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जिसे शारीरिक रचना के रूप में जाना जाता है विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
शारीरिकी, शारीर, व्ययच्छेदविद्या या शरीररचना-विज्ञान (अंग्रेज़ी: Anatomy, प्राचीन यूनानी: ἀνατομή ( अनातोमे ) आर्थात् 'विच्छेदन ' से व्युत्पन्न ), जीव विज्ञान और आयुर्विज्ञान की एक शाखा है जिसके अंतर्गत किसी जीवित (चल या अचल) वस्तु का विच्छेदन कर, उसके अंग प्रत्यंग की रचना का अध्ययन किया जाता है। शारीरिकी, प्राकृतिक विज्ञान की वह शाखा है जो जीवित चीज़ों और उनके भागों के संरचनात्मक संगठन के अध्ययन से संबंधित है।[1]यह एक प्राचीन विज्ञान है, जिसकी शुरुआत प्रागैतिहासिक काल में हुई थी।[2] शारीरिकी स्वाभाविक रूप से विकासात्मक जीवविज्ञान, भ्रूणविज्ञान , तुलनात्मक शरीररचना विज्ञान, विकासीय जीवविज्ञान , और जातिवृत्त से जुड़ा हुआ है[3], चूंकि ये सभी ऐसी प्रक्रियाएं हैं जिनके द्वारा शारीरिकी तत्काल और दीर्घकालिक समय-काल दोनों में उत्पन्न होता है। शारीरिकी और कार्यिकी, जो क्रमशः जीवों व उनके भागों की संरचना और कार्य का अध्ययन करते हैं, संबंधित विषयों की एक प्राकृतिक जोड़ी बनाते हैं, और अक्सर एक साथ अध्ययन किये जाते हैं। मानव शरीररचना, आयुर्विज्ञान में लागू होने वाले आवश्यक आधारिक विज्ञानों में से एक है।[4]
शारीरिकी एक जटिल और गतिशील क्षेत्र है जो नई खोजों के रूप में लगातार विकसित हो रहा है। हाल के वर्षों में, एमआरआई (चुंबकीय अनुनाद प्रतिबिंबन) और सीटी स्कैन जैसी उन्नत प्रतिबिंबन तकनीकों के उपयोग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है , जो शरीर की संरचनाओं के अधिक विस्तृत और सटीक प्रत्यक्षीकरण की अनुमति देती हैं।
शारीरिकी के अनुशासन को स्थूलदर्शीय और सूक्ष्मदर्शीय शारीरिकी में विभाजित किया गया है । स्थूलदर्शीय शारीरिकी , या ग्रॉस (सकल या समग्र) शारीरिकी, बिना किसी अन्य सहायता के, दृष्टि का उपयोग करके किसी जानवर के शरीर के अंगों की समीक्षा है। सकल शरीररचना में सतही शरीररचना (पृष्ठ शारीर) की शाखा भी शामिल है । सूक्ष्मदर्शीय शारीरिकी में विभिन्न संरचनाओं के ऊतकों के अध्ययन में चाक्षुषीय उपकरणों का उपयोग शामिल है , जिसे ऊतक विज्ञान के रूप में जाना जाता है, और कोशिकाओं के अध्ययन में भी।
अचल में वनस्पतिजगत तथा चल में प्राणीजगत का समावेश होता है और वनस्पति और प्राणी के संदर्भ में इसे क्रमश: पादप शारीरिकी और जीव शारीरिकी कहा जाता है। जब किसी विशेष प्राणी अथवा वनस्पति की शरीररचना का अध्ययन किया जाता है, तब इसे विशेष शारीरिकी अध्ययन कहते हैं। जब किसी प्राणी या वनस्पति की शरीर रचना की तुलना किसी दूसरे प्राणी अथवा वनस्पति की शरीर रचना से की जाती है उस स्थिति में यह अध्ययन तुलनात्मक शारीरिकी कहलाता है। जब किसी प्राणी के अंगों की रचना का अध्ययन किया जाता है, तब यह आंगिक शारीरिकी कहलाती है।
शरीररचना विज्ञान का इतिहास, मानव शरीर के अंगों और संरचनाओं के कार्यों की एक प्रगतिशील समझ से पहचाना जाता है। शवों और लाशों के विच्छेदन द्वारा जानवरों की अन्वीक्षा से 20वीं सदी की चिकित्सा प्रतिबिंबन तकनीकों जैसे कि एक्स-रे, पराध्वनि, और चुंबकीय अनुनाद प्रतिबिंबन इत्यादि को आगे बढ़ाते हुए तरीकों में भी नाटकीय रूप से सुधार हुआ है ।
व्यावहारिक या लौकिक दृष्टि से मानव शरीररचना का अध्ययन अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। एक चिकित्सक को शरीररचना का अध्ययन कई दृष्टि से करना होता है, जैसे रूप, स्थिति, आकार एवं अन्य रचनाओं से संबंध।
आकारिकीय शरीररचना विज्ञान (Morphological Anatomy) की दृष्टि से मानवशरीर के भीतर अंगों की उत्पत्ति के कारणों का ज्ञान, अन्वेषण का विषय बन गया है। इस ज्ञान की वृद्धि के लिए भ्रूणविज्ञान (Embryology), जीवविकास विज्ञान, जातिविकास विज्ञान एवं ऊतक विज्ञान (Histo-anatomy) का अध्ययन आवश्यक है।
