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बैकुण्ठ

विष्णु-लक्ष्मी का निवास विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश

बैकुण्ठ
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वैकुण्ठ, या विष्णुलोक; भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी का निवास स्थान है। [1][2][3]‌ भगवान विष्णु जिस लोक में निवास करते हैं उसे वैकुण्ठ कहा जाता है। वैकुण्ठ धाम जगतपालक भगवान विष्णु की दुनिया है। वैसे ही, जैसे कैलाश पर महादेव व ब्रह्मलोक में ब्रह्माजी बसते हैं। इसके कई नाम हैं - साकेत, गोलोक, परमधाम, परमस्थान, परमपद, परमव्योम, सनातन आकाश, शाश्वत-पद, ब्रह्मपुर।

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विष्णु द्वारा संरक्षित वैकुण्ठ का एक चित्र
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प्रबुद्ध अध्याय शीर्षक। व्यापक पुष्प और बेल की सजावट 19वीं शताब्दी के कश्मीरी उत्पादन की विशेषता है, जबकि अन्तर्रेखीय स्वर्ण 'मेघ' सजावट इस्लामी पाण्डुलिपियों में प्रयोग की गई समान सजावट को दर्शाती है।

शास्त्रों के अनुसार बहुत ही पुण्य से मनुष्य को इस लोक में स्थान मिलता है। जो यहां पहुंच जाता है वो पुनः गर्भ में नहीं आता क्योंकि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। यह "शाश्वत (अनन्त) स्वर्गीय राज्य" और "दिव्य (अलौकिक) अविनाशी और शाश्वत निवास" है। वैकुण्ठ शब्द का शाब्दिक अर्थ है 'कुण्ठा या दुःख रहित स्थान'। [4]

वहीं मानवीय जिंदगी के लिए बैकुण्ठ की सार्थकता ढूंढे तो बैकुण्ठ का शाब्दिक अर्थ है - जहां कुंठा न हो। "कुण्ठा" यानी‌ शर्म, लज्जा, झिझक, भय, निराशा, चिन्ता, बेचैनी,‌ निष्क्रियता, अकर्मण्यता, निराशा, हताशा, आलस्य और दरिद्रता आदि दु:ख। इसका मतलब यह हुआ कि बैकुण्ठ धाम ऐसा स्थान है जहां कर्महीनता नहीं है, निष्क्रियता नहीं है। व्यावहारिक जीवन में भी जिस स्थान पर निष्क्रियता नहीं होती उस स्थान पर रौनक होती है। जहाँ कोई जड़ता, डर या अन्य अवरोध नहीं है, उस स्थान को वैकुंठ कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, कुण्ठा शब्द का अर्थ है चिन्ता का स्थान। इस भौतिक संसार को दुःखों का संसार कहा जाता है, क्योंकि यह संसार चिंताओं और दुःखों से भरा हुआ है । इस संसार में प्राणी जन्म , मृत्यु , बुढ़ा और रोग के प्रभावों से बंधे हुए हैं। लेकिन आध्यात्मिक जगत् में इन चार दुःखों का प्रश्न ही नहीं उठता । वह स्थान चिन्ता और दुःखों से पूर्णतः मुक्त है, इसलिए इस स्थान को वैकुण्ठ कहा गया है, जो चिन्ता और दुःखों से मुक्त है तथा सदैव आनंद और प्रसन्नता से भरा रहता है।

अध्यात्म की नजर से बैकुण्ठ धाम मन की अवस्था है। बैकुण्ठ कोई स्थान न होकर आध्यात्मिक अनुभूति का धरातल है। जिसे बैकुण्ठ धाम जाना हो, उसके लिए ज्ञान ही उम्मीद की किरण है। इससे वह ईश्वर के स्वरूप से एकाकार हो जाता है। लेकिन जिसके भीतर परम ज्ञान है, भगवान के प्रति अनन्य भक्ति है, वे ही बैकुण्ठ पहुंच सकते हैं।

