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कुम्भ मेला

सनातन धर्म के अनुसार भारत मे मनाया जाने वाला (विश्व का सबसे बड़ा) धार्मिक मेला विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश

कुम्भ मेला
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कुम्भ मेला भारत में आयोजित होने वाला एक विशाल मेला है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु हर बारहवें वर्ष प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में से किसी एक स्थान पर एकत्र होते हैं और नदी में पवित्र स्नान करते हैं। प्रत्येक १२वें वर्ष के अतिरिक्त प्रयाग में दो कुम्भ पर्वों के बीच छह वर्ष के अन्तराल में अर्धकुम्भ भी होता है; २०१३ के कुंभ के बाद २०१९ में प्रयाग में अर्धकुम्भ मेले का आयोजन हुआ था और अब २०२५ में पुनः कुंभ मेले का आयोजन हो रहा है।

सामान्य तथ्य कुम्भ मेला, देश ...

ज्योतिषीय गणनाओं के अनुसार यह मेला पौष पूर्णिमा के दिन आरंभ होता है और मकर संक्रान्ति इसका विशेष ज्योतिषीय पर्व होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रान्ति के होने वाले इस योग को "कुम्भ स्नान-योग" कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है।[उद्धरण चाहिए]

'कुम्भ' का शाब्दिक अर्थ “घड़ा, सुराही, बर्तन” है। यह वैदिक ग्रन्थों में पाया जाता है। इसका अर्थ, अक्सर पानी के विषय में या पौराणिक कथाओं में अमरता (अमृत) के बारे में बताया जाता है।[1] मेला शब्द का अर्थ है, किसी एक स्थान पर मिलना, एक साथ चलना, सभा में या फिर विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना। यह शब्द ऋग्वेद और अन्य प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों में भी पाया जाता है। इस प्रकार, कुम्भ मेले का अर्थ है “अमरत्व का मेला” है।[2]

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ज्योतिषीय महत्व

पौराणिक विश्वास जो कुछ भी हो, ज्योतिषियों के अनुसार कुम्भ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुम्भ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है। ग्रहों की स्थिति हरिद्वार से बहती गंगा के किनारे पर स्थित हर की पौड़ी स्थान पर गंगा नदी के जल को औषधिकृत करती है तथा उन दिनों यह अमृतमय हो जाती है। यही कारण है ‍कि अपनी अन्तरात्मा की शुद्धि हेतु पवित्र स्नान करने लाखों श्रद्धालु यहाँ आते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से अर्ध कुम्भ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है।[3] हालाँकि सभी हिन्दू त्योहार समान श्रद्धा और भक्ति के साथ मनाए [4] जाते है, पर यहाँ अर्ध कुम्भ तथा कुम्भ मेले के लिए आने वाले पर्यटकों की संख्या सबसे अधिक होती है।[5]

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पौराणिक कथाएँ

सारांश
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सागर मन्थन

कुम्भ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुम्भ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है।[6] इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इन्द्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा।

इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चन्द्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व होता है।

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विशेष दिन

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१९९८ के कुम्भ मेले में स्नान के लिए जाते हुए नागा साधु


