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जब समुदाय के अनेक व्यक्ति एक साथ एक ही तरह के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं तो वह एक सामूहिक घटना होती है जिसे ‘जनरीति’ (Folkways) कहते हैं। यह जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है। इस प्रकार हस्तान्तरित होने के दौरान इसे समूह की अधिकाधिक अभिमति प्राप्त होती जाती है, क्योंकि प्रत्येक पीढ़ी का सफल अनुभव इसे और भी दृढ़ बना देता है, यही 'प्रथा' (custom) है।
कभी-कभी मानव इन प्रथाओं का पालन कानूनों के समान करता है। क्योंकि उसे समाज का भय होता है, उसे भय होता है लोकनिन्दा का और उसे भय होता है सामाजिक बहिष्कार का।
जैसाकि उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट ही है कि समाज से मान्यता प्राप्त, पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होने वाली सुव्यवस्थित, दृढ़ जनरीतियां ही ‘प्रथाएं’ कहलाती हैं। प्रथा वास्तव में सामाजिक क्रिया करने की, स्थापित व मान्य विधि है। लोग इसे इसलिए मानते हैं कि समाज के अधिकतर लोग उसी विधि के अनुसार बहुत दिनों से कार्य या व्यवहार करते आ रहे हैं। इस प्रकार ‘प्रथा’, ‘जनरीति’ का ही एक प्रौढ़ रूप है, जिसके साथ सामाजिक अभिमति या स्वीकृति जुड़ी हुई होती है। ‘प्रथा’ का सम्बन्ध एक लम्बे समय से प्रयोग में लाई जाने वाली लोक-रीतियों से होता है। दूसरे शब्दों में, इसके अन्तर्गत वे क्रियाएँ आती हैं, जिन्हें पीढ़ियों से स्वीकार किया जाता रहा है। इन्हीं प्रथाओ के कारण हम नवीन (या भिन्न) क्रियाओं को करने में कुछ हिचकिचाहट का अनुभ्व करते हैं। व्यक्ति का व्यवहार प्रथाओं से प्रभावित होता है।
मैकाइवरऔर पेजके अनुसार,
प्रो॰ बोगार्डस ने प्रथाओं और परम्पराओं को एक ही मानते हुए उनकी परिभाषा देते हुए कहा है,
सेपीरने भी लिखा है,
परन्तु प्रो॰ बोगार्डसकी उपरोक्त परिभाषा से यह न समझ लेना चाहिए कि प्रथा और परम्परा (tradition) एक ही हैं। वास्तव में इनमें पर्याप्त भिन्नता है। इन दोनों के अन्तर को स्पष्ट करते हुए रॉस ने लिखा है कि,
प्रथा की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए इसकी विशेषताओं को जानना आवश्यक है-
(1) ‘प्रथा’ का आधार समाज है, पर इसे जानबूझकर नहीं बनाया जाता, अपितु सामाजिक अन्तःक्रिया के दौरान इसका विकास होता है।
(2) ‘प्रथा’ वह जनरीति है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है। इसका पालन केवल इसलिए किया जाता है कि एक लम्बे समय से अनेक व्यक्ति इसका पालन करते आ रहे हैं।
(3) ‘प्रथा’ व्यवहार की वे रीतियाँ हैं जो अनेक पीढ़ियों से चलती आती हैं और इस प्रकार समूह में स्थायित्व प्राप्त कर लेती हैं। इसके पीछे समूह या समाज की अधिकाधिक अभिमति होती है। वास्तव में अनेक पीढ़ियों का सफल अनुभव ही इसे दृढ़ बनाता है।
(4) ‘प्रथा’ रूढ़िवादी होती है, इस कारण इसे सरलता से बदला नहीं जा सकता और परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी होती है।
(5) ‘प्रथा’ को बनाने, चलाने तथा इसे तोड़ने वालों को दण्ड देने के लिए कोई संगठन या शक्ति नहीं होती। समाज ही इसे जन्म देता और लागू करता है।
(6) मानव के हर प्र्रकार के व्यवहार को नियन्त्रित करने की क्षमता, प्रथाओं में बहुत बड़ी मात्रा में होती है। मानव के जीवन में, बचपन से लेकर मृत्युकाल तक, इनका प्रभाव पड़ता रहता है।
(7) प्रथा की प्रकृति को स्पष्ट करने के लिए जिन्सबर्ग ने ‘प्रथा’ और ‘आदत’ (habit) में अन्तर करना आवश्यक समझा है। आपने लिखा है कि,
