस्थ की, परिवार निर्माण की जिम्मेदारी उठाने के योग्य शारीरिक, मानसिक परिपक्वता आ जाने पर युवक-युवतियों का विवाह संस्कार कराया जाता है। समाज के सम्भ्रान्त व्यक्तियों की, गुरुजनों की, कुटुम्बी-सम्बन्धियों की, देवताओं की उपस्थिति इसीलिए इस धर्मानुष्ठान के अवसर पर आवश्यक मानी जाती है कि दोनों में से कोई इस कत्तर्व्य-बन्धन की उपेक्षा करे, तो उसे रोकें और प्रताड़ित करें। पति-पत्नी इन सन्भ्रान्त व्यक्तियों के सम्मुख अपने निश्चय की, प्रतिज्ञा-बन्धन की घोषणा करते हैं। यह प्रतिज्ञा समारोह ही विवाह संस्कार है। विवाह संस्कार में देव पूजन, यज्ञ आदि से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखनी चाहिए।

विवाह संस्कार में देव पूजन, यज्ञ आदि से सम्बन्धित सभी व्यवस्थाएँ पहले से बनाकर रखनी चाहिए। सामूहिक विवाह हो, तो प्रत्येक जोड़े के हिसाब से प्रत्येक वेदी पर आवश्यक सामग्री रहनी चाहिए, कमर्काण्ड ठीक से होते चलें, इसके लिए प्रत्येक वेदी पर एक-एक जानकार व्यक्ति भी नियुक्त करना चाहिए। एक ही विवाह है, तो आचार्य स्वयं ही देख-रेख रख सकते हैं। सामान्य व्यवस्था के साथ जिन वस्तुओं की जरूरत विशेष कमर्काण्ड में पड़ती है, उन पर प्रारम्भ में दृष्टि डाल लेनी चाहिए। उसके सूत्र इस प्रकार हैं। वर सत्कार के लिए सामग्री के साथ एक थाली रहे, ताकि हाथ, पैर धोने की क्रिया में जल फैले नहीं। मधुपर्क पान के बाद हाथ धुलाकर उसे हटा दिया जाए। यज्ञोपवीत के लिए पीला रंगा हुआ यज्ञोपवीत एक जोड़ा रखा जाए। विवाह घोषणा के लिए वर-वधू पक्ष की पूरी जानकारी पहले से ही नोट कर ली जाए। वस्त्रोपहार तथा पुष्पोपहार के वस्त्र एवं मालाएँ तैयार रहें। कन्यादान में हाथ पीले करने की हल्दी, गुप्तदान के लिए गुँथा हुआ आटा (लगभग एक पाव) रखें। ग्रन्थिबन्धन के लिए हल्दी, पुष्प, अक्षत, दुर्वा और द्रव्य हों। शिलारोहण के लिए पत्थर की शिला या समतल पत्थर का एक टुकड़ा रखा जाए। हवन सामग्री के अतिरिक्त लाजा (धान की खीलें) रखनी चाहिए। ‍वर-वधू के पद प्रक्षालन के लिए परात या थाली रखे जाए। पहले से वातावरण ऐसा बनाना चाहिए कि संस्कार के समय वर और कन्या पक्ष के अधिक से अधिक परिजन, स्नेही उपस्थित रहें। सबके भाव संयोग से कमर्काण्ड के उद्देश्य में रचनात्मक सहयोग मिलता है। इसके लिए व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही ढंग से आग्रह किए जा सकते हैं। विवाह के पूर्व यज्ञोपवीत संस्कार हो चुकता है। अविवाहितों को एक यज्ञोपवीत तथा विवाहितों को जोड़ा पहनाने का नियम है। यदि यज्ञोपवीत न हुआ हो, तो नया यज्ञोपवीत और हो गया हो, तो एक के स्थान पर जोड़ा पहनाने का संस्कार विधिवत् किया जाना चाहिए। ‍अच्छा हो कि जिस शुभ दिन को विवाह-संस्कार होना है, उस दिन प्रातःकाल यज्ञोपवीत धारण का क्रम व्यवस्थित ढंग से करा दिया जाए। विवाह-संस्कार के लिए सजे हुए वर के वस्त्र आदि उतरवाकर यज्ञोपवीत पहनाना अटपटा-सा लगता है। इसलिए उसको पहले ही पूरा कर लिया जाए। यदि वह सम्भव न हो, तो स्वागत के बाद यज्ञोपवीत धारण करा दिया जाता है। उसे वस्त्रों पर ही पहना देना चाहिए, जो संस्कार के बाद अन्दर कर लिया जाता है। जहाँ पारिवारिक स्तर के परम्परागत विवाह आयोजनों में मुख्य संस्कार से पूर्व द्वारचार (द्वार पूजा) की रस्म होती है, वहाँ यदि हो-हल्ला के वातावरण को संस्कार के उपयुक्त बनाना सम्भव लगे, तो स्वागत तथा वस्त्र एवं पुष्पोपहार वाले प्रकरण उस समय भी पूरे कराये जा सकते हैं ‍विशेष आसन पर बिठाकर वर का सत्कार किया जाए। फिर कन्या को बुलाकर परस्पर वस्त्र और पुष्पोपहार सम्पन्न कराये जाएँ। परम्परागत ढंग से दिये जाने वाले अभिनन्दन-पत्र आदि भी उसी अवसर पर दिये जा सकते हैं। इसके कमर्काण्ड का संकेत आगे किया गया है। ‍पारिवारिक स्तर पर सम्पनन किये जाने वाले विवाह संस्कारों के समय कई बार वर-कन्या पक्ष वाले किन्हीं लौकिक रीतियों के लिए आग्रह करते हैं। यदि ऐसा आग्रह है, तो पहले से नोट कर लेना-समझ लेना चाहिए। पारिवारिक स्तर पर विवाह-प्रकरणों में वरेच्छा, तिलक (शादी पक्की करना), हरिद्रा लेपन (हल्दी चढ़ाना) तथा द्वारपूजन आदि के आग्रह उभरते हैं। उन्हें संक्षेप में दिया जा रहा है, ताकि समयानुसार उनका निवार्ह किया जा सके। इसी संस्कार का त्रयोदश चरण है ग्रंथि बंधन।

