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राजकमल प्रकाशन

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राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड (सन् 1947 से वर्तमान) मुख्यतः हिन्दी पुस्तकों को प्रकाशित करने वाला एक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान है। इसका मुख्यालय नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज नयी दिल्ली (भारत) में स्थित है। यह मूलतः साहित्यिक प्रकाशन है, परंतु साहित्येतर विषयों की श्रेष्ठ मौलिक एवं अनूदित कृतियाँ भी इसने बहुतायत से प्रकाशित की हैं।

सामान्य तथ्य राजकमल प्रकाशन, स्थापित ...
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स्थापना एवं विकास

सारांश
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राजकमल प्रकाशन की स्थापना 28 फरवरी 1947 को हुई थी।[2] उस समय देश स्वतंत्र नहीं हुआ था लेकिन विभाजन की आशंकाओं के बीच आजादी की दस्तक साफ सुनाई दे रही थी। ऐसे संक्रमण काल में देश के सांस्कृतिक पक्ष को मजबूत करने और हिंदी भाषा तथा समाज की अस्मिता को रेखांकित करने के संकल्प के साथ इस प्रकाशन की शुरुआत हुई थी।[2] इसके संस्थापक थे हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ० देवराज। प्रकाशन का विस्तार होने पर उन्होंने अपने भाई ओमप्रकाश जी को प्रकाशन के संचालन हेतु बुलाया[3] और इस प्रकार ओमप्रकाश जी राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक बने। कार्य की दृष्टि से ओमप्रकाश जी ही राजकमल के वास्तविक संस्थापक सिद्ध हुए। अपनी पैनी सूझबूझ तथा लेखकों से संपर्क साधने की कुशलता के बल पर उन्होंने अल्प समय में ही राजकमल को प्रकाशन की ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया।