(8) जिन्सबर्गके अनुसार ‘प्रथा की प्रकृति को भलीभांति समझने के लिए ‘प्रथा’ का ‘फैशन’ से भी अन्तर समझ लेना होगा। कभी-कभी यह कहा जाता है कि फैशन क्रिया की तात्कालिक समानता है; अर्थात् इसके प्रभाव से प्रत्येक व्यक्ति वही करता है जो हर दूसरा आदमी कर रहा है; और इस तरह यह अनुकरण पर आधारित होता है। पर ‘प्रथा’ तो क्रिया की क्रमिक समानता है। दूसरे शब्दों में, प्रथा के अनुसार काम करते हुए प्रत्येक व्यक्ति वही करता है जो सदैव से किया जाता रहा है और इस तरह प्रथा अनिवार्य रूप से आदत पर आधारित होती है। लेकिन दोनों में (प्रथा और फैशन में) इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण अन्तर भी है। सर्वप्रथम- प्रथा, समाज की सदा बनी रहने वाली मौलिक आवश्यकताओं से सम्बन्धित मालूम पड़ती है; जबकि फैशन का प्रभाव जीवन के कम मार्मिक और कम सामान्य क्षेत्रों में दिखाई देता है। फैशन अनिवार्य रूप से गतिशील और परिवर्तनशील होता है। वास्तव में फैशन बार-बार होने वाले परिवर्तनों का एक सिलसिला होता है और प्रायः अनुकरण और नवीनता इसकी विशेषता होती है। इसके विपरीत, प्रथा अनिवार्य रूप से सुस्थिर और बगैर टूटे चलने वाली होती है। और उसमें परिवर्तन सदैव धीमे-धीमे ही होता है। इसमें सन्देह नहीं कि कुछ फैशन ऐसे भी होते हैं जो बदलते नहीं हैं, लेकिन ऐसा होने पर वास्तव में वे फैशन नहीं रहते, बल्कि प्रथा बन जाते हैं। दूसरे शब्दों में, उनको अतीत और वर्तमान दोनों का ही सम्मान प्राप्त होता है। दूसरी बात यह है कि प्रथा और फैशन में प्रेरक (Motive) तत्व पृथक-पृथक होते हैं।... प्रथा का अनुसरण इसलिए होता है कि भूतकाल में प्रायः इसका अनुसरण हुआ है, जबकि फैशन का इसलिए कि वर्तमान में उसका अनुसरण हो रहा है। इसके अतिरिक्त, फैशन एक तरह से नवीनता का द्योतक होता है और इसका अनिवार्य आधार अपने को दूसरे से पृथक करने की उत्कट इच्छा में पाया जाता है। इसके विपरीत, प्रथा का जोर बहुत‘ कुछ इस तथ्य पर आधारित होता है कि इसके द्वारा समाज नवीनता के खतरों से अपना बचाव कर सकता है। अर्थात् प्रथा का आधार अपने को दूसरों के अतीत के और पुरातन के समान कर लेने की इच्छा होती है।
साधारणतया प्रथाओं और जनरीतियों को एक ही माना जाता है। परन्तु वास्तव में ये दोनों ही भिन्न-भिन्न विचार हैं। प्रथाएँ वास्तव में जनरीतियाँ न होकर उनका ही विकसित रूप हैं। समूह का कोई भी व्यवहार तब तक प्रथा का रूप धारण नहीं कर सकता, जब तक कि उसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त न हो। इस रूप में जनरीतियों को सामूहिक व्यवहार का प्रथम पग कहा जा सकता है और प्रथाओं को दू सरा पग। इसके अतिरिक्त प्रथाएँ जनरीतियों की तुलना में अधिक स्थायी और शक्तिशाली भी होती हैं। इतना ही नहीं, सामाजिक नियन्त्रण के एक साधन के रूप में, प्रथाओं का महत्व जनरीतियों से कहीं अधिक बढ़कर हैं।
प्रथा की उत्पत्ति एकाएक या एक दिन में नहीं होती। किसी भी प्रथा का विकास धीरे-धीरे और काफी समय में होता है। दैनिक जीवन में मनुष्य के सामने अनेक नवीन आवश्यकताएँ आती रहती हैं। इनमें से कुछ ऐसी होती हैं जो समूह के अधिकतर लोगों से सम्बन्धित होती हैं। इसलिए इस प्रकार की सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साधनों को दूँढ़ निकालने का प्रयत्न किया जाता है। यह साधन सर्वप्रथम एक विचार (concept) या अवधारणा के रूप में एक व्यक्ति के दिमाग में आता है। व्यक्ति अपने इस विचार के अनुसार कार्य करता है और यह जानने की कोशिश करता है कि उस तरीके से उस आवश्यकता की पूर्ति हो सकती है या नहीं। यदि वह अपने इस प्रयास में सफल होता है तो भविष्य में भी वैसी ही आवश्यकता आ पड़ने पर उसे वह बार-बार दोहराता है। बार-बार दोहराने से वह उसकी व्यक्तिगत आदत बन जाती है। जब दूसरे लोग प्रथम व्यक्ति के सफल व्यवहार या क्रिया की विधि को देखते हैं; तो वे भी उस विधि को अपना लेते हैं। जब व्यवहार की वह विधि समाज में फैल जाती है तो उसे जनरीति (Folkways) कहते हैं। जब जनरीति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तान्तरित होती रहती है तो उसे प्रथा कहते हैं। इस प्रकार एक विचार से व्यक्तिगत आदत, व्यक्तिगत आदत से जनरीति और जनरीति से प्रथा की उत्पत्ति या विकास होता है। इस प्रकार प्रथा की उत्पत्ति में अतीत और वर्तमान दोनों का ही योगदान रहता है। वुण्ट ने लिखा है,
