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बोली

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बोली
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प्रत्येक प्राणी के हृदय में परिस्थितियों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार के भावों का उदय हुआ करता है और इन भावों को दूसरों पर प्रकट करने की भी प्रत्येक प्राणी को आवश्यकता होती है। एक समय वह था जब मनुष्य एक विकसित और शक्ति सम्पन्न प्राणी नहीं था। वह जंगलों में रहता था और जंगली जानवरों का शिकार कर उन्हीं के चर्म से अपने शरीर को ढंकता था। संकेत ही उसके भाव प्रकाशन थे, जिसके चिह्न आज भी गुफाओं, कंदराओं में पाए जाते हैं परन्तु धीरे-धीरे वह आगे बढ़ा और सभ्यता की ओर चला उसने अपनी भाव प्रकाशन प्रणाली में उन्नति की और जीभ, कंठ, आदि का सहारा लेकर उसने नई-नई ध्वनियों को जन्म दिया। ये ध्वनियाँ ही भाषा के नाम से पुकारी जाने लगीं।

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बोली

प्रत्येक भाषा का विकास बोलियों से ही होता है। जब बोलियों के व्याकरण का मानकीकरण हो जाता है और उस बोली के बोलने या लिखने वाले इसका ठीक से अनुकरण करते हुए व्यवहार करते हैं तथा वह बोली भावाभिव्यक्ति में इतनी सक्षम हो जाती है कि लिखित साहित्य का रूप धारण कर सके तो उसे भाषा का स्तर प्राप्त हो जाता है। किसी बोली का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि समाजिक व्यवहार और शिक्षा व साहित्य में उसका क्या महत्व है। अनेक बोलियाँ मिलकर किसी एक भाषा को समृद्ध करती हैं। इसी प्रकार एक समृद्ध भाषा अपनी बोलियों को समृद्ध करती है। अतः कहा जा सकता है कि भाषा व बोलियाँ परस्पर एक दूसरे को समृद्ध करते हैं।

पशु-पक्षी अपनी भावाभिव्यक्तियों के लिए जिन ध्वनियों का प्रयोग करते हैं उन्हें भी बोली कहते हैं। इन बोलियों का भी नाम होता है जैसे शेर की बोली को दहाड़ना कहते हैं, हाथी की बोली को चिंघाड़ना और घोड़े की बोली को हिनहिनाना।

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