लघुभागवतामृत (पूर्व 2/36-42) में विष्णुधर्मोत्तर शास्त्र का हवाला देते हुए इसे इस ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत विष्णु लोक बताते हुए कहा गया है कि, "शिव के धाम रुद्रलोक से भी ऊपर विष्णु लोक नामक लोक है, जो चार लाख मील आकार का तथा सभी लोकों से अगम्य है। उससे भी ऊपर सुमेरु के पूर्व में लवण सागर के मध्य में जल के अन्दर सुवर्णमय विशाल महाविष्णुलोक है। ब्रह्मा आदि देवता श्री विष्णु के दर्शन हेतु कभी-कभी वहाँ जाते हैं। ईस लोक में जनार्दन विष्णु तथा लक्ष्मी के साथ वर्षा ऋतु में चार मास तक शेष शय्या पर शयन करता है। सुमेरु के पूर्व में क्षीररसमुद्र में एक और श्वेतवर्णी नगर है, जहाँ भगवान श्रीविष्णु लक्ष्मी के साथ शेष आसन पर विराजमान रहते हैं। वहाँ भी भगवान वर्षा ऋतु में चार मास तक शयन का आनन्द लेते हैं। उसके दक्षिण में क्षीरसमुद्र है। वहाँ श्वेतद्वीप नामक एक प्रसिद्ध और अत्यंत सुन्दर द्वीप है, जो दो लाख मील लम्बा है।"

श्वेतद्वीप का वर्णन ब्रह्माण्ड पुराण , विष्णु पुराण , महाभारत और पद्म पुराण जैसे शास्त्रों में मिलता है। [5] संत चरणदास, जो व्यास पुत्र श्री शुकदेव के शिष्य कहे जाते हैं, अपने अमरलोक अखण्डधामवर्णन में कहते हैं कि भौतिक जगत् के बाहर, सूर्य के समान तेज ( ब्रह्म ज्योतिर्मयलोक या ब्रह्म धाम) के ऊपर, विविध रंग के फलदार कल्प वृक्षों , बहुमूल्य रत्नों तथा हीरे से पूर्ण, ध्वजाओं और पताकाओं से सुशोभित असंख्य महलों से परिपूर्ण वैकुण्ठ धाम है, जहाँ दिव्य वेश-भूषणधारी, अलंकार तथा विविध रत्नजटित आभूषणों से सुसज्जित श्रीहरि अपनी पत्नियों के साथ बड़े आनन्द से निवास करते हैं।

श्री सम्प्रदाय के महान आचार्य रामानुज ने भी अपने वैकुंठ गद्यम में वैकुंठ धाम का वर्णन किया है। रामानुज के अनुसार , वैकुंठ परम पद या नित्य विभूति है, "शाश्वत स्वर्गीय क्षेत्र" और "दिव्य अविनाशी जगत् जो भगवान का निवास है"। यह भौतिक संसार से बाहर सबसे ऊंचा स्थान है। जय और विजय वैकुंठ के दो द्वारपाल हैं और वे ही इसकी रक्षा करते हैं।[1] वैकुंठ में विष्णु की सेना का नेतृत्व विष्वकसेन करता है। [6] वैष्णव साहित्य में, वैकुंठ को चौदह लोकों से ऊपर, सर्वोच्च स्थान के रूप में वर्णित किया गया है। [7] वैकुंठ में स्वर्ण महल, दिव्य एवं चिण्मय विमान तथा सुन्दर उद्यान हैं। वैकुण्ठ के बगीचों में मीठे, सुगंधित फल और फूल उगते हैं। वैकुंठ सत्यलोक से 26,200,000 योजन (209,600,000 मील) ऊपर स्थित है।[8]

लोकप्रिय पौराणिक कथाओं और वैष्णव परंपरा के अनुसार, वैकुंठ मकर राशि के बहुत करीब स्थित है। ब्रह्माण्ड विज्ञान के संदर्भ में ऐसा कहा जाता है कि भगवान विष्णु की दृष्टि दक्षिणी आकाशीय ध्रुव पर है और वहीं से वे ब्रह्माण्ड को देखते हैं।[9][10][11] ऋग्वेद में कहा गया है कि देवता लोग हमेशा भगवान विष्णु के परम धाम की ओर देखते हैं।[12]

