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प्राकृतिक रबर पेड़ों और लताओं के रस, या रबरक्षीर (latex) से बनता है। इसे 'भारतीय रबर' भी कहते हैं। यूफॉर्बिएसिई (Euphorbiaceae) कुल तथा अर्टिकेसिई (Urticaceae), एपोसाइनेसिई (Apocynaceae) कुल तथा कंपोज़िटी कुल की ग्वायुले (Guayule) इत्यादि के बड़े बड़े वृक्षों, कुछ लताओं और झाड़ियों के रबरक्षीर से रबर प्राप्त होता है। सबसे अधिक रबर हैविया ब्राजीलिएन्सिस (Hevea braziliensis) से प्राप्त होता है। यह अमरीका के आमेज़न नदी के जंगलों में उगता था और अब भारत के त्रावणकोर, कोचीन, मैसूर, मलाबार, कुर्ग, सलेम और श्रीलंका में उगाया जाता है। पाँच वर्ष के हो जाने पर पेड़ से रबरक्षीर निकलना शुरू होता है और लगभग 40 वर्षों तक निकलता रहता है। एक एकड़ में लगभग 150 पेड़ लगाए जाते हैं और उनसे 150 से 500 पाउंड तक रबर प्राप्त होता है। एक पेड़ से प्रति वर्ष प्राय: 6 पाउंड तक रबर प्राप्त होता है। एक दूसरा पेड़ फाइकस इलैस्टिका (ficus elastica), रबर वट, है, जो पूर्व एशिया में उपजता है। इसी पेड़ से असम, म्याँमार, मलाया और अन्य निकटवर्ती द्वीपों में रबर प्राप्त होता है। इनके अतिरिक्त मैन्होटि ग्लाज़ियोवी (Manhoti Glaziovie) से अमेज़न घाटियों और टैगेनिका में, कैस्टिला अलेइ (Castilla ulei) से अमेज़न, मेक्सिको और मध्य अमरीका में, फिक्सिया इलैस्टिका (Kiksia elastica) से कैमेरून्स में और लैडोल्फिया (Landolphia) से कांगों में रबर प्राप्त होता है। इनके अतिरिक्त अन्य कई पेड़ों और लताओं से भी रबर प्राप्त होता है। या हो सकता है।
पेड़ों के धड़ के छेवने, या काटने, से रवरक्षीर निकलता है। रबरक्षीर को इकट्ठा करते हैं। रबरक्षीर में शुष्क रबर की मात्रा लगभग 32 प्रतिशत रहती है। रबरक्षीर पानी से हल्का हाता है। इसका विशिष्ट घनत्व 0.978 से 0.987 होता है। रबरक्षीर में रबर के अतिरिक्त रेज़िन, शर्करा, प्रोटीन, खनिज लवण और एंज़ाइम रहते हैं। पेड़ से निकलने के बाद रबरक्षीर का परीक्षण आवश्यक है, अन्यथा रबरक्षीर का स्कंदन होने से जो रबर प्राप्त होता है वह उत्कृष्ट कोटि का नहीं होता। परिरक्षण के लिए 0.5 से 1.0 प्रतिशत अमोनिया, फॉर्मेलिन तथा सोडियम, या पोटैशियम हाइड्राक्साइड का प्रयोग होता है। इनमें अमोनिया सर्वश्रेष्ठ होता है। रबरक्षीर कोलॉयड सा व्यवहार करता है। इसका पीएच 7 होता है और अमोनिया से 8 से 11 हो जाता है।
रबर प्राप्ति के लिए रबरक्षीर का स्कंदन होता है। स्कंदन की पुरानी रीति है रबरक्षीर को मिट्टी के गड्ढे में गाड़ देना। पानी बहकर मिट्टी में मिल जाता है और ठोस रबर गड्ढे में रह जाता है। दूसरी रति है पेड़ के धड़ पर ही रबरक्षीर को स्कंदन के लिए छोड़ देना। पानी सूखकर निकल जाता है और रबर रह जाता है। तीसरी रति है धुआँ से रबरक्षीर का स्कंदन करना। काठ के पात्र में रबरक्षीर को रखकर धुएँ के घर में रख देते हैं। रबरक्षीर पीला और दृढ़ हो जाता है। उसपर दूसरा स्तर जमाकर 'पारा रबर' प्राप्त कर सकते हैं। आधुनिक रीति में स्कंदन के लिए रसायनक, अम्ल, अम्लीय लवण, सामान्य लवण, ऐल्कोहॉल इत्यादि उपयुक्त होते हैं। ऐसीटिक अम्ल, फॉर्मिक अम्ल और हाइड्रोफ्लोरिक अम्ल उत्तम पाए गए हैं। अपकेंद्रित्र से भी स्कंदन होता है। विद्युत् प्रवाह भी स्कंदन करता है।