राजकमल प्रकाशन का विकास एक प्राइवेट लिमिटेड संस्था के रूप में हुआ है। यह किसी की निजी या पैतृक संपत्ति के रूप में नहीं है, बल्कि इसका स्वामित्व शेयरों के आधार पर निर्धारित होता है। इस प्रकार आरंभ में इसका स्वामित्व अरुणा आसफ अली के पास था। किन्हीं मुद्दों पर ओमप्रकाश जी से मतभेद होने पर वे इस प्रकाशन को लेकर कठिनाई महसूस कर रही थीं, तभी शीला संधू के पति हरदेव संधू ने उनसे इस प्रकाशन के अधिकांश शेयर खरीद लिये और बहुत-कुछ मतभेद की स्थिति में ही ओमप्रकाश जी के प्रबंध निदेशक पद छोड़ देने के बाद हिंदी भाषा से प्रायः अनभिज्ञ होने के बावजूद शीला संधू ने (अप्रैल 1965 में[4]) प्रबंध निदेशक का पद सँभाला।[5] ओमप्रकाश जी ने अपना स्वतंत्र प्रकाशन संस्थान राधाकृष्ण प्रकाशन के नाम से खोल लिया। अनेक लेखकों से उनके व्यक्तिगत संबंध थे और इसलिए भी मोहन राकेश जैसे प्रतिष्ठित कई लेखक राजकमल से दूर हो गये। शीला संधू को दुहरी-तिहरी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, पर उन्होंने हार नहीं मानी। शीला संधू उच्च शिक्षा प्राप्त तथा देश दुनिया देखी हुई महिला थी[6], परंतु हिंदी भाषा तथा हिंदी भाषी समुदाय से दूर होने के कारण कठिनाइयां स्वाभाविक थीं। ऐसे समय में राजकमल प्रकाशन से नामवर सिंह प्रकाशन (साहित्य) सलाहकार के रूप में जुड़े। "पहली जून, 1965 से नामवर ने राजकमल के समस्त साहित्यिक मामलों की देख-रेख का पूरा दायित्व ले लिया। उन्हें पुस्तक-प्रकाशन के निर्णय के अतिरिक्त 'नई कहानियाँ' एवं 'आलोचना' पत्रिकाओं की नीतियों पर भी दृष्टि रखने को कहा गया।"[7] स्वयं शीला संधू के शब्दों में "इस कठिन घड़ी में नामवर सिंह, जादुई वक्तृत्व एवं अध्यापन शैली के मालिक, की सलाहकार की भूमिका जितनी ही राजकमल के लिए जरूरी थी उतनी ही मेरे लिए।"[6] हालाँकि उनकी भूमिका से अचानक साहित्य की दलगत व निजी राजनीति की समस्या भी उठी परंतु धीरे-धीरे यह सब दूर हुआ और राजकमल प्रकाशन ऊँचाइयों को छूता गया। डॉ० नामवर सिंह ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं डॉ० रामविलास शर्मा को राजकमल प्रकाशन से जोड़ने में अहम भूमिका निभायी।[8] आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक चारु चन्द्रलेख का प्रकाशन पहले ही ओमप्रकाश जी द्वारा राजकमल से हो चुका था। अब नामवर सिंह के प्रयत्न से उनकी तथा डॉ० रामविलास शर्मा की अधिकांश पुस्तकें राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुईं। स्वयं शीला संधू ने भी अपने दृढ़ संकल्प के बल पर हिंदी सीखने के साथ-साथ अनेकानेक लेखकों से अच्छा जुड़ाव बनाकर राजकमल से जोड़ा। राजेन्द्र सिंह बेदी, उपेंद्रनाथ अश्क, नेमिचंद्र जैन, भीष्म साहनी, भारत भूषण अग्रवाल, निर्मला, सुरेश अवस्थी, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, प्रयाग, रघुवीर सहाय, लीलाधर जगूड़ी, मनोहर श्याम जोशी, अब्दुल बिस्मिल्लाह और श्रीलाल शुक्ल जैसे लेखक जुड़ते गये। राजकमल प्रकाशन हिंदी साहित्य जगत में एक सफलतम प्रकाशन संस्थान के रूप में स्थापित हो गया। आरंभ में लोगों को लगा था कि शीला संधू के राजकमल का प्रबंध निदेशक होने से यह प्रकाशन संस्थान बंद हो जाएगा और यहाँ संधू अपना पारिवारिक व्यवसाय मोटर पार्ट्स की दुकान शुरू कर देगी। परंतु अपनी कर्मठता एवं दृढ़ संकल्पशीलता से शीला संधू ने न केवल यह आशंका दूर की, बल्कि सुमित्रानंदन पंत, भगवती चरण वर्मा, हरिवंश राय बच्चन, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, शिवमंगल सिंह सुमन, बाबा नागार्जुन और फणीश्वर नाथ रेणु का विश्वास भी अर्जित किया और इस प्रकार राजकमल की स्थापित प्रसिद्धि का विस्तार किया।[9]