स्वस्थ मानव शरीर की रचना का अध्ययन निम्न भागों में किया जाता है:
1. चिकित्साशास्त्रीय शरीररचना विज्ञान,
2. शल्यचिकित्सा शरीररचना विज्ञान (Surgical Anatomy),
3. स्त्री शरीर विशेष रचना विज्ञान,
4. धरातलीय शरीररचना विज्ञान (surface Anatomy),
5. सूक्ष्मदर्शीय शरीररचना विज्ञान (Microscopic Anatomy) तथा
6. भ्रूण शरीररचना विज्ञान (Embryology)।
विकृत अंगों की रचना के ज्ञान को विकृत शरीररचनाविज्ञान (Pathological Anatomy) कहते हैं।
मानव की विभिन्न प्रजातियों की शरीररचना का जब तुलनात्मक अध्ययन किया जाता है, तब मानवविज्ञान (Anthropology) का सहारा लिया जाता है। आजकल शरीररचना का अध्ययन सर्वांगी (systemic) विधि से किया जाता है।
ईसा से 1,000 वर्ष पूर्व महर्षि सुश्रुत ने शवच्छेद कर शरीररचना का पर्याप्त वर्णन किया था। धीरे-धीरे यह ज्ञान अरब और यूनान होता हुआ यूरोप में पहुँचा और वहाँ पर इसका बहुत विस्तार एवं उन्नति हुई। शव की संरक्षा के साधन, सूक्ष्मदर्शी, ऐक्सरे आदि के उपलब्ध होने पर शरीररचना विज्ञान का अध्ययन अधिक सूक्ष्म एवं विस्तृत हो गया है। शरीर रचना की सबसे छोटी इकाई कोशिका है। बहुत सी कोशिकाएँ मिलकर ऊतक बनते हैं; एक या अनेक प्रकार के ऊतकों से अंग बनते हैं; कई अंग मिलकर एक तंत्र बनाते हैं। शरीर कई तन्त्रों का समूह है।
शरीर का निर्माण करनेवाले जीवित एकक (unit) को कोशिका (cell) कहते हैं। यह सूक्ष्मदर्शी से देखी जा सकती है। कोशिका एक स्वच्छ लसलसे रस से, जिसे जीवद्रव्य कहते हैं, भरी रहती है। कोशिका को चारों ओर से घेरनेवाली कला को कोशिका झिल्ली कहते हैं। कोशिका के केंद्र में केन्द्रक (न्यूक्लियस) रहता है, जो कोशिका पर नियंत्रण करता है। कोशिका के जीवित होने का लक्षण यही है कि उसमें अभिक्रिया, शक्ति, एकीकरण शक्ति, वृद्धि, विसर्जन शक्ति तथा उत्पादन शक्ति, उपस्थित रहे। शरीर का स्वास्थ्य कोशिकाओं के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है।
एक प्रकार की आकृति एवं कार्य करनेवाली कोशिकाएँ मिलकर, एक विशेष प्रकार के ऊतक (Tissues) का निर्माण करती हैं। जन्तुओं में मुख्यतः निम्नलिखित प्रकार के ऊतक पाये जाते हैं :
(1) उपकला ऊतक,
(2) संयोजी ऊतक,
(3) पेशी ऊतक तथा
(4) तंत्रिका ऊतक।
(5) जनन ऊतक
विस्तृत विवरण के लिये ऊतक देखिये।
शरीर का निर्माण निम्नलिखित तंत्रों द्वारा होता है :
(1) अस्थि तंत्र,
(2) संधि तंत्र,
(3) पेशी तंत्र,
(4) रुधिर परिवहन तंत्र,
(5) आशय तंत्र :
(6) तंत्रिका तंत्र तथा
(7) ज्ञानेंद्रिय तंत्र।
विस्तृत विवरण के लिये शरीर के तंत्र देखिये।
धरातलीय शारीरिकी (Superficial or surface anatomy) शरीरशास्त्र की यह महत्वपूर्ण शाखा है और शल्य चिकित्सा तथा रोग निदान में अत्यन्त सहायक होती है। इसी से ज्ञात होता है कि दाहिनी दसवीं पर्शुका के कार्टिलेज के नीचे पित्ताशय रहता है; या हृदय का शीर्ष (apex) 5वीं अंतरपर्शुका से सटा, शरीर की मध्य रेखा से 9 सेमी. बाईं ओर होता है; अथवा भगास्थि, ट्यूबरकल से 1 सेमी. ऊपर होती है तथा 1 सेमी. पार्श्व में बाह्य उदरी मुद्रिका छिद्र रहता है। शरीर में स्थित जहाँ बिंदु त्वचा पर पहचाने जा सकते हैं, वहाँ से त्वचा के अंतः स्थित अंगों को त्वचा पर खींचकर, उस स्थान पर काटने पर वही अंग हमें मिलना चाहिए।
इसी प्रकार इस शास्त्र को अध्ययन करने की एक और विधि है जिसमें एक्स-रे से सहायता लेते हैं। इसे रेडियोलीजिकल एनाटोमी कहते हैं। अस्थियों के अतिरिक्त अब धमनियों, वृक्क, मूत्राशय आदि अनेक अंगों की रचना तथा स्थिति का अध्ययन इससे करते हैं। इससे अंगों की वास्तविक रचना तथा विकृत रचना दोनों का ज्ञान प्राप्त होता है।
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