यह कथन श्री जिन्सबर्ग के अनुसार इस अर्थ में सही है कि रिवाज एक सम्मिलित सृष्टि और हजारों अन्तःक्रियाओं की उपज होता है। लेकिन इससे यह न समझना चाहिए कि प्रथा के पीछे किसी महामस्तिष्क (Super mind) या समाज की सामान्य आत्मा का अस्तित्व होता है। अन्तिम रूप में किसी व्यक्तिगत आदत के साथ अन्य व्यक्तिगत आदतों के मिलने से ही प्रथा का जन्म होता है। उनमें से प्रत्येक की आदत का दूसरे से प्रभावित होते रहने और दूसरे को प्रभावित करते रहने का ही फल है कि अन्त में एक संयुक्त उपज के रूप में उसका स्वरूप स्थिर हो जाता है। इसी को हम प्रथा कहते हैं। जैसाकि हॉबहाउस ने लिखा है-
सामाजिक जीवन में प्रथा के महत्व को किसी भी रूप में अस्वीकार नहीं किया जा सकता। वास्तव में आदिकालीन अथवा सरल समाजों में इनका महत्व राजकीय कानून से भी अधिक होता है। इसका एक विशेष कारण है और वह यह है कि सरल समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अत्यधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, चूँकि प्रथा पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती रहती है, अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। निम्नलिख्ति विवेचना से प्रथा का यह महत्व और भी स्पष्ट हो जाएगा।
में असफल रहें और इसीलिए उनके द्वारा सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति न हो। ऐसी प्रथाएँ बहुधा समाज की प्रगति में बाधक भी हो जाती हैं। परन्तु कुछ अनुपयोगी प्रथाओं का चलन देखकर हमें इस भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए कि प्रथाएँ अर्थहीन व निरर्थक होती हैं।
प्रथाओं का सामाजिक नियंत्रण में अत्यधिक महत्व है। प्रथाएँ व्यक्ति के व्यवहारों को काफी सीमा तक नियन्त्रित करती हैं। यद्यपि इनके पीछे ऐसी कोई कानूनी शक्ति नहीं होती जिसके द्वारा व्यक्तियों पर उनके मनवाने के लिए दबाव डाला जा सके, फिर भी मनुष्य सामाजिक निन्दा के भय से प्रथाओं का उल्लंघन नहीं कर पाता। प्रथाएँ चूँकि पिछली पीढ़ियों का सफल अनुभव होती हैं, अतः व्यक्ति इन्हें जल्दी ही मान लेता है क्योंकि नए व्यवहारों को करने में उसे हिचकिचाहट तथा भय की अनुभूति भी होती है। प्रथाओं का प्रभाव आदिम और सरल समाजों में तो कानूनों से भी अधिक होता है।
इसका एक विशेष कारण यह है कि इस प्रकार के समाजों में व्यक्तियों का जीवन अत्यधिक रूढ़िवादी होता है, साथ ही धर्म द्वारा अधिक प्रभावित होता है। अतः वे प्रथा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं कर पाते। इसके अतिरिक्त, चूँकि प्रथाएँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तान्तरित होती हैं, अतः इनका उल्लंघन पूर्वजों का अपमान माना जाता है। प्रथाओं के इसी व्यापक प्रभाव को दे खते हुए शेक्सपीयर ने प्रथाओं को ‘क्रूर प्रथा’, मॉन्टेन ने ‘गुस्सेबाज व दगाबाज स्कूल-मास्टरनी’, बेकन ने ‘मनुष्य के जीवन का प्रधान न्यायाधीश’ और लॉक ने ‘प्रकृति से भी बड़ी शक्ति’ कहा है। जिन्सबर्ग ने प्रथाओं की सामाजिक नियन्त्रण में भूमिका के वर्णन की व्याख्या करते हुए लिखा है,
इसीलिए तो प्रथाओं को सामाजिक अभिमति प्राप्त होती है और इसके बल पर ही ये व्यक्ति के व्यवहारों को नियन्त्रित व संचालित करती हैं और इस प्रकार सामाजिक नियन्त्रण में सहायक होती हैं।
प्राचीन समाज छोटा और सरल होता था और प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को बहुत-कुछ व्यक्तिगत रूप से जानता-पहचानता था। साथ ही, सामाजिक जीवन में न तो परिवर्तन शीघ्रता से होता था और न ही सामाजिक समस्याएँ गम्भीर थीं। इसलिए प्रथाओं के द्वारा ही सामाजिक नियन्त्रण का कार्य सरलता से हो जाता था। परन्तु आधुनिक समाज में प्रथाएँ बिलकुल अपर्याप्त हैं और केवल इनके द्वारा सामाजिक नियन्त्रण आज असम्भव है। इसके चार प्रमुख कारण हैं-
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि आधुनिक समाज के लिए प्रथाएँ अपर्याप्त हैं और इनके द्वारा सामाजिक नियन्त्रण का सम्पूर्ण कार्य कदापि नहीं किया जा सकता है; यही कारण है कि आज प्रथाओं का महत्व दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और कानून का महत्व बढ़ रहा है।
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