वैकुंठ वह स्थान है जहाँ भगवान विष्णु के भक्त मोक्ष प्राप्त करते हैं । वैकुंठ में भक्तों को चार प्रकार की मुक्ति प्राप्त होती है, जैसे "सालोक्य" - भगवान के साथ एक लोक में रहना, "सार्ष्टि" - भगवान के समान ऐश्वर्य प्राप्त करना, "सामीप्य" - भगवान के निकट रहना, "सारूप्य" - भगवान के समान रूप प्राप्त होना। [13] वैकुंठ में प्रवेश करने वाला भक्त कभी बूढ़ा नहीं होता और भगवान की तरह सदैव युवा बना रहता है। यदि भक्त पुरुष है, तो वह शंख , चक्र , गदा और कमल धारण किए हुए चतुर्भुज रूप को प्राप्त करता है , और नीले रंग का नवघनश्याम शरीर प्राप्त करता है, तथा भगवान विष्णु के समान सुन्दर और सुपुरुष हो जाता है । संक्षेप में, पुरुष भक्त भगवान विष्णु के सारूप्य‌ प्राप्त हो जाता है। यदि भक्त‌ नारी या‌ स्त्री है तो वह देवी लक्ष्मी जैसी सुन्दरी देवी में परिवर्तित हो जाती है अर्थात् उसे देवी लक्ष्मी का स्वरूप प्राप्त हो जाता है।

वैकुंठ एकादशी के दौरान लाखों लोग तिरुमाला श्री वेंकटेश्वर मंदिर में दर्शन करने के लिए जाते हैं।

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बैकुण्ठ के नाम

बैकुण्ठ के नाम हैं- विष्णुलोक,वैकुण्ठधाम, वैकुण्ठ सागर, साकेत, गोलोक आदि।

वेद

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भगवान विष्णु

वेदों में वैकुंठ नाम का उल्लेख नहीं है , लेकिन ऋग्वेद में एक श्लोक वैकुंठ को विष्णु के सर्वोच्च निवास के रूप में संदर्भित करता है:[14][15]

तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः।
देवता लोग सदैव भगवान विष्णु के परम पद (वैकुण्ठ) को देखते हैं।

ऋग्वेद, 1.22.20

नारायण उपनिषद

नारायण उपनिषद में वैकुंठ का उल्लेख है :

प्रत्यग् आनन्द व्रह्म‌ पुरुषं प्रणव स्वरूपं अ कार उ कारो म कार इति ता अनेकधा सम् एतत् ॐ इति यम उक्त मुच्यते योगी जन्म संसार वन्धनात् ॐ नमो नारायण इति मन्त्रोंपासकः‌ वैकुण्ठ भूवनम् गमिष्यति तद् इदम् पुण्डरीकम् विज्ञानान् तस्माद तरिदभ मातरम् ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो व्रह्मण्यो मधुसूदनः व्रह्मण्यो पुण्डरीकाक्षो व्रह्मण्यो विष्णुः‌ अच्युत ईति सर्व भूतस्थम् एकम् नारायणम् कारणम् रूपम् अकारणम् परम व्रह्म ॐ

"" अक्षर परमानंद से परिपूर्ण परमेश्वर को संदर्भित करता है। स्वर " ॐ " तीन ध्वनियों "अ", "उ" और "म" से बना है। जो योगी बार-बार प्रणव का जप करता है , वह भौतिक संसार के बंधनों से मुक्त हो जाता है। जो मनुष्य 'ॐ नमो नारायण' मंत्र से भगवान की पूजा करता है, वह निश्चित रूप से वैकुंठ के दिव्य नगर में जाता है। वह वैकुण्ठ कमल के समान है, जो दिव्य आनन्द, ब्रह्मानन्द में भरा हुआ है, जो ज्योति से प्रकाशित है। भगवान को देवकीपुत्र, मधुसूदन , पुण्डरीकाक्ष , विष्णु और अच्युत के नाम से जाना जाता है । सभी प्राणियों के भीतर एक ही नारायण विद्यमान हैं। वह समस्त कारणों का कारण, परम ब्रह्म है।

भागवत पुराण

सारांश
परिप्रेक्ष्य

वैकुंठ और इसकी विशेषताओं का वर्णन वैष्णव धर्म के एक प्रतिष्ठित ग्रंथ भागवत पुराण में किया गया है। एडविन ब्रायंट ने अपनी पुस्तक (2003) में भागवत पुराण में वैकुंठ का वर्णन करने वाले श्लोकों पर टिप्पणी की है:

भागवत में वैकुंठ की बात करती है, जिसकी पूजा भौतिक संसार के सभी लोग करते हैं (10.12.26), तथा यह सर्वोच्च धाम है जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं (12.24.14)। यह सर्वोच्च लोक है (4.12.26); अज्ञान अंधकार और जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर है (4.24.29; 10.88.25); जो लोग जीवित रहते हुए प्रकृति के तीनों गुणों को पार कर गए हैं, उनका गंतव्य (11.25.22); इससे बढ़कर कोई उच्च स्थान नहीं है (2.2.18, 2.9.9); शांतिप्रिय भक्त तपस्वी उस स्थान पर पहुँच जाते हैं और वे कभी वापस नहीं लौटते (4.9.29; 10.88.25-26)। वैकुंठ के निवासियों के पास भौतिक शरीर नहीं है, बल्कि उनके पास शुद्ध, आध्यात्मिक रूप हैं (7.1.34)। ये रूप विष्णु जैसे हैं, जिन्हें नारायण के नाम से जाना जाता है (3.15.14)। [16]

श्रीमद्भागवत में वैकुंठ का विवरण दिया गया है :

चिदाकाश में एक दिव्य धाम है जिसे वैकुण्ठ कहा जाता है, जो परमेश्वर भगवान और उनके भक्तों का निवास स्थान है। वह स्थान भौतिक जगत् के सभी निवासियों द्वारा पूजित है। विष्णु या नारायण वैकुंठ में सोभाग्य की देवी लक्ष्मी के साथ स्फटिक की दीवारों से सुसज्जित एक महल में निवास करते हैं। वैकुण्ठलोक में सभी निवासी परमेश्वर के समान ही एकरूप हैं। वे सभी इन्द्रिय-तृप्ति की इच्छा से रहित होकर परमेश्र्वर की भक्ति में लगे रहते हैं। वैकुण्ठलोक में आदि पुरुष भगवान निवास करते हैं। उन्हें वैदिक शास्त्रों के माध्यम से जाना जाता है। वह शुद्धसत्व है, जिसमें रजोः और तमोःगुण के कोई स्थान नहीं । वह अपने भक्तों को धार्मिक उन्नति प्रदान करते हैं। उस वैकुण्ठलोक में बहुत से शुभ वन हैं। उस वन में मनोकामना पूर्ण करने वाले वृक्ष या कल्पवृक्ष हैं और वे सभी ऋतुओं में फूलों और फलों से भरे रहते हैं, क्योंकि वैकुंठ में सब कुछ दिव्य और परिपूर्ण है। वैकुंठ के निवासी अपनी पत्नियों और पार्षदों के साथ विमानों में भ्रमण करते हैं तथा भगवान के चरित्र और लीलाओं का निरंतर गान करते हैं, जो सदैव अशुभ प्रभावों से मुक्त हैं। भगवान की महिमा सुनने के लिए ये सभी अप्राकृतिक पक्षी अपने गीत बंद कर देते हैं। यद्यपि मंदार, कुंद , कुरबक, उत्पल, चंपक, अर्ण, पुन्नाग , नागकेसर , बकुल , कमल और पारिजात वृक्ष अप्राकृतिक सुगंधित फूलों से भरे होते हैं, फिर भी वे तुलसी की तपस्या के लिए उसका सम्मान करते हैं । क्योंकि भगवान ने तुलसी को विशेष सम्मान दिया है और वे स्वयं अपने गले में तुलसीपत्र की माला पहनते हैं । वैकुंठवासीगण‌ मरकत (पन्ना ), वैदुर्य और स्वर्ण निर्मित विमान पर सवार होकर विहार करते हैं, जिसे उन्होंने केवल परमेश्र्वर के चरणकमलों में प्रणाम करके प्राप्त किया है। यद्यपि वे सुन्दर मुखों से युक्त, मुस्कान से चमकते हुए तथा सुन्दरी पत्नियों से सुशोभित हैं, फिर भी उनकी हंसी, मजाक तथा सुन्दरता उनकी कामवासना को नहीं जगा पाती, क्योंकि वे सब भगवान के चिन्तन में लीन रहते हैं। वैकुण्ठ की स्त्रियाँ देवी लक्ष्मी के समान ही सुन्दरी हैं। ऐसी अप्राकृतिक सौन्दर्यशालिनी स्त्रियाँ अपने हाथों में कमल धारण करती हैं और उनके पैरों के नूपुर से झंकारध्वनि निकलती है। कभी-कभी, परमेश्वर की कृपा लाभ करने के आशा‌ में, वे सुवर्णसंयुक्त स्फटिक की दीवारों को मार्जन करके चमकाती हैं। लक्ष्मी देवी दासी परिवृता होकर प्रवालमय दिव्य जलाशय के तट में स्थित उनके बगीचे में तुलसीदल द्वारा परमेश्वर की पूजा करते है। भगवान की पूजा करते समय जब वे जल में अपनी उन्नत नासिका शोभित अपने सुंदर मुखमंडल का प्रतिबिंब देखते हैं, तो उन्हें यह और भी अधिक सुंदर लगता है।
भागवत पुराण , तृतीय स्कन्ध, अध्याय 15 [17]
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लक्ष्मी देवी और भू-देवी सहित नारायण, राजा रवि वर्मा द्वारा चित्र।