ग्रन्थिबन्धन

दिशा और प्रेरणा

वर-वधू द्वारा पाणिग्रहण एकीकरण के बाद समाज द्वारा दोनों को एक गाँठ में बाँध दिया जाता है। दुपट्टे के छोर बाँधने का अर्थ है-दोनों के शरीर और मन से एक संयुक्त इकाई के रूप में एक नई सत्ता का आविर्भाव होना। अब दोनों एक-दूसरे के साथ पूरी तरह बँधे हुए हैं। ग्रन्थिबन्धन में धन, पुष्प, दूर्वा, हरिद्रा और अक्षत यह पाँच चीजें भी बाँधते हैं। पैसा इसलिए रखा जाता है कि धन पर किसी एक का अधिकार नहीं रहेगा। जो कमाई या सम्पत्ति होगी, उस पर दोनों की सहमति से योजना एवं व्यवस्था बनेगी। ‍दूर्वा का अर्थ है- कभी निजीर्व न होने वाली प्रेम भावना। दूर्वा का जीवन तत्त्व नष्ट नहीं होता, सूख जाने पर भी वह पानी डालने पर हरी हो जाती है। इसी प्रकार दोनों के मन में एक-दूसरे के लिए अजस्र प्रेम और आत्मीयता बनी रहे। चन्द्र-चकोर की तरह एक-दूसरे पर अपने को न्यौछावर करते रहें। अपना कष्ट कम और साथी का कष्ट बढ़कर मानें, अपने सुख की अपेक्षा साथी के सुख का अधिक ध्यान रखें। अपना आन्तरिक प्रेम एक-दूसरे पर उड़ेलते रहें। हरिद्रा का अर्थ है- आरोग्य, एक-दूसरे के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को सुविकसित करने का प्रयतन करें। ऐसा व्यवहार न करें, जिससे साथी का स्वास्थ्य खराब होता हो या मानसिक उद्वेग पैदा होता हो। अक्षत, सामूहिक-सामाजिक विविध-विध उत्तरदायित्वों का स्मरण कराता है। कुटुम्ब में कितने ही व्यक्ति होते हैं। उन सबका समुचित ध्यान रखना, सभी को सँभालना संयुक्त पति-पत्नी का परम पावन कत्तर्व्य है। ऐसा न हो कि एक-दूसरे को तो प्रेम करें, पर परिवार के लोगों की उपेक्षा करने लगें। इसी प्रकार परिवार से बाहर भी जन मानस के सेवा की जिम्मेदारी हर भावनाशील मनुष्य पर रहती है। ऐसा न हो कि दो में से कोई किसी को अपने व्यक्तिगत स्वार्थ सहयोग तक ही सीमित कर ले, उसे समाज सेवा की सुविधा न दे। इस दिशा में लगने वाले समय व धन का विरोध करे। अक्षत इसी का संकेत करता है कि आप दोनों एक-दूसरे के लिए ही नहीं बने हैं, वरन् समाजसेवा का व्रत एवं उत्तरदायित्व भी आप लोगों के ग्रन्थिबन्धन में एक महत्त्वपूणर् लक्ष्य के रूप में विद्यमान है। पुष्प का अर्थ है, हँसते-खिलते रहना। एक-दूसरे को सुगन्धित बनाने के लिए यश फैलाने और प्रशंसा करने के लिए तत्पर रहें। कोई किसी का दूसरे के आगे न तो अपमान करे और न तिरस्कार। इस प्रकार दूर्वा, पुष्प, हरिद्रा, अक्षत और पैसा इन पाँचों को रखकर दोनों का ग्रन्थिबन्धन किया जाता है और यह आशा की जाती है कि वे जिन लक्ष्यों के साथ आपस में बँधे हैं, उन्हें आजीवन निरन्तर स्मरण रखे रहेंगे।

क्रिया और भावना- ग्रन्थिबन्धन, आचायर् या प्रतिनिधि या कोई मान्य

व्यक्ति करें। दुपट्टे के छोर एक साथ करके उसमें मंगल-द्रव्य रखकर गाँठ बाँध दी जाए। भावना की जाए कि मंगल द्रव्यों के मंगल संस्कार सहित देवशक्तियों के समथर्न तथा स्नेहियों की सद्भावना के संयुक्त प्रभाव से दोनों इस प्रकार जुड़ रहे हैं, जो सदा जुड़े रहकर एक-दूसरे की जीवन लक्ष्य यात्रा में पूरक बनकर चलेंगे-

ॐ समंजन्तु विश्वेदेवाः, समापो हृदयानि नौ। सं मातरिश्वा सं धाता, समुदेष्ट्री दधातु नौ॥ - ऋ०१०.८५.४७, पार०गृ०सू० १.४.१४

विशेष व्यवस्था

अगला कार्यक्रम

इससे अगला कार्यक्रम या चरण है वर वधु की प्रतिज्ञाएं

अन्य चरण

इसी प्रकार हिन्दू विवाह के बाईस चरण होते हैं। इन सभी चरणों के बाद हिन्दू विवाह पूर्ण होता है।



इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

गायत्री शांतिकुंज की ओर से]

Wikiwand in your browser!

Seamless Wikipedia browsing. On steroids.

Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.

Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.