उस समय राजकमल प्रकाशन की पुस्तकों की छपाई का इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से कोई वास्ता नहीं था। शीला संधू हस्तलिखित पांडुलिपियां स्वीकार करती थीं। उन्हें टाइप किया जाता था, फिर उससे लेटर प्रेस में प्रूफ बनाया जाता और तब लेखक उन पर अपनी अनुशंसा देते। लेखकों से पुस्तकों के मुख्यांश, विज्ञापन तथा कवर के लिए संपर्क किया जाता। लेखकों को कभी भी उनकी पुस्तक के प्रकाशन की प्रक्रिया में भाग लेने से हतोत्साहित नहीं किया जाता था। भारतीय प्रकाशक संघ की बैठकों में शीला संधू ने अपने भर यह सिद्ध करने का प्रयत्न भी किया कि लेखकों के रॉयल्टी खातों को पारदर्शी बनाकर उनके साथ प्रगाढ़ संबंध बनाया जा सकता है। हालांकि प्रकाशकों के बीच यह विचार लोकप्रिय नहीं हो पाया। उस समय राजकमल प्रकाशन की पुस्तकें कंप्यूटर में नहीं रहती थी और जब चाहे तब उतनी ही प्रतियां छापकर बेच लेने जैसी कोई बात नहीं थी। रीम के रीम कागजों में छपकर, भाड़े के गोदामों के मीलों लंबे सेल्फ में पुस्तक सुरक्षित रखी जाती थी। इसके लिए छमाही लेखे, 'कच्ची' सूचियां तैयार करनी पड़तीं और पुस्तकों के शीराज़े (स्पाइन) की 'लेई' खाने वाले दीमकों से सुरक्षा हेतु नियमित दवाओं का छिड़काव कराना होता। आज के युग में ये बातें हास्यास्पद लग सकती है परंतु उस समय के लिए यह सत्य है।[10] इस प्रकाशन के विकास में मोहन गुप्त का स्मरणीय योगदान रहा। कोलकाता से आए मोहन गुप्त ने धीरे-धीरे संपादन का कार्यभार सँभाला और फिर वे पुस्तक के संपादन, प्रकाशन-निर्देशन एवं मुद्रण-प्रस्तुतीकरण संबंधी सभी दायित्व निभाने लगे।[11] स्वयं शीला संधू उन्हें 'हिंदी प्रकाशन जगत के सर्वश्रेष्ठ संपादक व प्रकाशन प्रबंधकों में एक' मानती हैं।[10] 30 वर्ष तक इस प्रकाशन संस्थान के सफल संचालन के बाद शीला संधू इससे अलग हुईं और सन् 1994 में अशोक महेश्वरी ने प्रबंध निदेशक का पद सँभाला।[12] उनके संचालन में वर्तमान समय तक राजकमल प्रकाशन हिंदी साहित्य जगत् में सर्वश्रेष्ठ प्रकाशन संस्था के रूप में विकास पथ पर अग्रसर है।

इतना जरूर है कि पुस्तकों का मूल्य अब पहले की तरह संतुलित नहीं रहा है। इस बेतहाशा मूल्यवृद्धि के अतिरिक्त भी यदि कोई अंतर आया है तो वह यह है कि इस प्रकाशन के आरंभिक समय में ही दूरदृष्टि वाले सर्जनात्मक एवं दुस्साहस की हद तक जाने वाले ओमप्रकाश जी ने 'राजकमल प्रकाशन पर उत्कृष्ट गुणवत्ता की अमिट छाप छोड़ी'[3] जो प्रकाशित पुस्तकों की रचनात्मकता के रूप में तो आज भी बरकरार है, परंतु ढेर सारी पुस्तकों में प्रयुक्त किए जाने वाले अत्यंत स्तरहीन कागजों के कारण इस क्षेत्र की गुणवत्ता काफी हद तक ध्वस्त हो गयी है। कुछ ही समय में अखबारी कागज से भी कई गुना अधिक दुर्दशाग्रस्त स्थिति में पहुँच जाने वाला यह मोटा पर काफी हल्का कागज राजकमल के गौरव में निरंतर बट्टा लगा रहा है।

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योजनाएँ एवं प्रकाशन-विस्तार

सारांश
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रचनावली-परियोजना

राजकमल प्रकाशन ने श्रेष्ठ लेखकों की सम्पूर्ण रचनाओं को क्रमबद्ध तथा प्रामाणिक रूप में उपलब्ध कराने हेतु सुयोग्य संपादकों के द्वारा उनकी रचनावली प्रकाशित करने की अनूठी पहल की। योजना के रूप में इसकी पहली कड़ी थी हजारीप्रसाद द्विवेदी की रचनावली (ग्रन्थावली), जिसे उनके सुपुत्र मुकुंद द्विवेदी ही संपादित कर रहे थे। हालांकि यह रचनावली काफी बाद में प्रकाशित हो पायी। सबसे पहले प्रकाशित होने वाली रचनावली थी सुमित्रानंदन पंत रचनावली जिसके लिए उस समय राजकमल प्रकाशन को पाठकों से प्रकाशन पूर्व अग्रिम आदेश एवं पेशगी राशि प्राप्त करने का सुखद संयोग मिला था।[13] इसके बाद तो अनेक श्रेष्ठ लेखों की रचनावलियाँ अत्यंत उत्कृष्ट रूप में प्रस्तुत करके राजकमल ने इस क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित कर दिया है। यहाँ से प्रकाशित रचनावलियों का विवरण निम्नांकित सारणी में द्रष्टव्य है-

अधिक जानकारी क्रम सं०, नाम ...