भागवत के दूसरे स्कन्ध का वैकुण्ठ वर्णन :

ब्रह्मा की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें सभी लोगों से ऊपर अपना परम धाम, वैकुण्ठ दिखाया। भगवान के उस अलौकिक निवास की पूजा, सभी भौतिक कष्टों और सांसारिक भय से मुक्त आध्यात्मिक साधकों द्वारा की जाती है। (भागवत 2.9.9)
भगवान के उस धाम में न तो रजोगुण है, न तमोगुण, यहाँ तक कि सत्वगुण का भी वहाँ कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसमें माया की बाह्य शक्तियों का कोई प्रभाव नहीं है, समय की तो बात ही छोड़िए। माया वहाँ प्रवेश नहीं कर सकती। सुर और असुर दोनों ही भेदभाव रहित होकर भगवान की पूजा करते हैं। (भागवत 2.9.10)
वैकुंठ के निवासियों का वर्णन उज्जवल श्याम वर्ण, कमल के फूल जैसी नेत्र, पीले वस्त्र और अत्यंत सुंदर और सुगठित अंगों वाले रूप में किया गया है; वे सभी चतुर्भुजाकार, अत्यन्त चमकीले, रत्नजटित पदकाभरण से सुसज्जित तथा अत्यन्त दीप्तिमान हैं। (भागवत 2.9.11)
उनमें से कुछ की कांति प्रवाल, वैदुर्य और मृणाल के समान है तथा वे अत्यन्त तेजस्वी माल्य, मुकुट और हारों से सुशोभित हैं। (भागवत 2.9.12)
जैसे आकाश बिजली द्वारा चमकाते हुए घने बादलों में सुशोभित‌ होता है, वैसे ही वह वैकुण्ठभूमि भी महात्माओं के देदीप्यमान विमान तथा बिजली के समान चमक वाली स्त्रियों से सुशोभित है। (भागवत 2.9.13)
दिव्य रूप‌‌संपन्ना देवी लक्ष्मी अपने सहायक विभूति ओर अन्य‌ रूपों के साथ प्रेमपूर्वक भगवान के चरणकमलों की सेवा करती हैं। देवी लक्ष्मी, आनन्द से झूमती हुई तथा वसन्त के सेवक, भ्रमरों के साथ, अपने प्रियतम भगवान की महिमा का गान कर रही थीं। (भागवत 2.9.14)
ब्रह्मा ने देखा कि उस वैकुण्ठ में भक्तों के स्वामी, यज्ञपुरुष, ब्रह्माण्ड के ईश्वर, लक्ष्मीपति, सर्वशक्तिमान‌ भगवान‌ सुनन्द, नन्द, प्रबल, अर्हण आदि पार्षदों द्वारा प्रेमपूर्वक सेवित होकर निवास कर रहे थे। (भागवत 2.9.15)
वहाँ पर परमेश्वर अपने सेवकों को प्रसाद वितरित करने के लिए उत्सुक रहते हैं। उनका मादकतापूर्ण आकर्षक रूप बहुत मनभावन है। उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा चमकदार नेत्र से सुशोभित है, उनके सिर पर मुकुट सुशोभित है, उनके कर्ण में कुण्डल, वे चार भुजाओं वाले हैं, और उनकी वक्षस्थल पवित्र चिह्न से सुशोभित है। (भागवत 2.9.16)
वह परमेश्वर अपनी ही महिमा से सिंहासन पर विराजमान है और वह चार, सोलह तथा पाँच शक्तियों से घिरा हुआ है तथा अन्य लघु शक्तियों सहित छः ऐश्वर्यों से पूर्ण है। वह परमेश्वर अपने धाम में आनन्दित रहता है। (भागवत 2.9.17)