शुद्ध रबर में न गंध होती है और न रंग। यह प्रत्यास्थ और पारदर्शक होता है। इसका घनत्व 0.915 से 0.930 के बीच होता है। इसका अपवर्तनांक 1.5219 है। बैक्टीरियों की क्रिया के कारण रंग पीला हो जाता और नीले धब्बे पड़ जाते हैं। दहन की ऊष्मा प्रति ग्राम 10,700 कैलार है। इसकी चालकता बड़ी कम, 0.00032 है। इसका वैद्युत् गुण उत्तम होता है। वल्कनीकरण और जीर्णन से यह गुण घट जाता है। शुद्ध रबर कठिनता से प्राप्त हाता है। यह जल्द ऑक्सीकृत होकर जीर्ण हो जाता है। अनेक कार्बनिक विलायकों, नैफ्थ, बेंज़ीन, टॉलूईन, कार्बन बाइसल्फाइड, कार्बन टेट्राक्लोराइड, क्लारोफार्म, पेट्रोलियम तथा ईथर में घुल जाता है। ईथर में घुलकर 'जेल रबर' बनता है। इसका विलयन बड़ा श्यान (viscous) होता है। गरम करने पर 120° सें. पर यह कोमल होने लगता है। ऊँचे ताप पर यह विघटित होता है। भंजक आसवन से यह पेट्रोल सा द्रव बनाता है। रबर ओज़ोन से बड़ी जल्दी आक्रांत होकर जीर्ण हो जाता है।
कच्चे रबर में भौतिक या यांत्रिक बल नहीं हाता। प्रकाश और ऊच्च ताप से इसका ह्रास हाता है। रबर को अधिक उपयोगी बनाने के लिए उसमें कुछ मिलाना आवश्यक होता है। रबर में कोमलकारक, सुनम्यकार, पूरक (filler), वर्णक (pigments), त्वरक (accelerators), अतिऑक्सीकारक, (anti-oxidant), गंधक इत्यादि मिलाए जो हैं। कोमलकारकों के रूप में विटुमिन, पाइनकोलतार, मोम, स्टियरिक अम्ल और खनिज पैराफिन, क्युमेरोन, रेज़िन इत्यादि, पूरकों के रूप में जिंक ऑक्साइड, लौह ऑक्साइड, लिथोफोन, बेरियम सल्फेट, कीज़लगर, कैल्सियम कार्बोनेट, टाल्क, मैग्नीशियम कार्बोनेट, काजल इत्यादि प्रयुक्त होते हैं। वर्णकों के रूप में खनिज वर्णक और कार्बनिक रंजक दोनों प्रयुक्त हो सकते हैं।
रबर का वल्कनीकरण महत्व का प्रक्रम है। इससे शुद्ध रबर के अनेक दोषों का निराकरण हो जाता है, जिससे रबर को उपयोगिता बढ़ जाती है। वल्कनीकरण के लिए कच्चे रबर को गंधक के साथ लगभग 140° सें. पर तीन से चार घंटे तक गरम करते हैं। गंधक के साथ त्वरक को मिला देने से वल्कनीकरण शीघ्र संपन्न हो जाता और रबर में कुछ अधिक उपयोगी गुण भी आ जाते हैं। त्वरक की अत्यंत अल्प मात्रा लगती है। कुछ त्वरकों से तो सामान्य ताप पर ही वल्कनीकरण हो जाता है। वल्कनीकरण से भौतिक गुणों के साथ साथ रबर के रासायनिक गुणों में भी परिवर्तन हो जाता है। वल्कनीकरण में 3 से 5 प्रतिशत गंधक इस्तेमाल हो सकता है। वल्कनीकृत रबर का गुण वल्कनीकरण के ढंग पर बहुत कुछ निर्भर करता है। वल्कनीकृत रबर पर पानी का कोई असर नहीं होता। यह चिपचिपा नहीं होता। वितानक्षपता और दैर्ध्य बढ़ जाता है। विलायकों, ऊष्मा, विदरण और अपघर्षण के प्रति प्रतिरोध बढ़ जाता है। वैद्युत गुण बहुत कुछ बदल जाता है। वल्कनीकरण प्रेस में, या भाप की उपस्थिति में, या शुष्क ताप पर संपन्न हाता है। वल्कनीकरण में गंधक रबर के साथ रसायनत: संयुक्त होता है।
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