पेपरबैक्स परियोजना

सामान्य पाठकों के लिए हिंदी साहित्य की पहुँच के क्षेत्र में पुस्तकों के पेपरबैक संस्करण के रूप में मूल पुस्तक की यथावत प्रस्तुति की पहल करके राजकमल ने एक तरह से पाठकीय क्रांति उत्पन्न कर दी। आरंभ में अनेक लोगों ने पाठकों में साहित्यिक रुचि का अभाव की आशंका जता कर पेपरबैक्स की सफलता पर संदेह प्रकट किया। परंतु, जब मुक्तिबोध रचनावली का द्वितीय संस्करण पेपरबैक्स के रूप में भी आया और प्रकाशन से पूर्व ही (अग्रिम आदेश के रूप में) उसका तीन चौथाई हिस्सा बिक गया[14] तो इसकी निःसंदिग्ध सफलता अकाट्य रूप से प्रमाणित हो गयी। इस पेपरबैक्स संस्करण के कारण गंभीर साहित्य के पाठकों में अत्यधिक वृद्धि हुई और यह प्रयोग पूरी सफलता के साथ अब अनिवार्यता का रूप ले चुका है।

इन पेपरबैक संस्करणों की दुहरी उपयोगिता है। एक तो इनकी कीमत कम होती है, दूसरे इस के आवरण पर सुप्रसिद्ध कलाकारों की कलाकृतियों के चित्र देकर इसकी महत्ता द्विगुणित कर दी जाती है। इसका आरंभ भी शीला संधू ने अपनी द्वितीय पुत्री के सहयोग से किया था।[15]

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पत्रिकाओं का प्रकाशन

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राजकमल प्रकाशन के द्वारा हिन्दी साहित्य के इतिहास में सुनिश्चित स्थान बनाने योग्य 'आलोचना' एवं 'नयी कहानियाँ' जैसी दो पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया गया।

आलोचना

'आलोचना' का प्रकाशन मूलतः आलोचना केंद्रित एक त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका के रूप में अक्टूबर 1951 में आरंभ हुआ था। इसके संस्थापक संपादक थे शिवदान सिंह चौहान। कुछ वर्षों तक इसका संपादन एक संपादक मंडल के द्वारा हुआ फिर नन्ददुलारे वाजपेयी इसके संपादन से जुड़े और सबसे लंबे समय तक नामवर सिंह के संपादन में यह पत्रिका निकलती रही। बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में इसका प्रकाशन स्थगित रहने के बाद 2000 ईस्वी से पुनः नवीन रूप में इसका प्रकाशन आरंभ हुआ।

नयी कहानियाँ

'नयी कहानियाँ' मूलतः कहानी-केंद्रित पत्रिका थी। इसके प्रकाशन का विचार राजकमल प्रकाशन के तत्कालीन प्रबंध निदेशक ओमप्रकाश का था। उन्होंने अपने प्रयत्नों से इस पत्रिका के प्रकाशन के लिए भैरव प्रसाद गुप्त को जनवरी 1960 में ही संपादक के रूप में नियुक्त किया तथा चार महीने की तैयारी के बाद मई 1960 में इसका प्रवेशांक आया।[16] भैरव प्रसाद गुप्त के इलाहाबाद में होने के कारण इसका प्रकाशन इलाहाबाद से ही आरंभ हुआ, परंतु बाद में इसका प्रकाशन दिल्ली से ही होने लगा तथा भैरव प्रसाद गुप्त भी दिल्ली आ गये।