इतिहास

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अंग्रेज चित्रकार जे एम डब्ल्यू टर्नर द्वारा चित्रित 'हरिद्वार कुम्भ मेला' ; यह चित्र १८५० के दशक में बनाया गया था।
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2001 के इलाहाबाद कुम्भ मेले का दृष्य
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हरिद्वार के कुम्भ मेले (२०१०) के दौरान गंगा किनारे स्नान घाट पर श्रद्धालु
  • १०,००० ईपू - अनुष्ठानिक नदी स्नान की अवधारणा के प्रमाण (इतिहासकार एस बी राय के अनुसार)
  • ६०० ईपू - बौद्ध लेखों में नदी मेलों की उपस्थिति।
  • ४०० ईपू - सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी दूत ने एक मेले को प्रतिवेदित किया।
  • ३०० - रॉय मानते हैं कि मेले के वर्तमान स्वरूप ने इसी काल में स्वरूप लिया था। विभिन्न पुराणों और अन्य प्राचीन मौखिक परम्पराओं पर आधारित पाठों में पृथ्वी पर चार विभिन्न स्थानों पर अमृत गिरने का उल्लेख हुआ है। सर्व प्रथम आगम अखाड़े की स्थापना हुई कालान्तर मे विखण्डन होकर अन्य अखाड़े बने
  • ५४७ - अभान नामक सबसे प्रारम्भिक अखाड़े का लिखित प्रतिवेदन इसी समय का है।
  • ६०० - चीनी यात्री ह्यान-सेंग ने प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद|प्रयागराज) पर सम्राट हर्ष द्वारा आयोजित कुम्भ में स्नान किया।
  • ९०४ - निरंजनी अखाड़े का गठन।
  • ११४६ - जूना अखाड़े का गठन।
  • १३०० - कानफटा योगी चरमपन्थी साधु राजस्थान सेना में कार्यरत।
  • १३९८ - तैमूर, हिन्दुओं के प्रति सुल्तान की सहिष्णुता के दण्ड स्वरूप दिल्ली को ध्वस्त करता है और फिर हरिद्वार मेले की ओर कूच करता है और हजा़रों श्रद्धालुओं का नरसंहार करता है।
  • १५६५ - मधुसूदन सरस्वती द्वारा दसनामी व्यव्स्था की लड़ाका इकाइयों का गठन।
  • १६७८ - प्रणामी सम्प्रदायके प्रवर्तक, महामति श्री प्राणनाथजीको विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक घोषित ।
  • १६८४ - फ़्रांसीसी यात्री तवेर्निए नें भारत में १२|12 लाख हिन्दू साधुओं के होने का अनुमान लगाया।
  • १६९० - नासिक में शैव और वैष्णव सम्प्रदाय|वैष्णव साम्प्रदायों में संघर्ष; ६०,००० मरे।
  • १७६० - शैवों और वैष्णवों के बीच हरिद्वार मेलें में संघर्ष; १,८०० मरे।
  • १७८० - ब्रिटिशों द्वारा मठवासी समूहों के शाही स्नान के लिए व्यवस्था की स्थापना।
  • १८२० - हरिद्वार मेले में हुई भगदड़ से ४३० लोग मारे गए।
  • १९०६ - ब्रिटिश कलवारी ने साधुओं के बीच मेला में हुई लड़ाई में बीचबचाव किया।
  • १९५४ - चालीस लाख लोगों अर्थात भारत की १% जनसंख्या ने इलाहाबाद में आयोजित कुम्भ में भागीदारी की; भगदड़ में कई सौ लोग मरे।
  • १९८९ - गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स|गिनिज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स ने ६ फरवरी के प्रयाग मेले में १.५ करोड़ लोगों की उपस्थिति प्रमाणित की, जोकी उस समय तक किसी एक उद्देश्य के लिए एकत्रित लोगों की सबसे बड़ी भीड़ थी।
  • १९९५ - इलाहाबाद के “अर्धकुम्भ” के दौरान 30 जनवरी के स्नान दिवस को 2 करोड़ लोगों की उपस्थिति।
  • १९९८ - हरिद्वार महाकुम्भ में 5 करोड़ से अधिक श्रद्धालु चार महीनों के दौरान पधारे; १४ अप्रैल के एक दिन में 1 करोड़ लोग उपस्थित।
  • २००१ - प्रयागराज के मेले में छः सप्ताहों के दौरान 7 करोड़ श्रद्धालु, 24 जनवरी के अकेले दिन 3 करोड़ लोग उपस्थित।
  • २००३ - नासिक मेले में मुख्य स्नान दिवस पर 60 लाख लोग उपस्थित।
  • २००४ - उज्जैन मेला; मुख्य दिवस ५ अप्रैल, १९ अप्रैल, २२ अप्रैल, २४ अप्रैल और ४ मई।
  • २००७ - इलाहाबाद में अर्धकुम्भ
  • २०१० - हरिद्वार में कुम्भ
  • २०१३ - इलाहाबाद का कुम्भ १४ जनवरी से १० मार्च २०१३ के बीच आयोजित किया गया। यह कुल ५५ दिनों के लिए था, इस दौरान इलाहाबाद (प्रयागराज) सर्वाधिक लोकसंख्या वाला शहर बन जाता है। ५ वर्ग कि.मी. के क्षेत्र में ८ करोड़ लोगों का उपस्थित होना विश्व की सबसे अद्भुत घटना है।
  • २०१५ - नाशिक और त्रम्बकेश्वर में एक साथ जुलाई 14, 2015 को प्रातः ६:१६ पर वर्ष २०१५ का कुम्भ मेला प्रारम्भ हुआ और २५ सितम्बर २०१५ को कुम्भ मेला समाप्त हुआ।[7]
  • २०१६ - उज्जैन में २२ अप्रैल से आरम्भ
  • २०१९ - इलाहाबाद में अर्धकुम्भ
  • २०२१ - हरिद्वार में कुम्भ लगा।
  • २०२५ - महाकुंभ, (प्रयागराज)2025
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फोटो गैलरी

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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