भैरव प्रसाद गुप्त ने जनवरी 1963 तक 'नयी कहानियाँ' का संपादन किया[17] तथा रचनात्मक श्रेष्ठता एवं लोकप्रियता दोनों दृष्टियों से उसे उपलब्धि के शिखर तक पहुँचाया। 'नयी कहानियाँ' का प्रवेशांक दस हजार प्रतियों का तथा द्वितीय अंक (जून 1960) पच्चीस हजार प्रतियों का छपा था। छठे अंक तक में ही इसकी प्रसार-संख्या पिचहत्तर हजार तक पहुँच गयी थी।[18]

'नयी कहानियाँ' के संपादन से भैरव प्रसाद गुप्त के हटने के बाद फरवरी 1963 से अप्रैल 63 तक इसका प्रकाशन बिना संपादक के ही हुआ। मई 1963 के 'वर्षगांठ विशेषांक' का संपादन मन्नू भंडारी ने किया। जून 1963 से कमलेश्वर ने इसका संपादन भार-सँभाला। दिसंबर 63 एवं जनवरी 64 के 2 अंकों के रुप में 'प्रेम कथा विशेषांक'-1 एवं 2 का प्रकाशन हुआ। अक्टूबर 1964 के संपादकीय का शीर्षक था 'प्रेत बोलते हैं'। यह संपादकीय 'अकहानी' के विरुद्ध लिखा गया था। कमलेश्वर ने जुलाई 1965 तक 'नयी कहानियाँ' का संपादन किया।[19] अगस्त 1965 में नामवर सिंह के प्रयत्न से भीष्म साहनी ने नयी कहानियाँ का संपादन-भार सँभाला और करीब ढाई वर्ष तक उन्होंने इसका संपादन किया।

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शाखाएँ

राजकमल प्रकाशन की काफी समय तक कई शहरों में शाखाएं रहीं, परंतु धीरे-धीरे केवल बिहार के पटना में उसकी अपनी शाखा विद्यमान रही तथा अन्य शहरों की शाखाओं को बंद कर दिया गया। वर्तमान समय में भी इसकी पटना शाखा विक्रय का कीर्तिमान स्थापित करते हुए साइंस कॉलेज के सामने, अशोक राजपथ, पटना-6 में विद्यमान है।

राजकमल प्रकाशन समूह

राजकमल प्रकाशन के संस्थापक ओमप्रकाश जी जब राजकमल से अलग हुए तब उन्होंने 'राधाकृष्ण प्रकाशन' स्थापित किया। उनके बाद अरविंद कुमार उसके प्रबंध निदेशक हुए और उनके बाद अशोक महेश्वरी ने इस दायित्व को सँभाला। आगे चलकर जब राजकमल प्रकाशन का उत्तरदायित्व भी अशोक महेश्वरी को मिला तो इन दोनों महत्वपूर्ण प्रकाशनों के सूत्र स्वाभाविक रूप से आपस में जुड़ गये।[2] इसी प्रकार एक समय राजकमल की इलाहाबाद शाखा को बंद करने का निर्णय लेने पर उसके तात्कालिक प्रभारी दिनेश जी द्वारा उसी स्थान पर स्थापित लोकभारती प्रकाशन[20] भी सन् 2005 में आपसी समझौते के तहत राजकमल से जुड़ गया और इस प्रकार 'राजकमल प्रकाशन समूह' का निर्माण हुआ। ये तीनों प्रकाशन अपने आप में स्वतंत्र भी हैं तथा आपसी समझौते के तहत एक-दूसरे से जुड़े हुए भी। इस प्रकार हिंदी साहित्य जगत के सबसे बड़े प्रकाशन संस्थान के रूप में यह समूह गतिशील है। इस समूह में 'BANYAN TREE BOOKS' भी जुड़ गया है। साथ ही इसमें राजकमल प्रकाशन का उपक्रम 'सार्थक' एवं राधाकृष्ण का उपक्रम 'फंडा' भी शामिल है।

यह प्रकाशन समूह प्रति वर्ष लगभग चार सौ पुस्तकों का प्रकाशन करता है[21] ,जिसमें नवीन प्रकाशनों के साथ एक बड़ी संख्या पूर्वप्रकाशित पुस्तकों के पुनर्मुद्रणों की सम्मिलित रहती है।

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इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

बाहरी कड़ियाँ

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