भागवत पुराण, स्कन्ध 2, अध्याय-9
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बृहद्भागवतामृत

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विष्णु का दर्शन (वैकुंठ दर्शन) - ब्रुकलिन संग्रहालय

बृहद्भागवतम् में वैकुंठ में विष्णु की गतिविधियों का वर्णन किया गया है::

कदापि तत्रोपवनेषु लीलया तथा लसन्तं निचितेषु गो-गणैः।
पश्यामि अमुं कर्य अपि पूर्ववत् स्थितं निजासने स्व-प्रभुवत् च सर्वथा।। 112 ।।
कभी-कभी भगवान वैकुण्ठ के बगीचे में चले जाते थे, जहाँ वे ब्रज की तरह लीलाएँ करते थे, और मैं बगीचे को गायों से भरा हुआ देखता था। कभी-कभी मैं उसे पहले की तरह अपने सिंहासन पर राजसी ढंग से बैठा हुआ देखता। उस समय वे सभी प्रकार से मेरे प्रिय भगवान मदनगोपाल के समान प्रकट हुए।

बृहद्भागवतमृत , श्लोक 2.4.112
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पद्म पुराण

सारांश
परिप्रेक्ष्य

पद्म पुराण में महावैकुंठ योगपीठ का वर्णन है, जहाँ श्री महादेव कहते हैं:

प्रकृति एवं परम व्योमके बीचमें विरजा नामकी नदी है। वह कल्याणमयी सरिता वेदांगके स्वेदजनित जलसे प्रवाहित होती है। उसके दूसरे पारमें परम व्योम है, जिसमें त्रिपाद-विभूतिमय सनातन, अमृत, शाश्वत, नित्य एवं अनन्त परम धाम है। वह शुद्ध, सत्त्वमय, दिव्य, अक्षर एवं परब्रह्मका धाम है। उसका तेज अनेक कोटि सूर्य तथा अग्रियोंके समान है। वह धाम अविनाशी, सर्ववेदमय, शुद्ध, सब प्रकारके, परिमाणशुन्य, कभी जीर्ण न होनेवाला, जाग्रत्‌ , स्वप्न,‌ सुषुप्ति आदि माया अवस्थाओंसे रहित, हिरण्यमय, मोक्षपद, ब्रह्मानन्दमय, सुखसे परिपूर्ण, न्यूनताअधिकता तथा आदि-अन्तसे शून्य, शुभ, तेजस्वी होनेके कारण अत्यन्त अद्भुत, रमणीय, नित्य तथा आनन्दका सागर है। श्रीविष्णुका वह परमपद ऐसे ही गुणोंसे युक्त है। उसे सूर्य, चन्द्रमा तथा अग्रिदेव नहीं प्रकाशित करते--वह अपने ही प्रकाशसे प्रकाशित है। जहाँ जाकर जीव फिर कभी नहीं लौटते, वही श्रीहरिका परम धाम है। श्रीविष्णुका वह परमधाम नित्य, शाश्वत एवं अच्युत है। सो करोड़ कल्पोमें भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता । ब्रह्मा तथा श्रेष्ठ मुनि श्रीहरिके उस पदका वर्णन नहीं कर सकते। जहाँ अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले साक्षात्‌ परमेश्वर श्रीविष्णु विराजमान हैं, उसकी महिमाको वे स्वयं ही जानते हैं । जो अविनाशी पद है, जिसकी महिमाका वेदोंमें गूढ़रूपसे वर्णन है तथा जिसमें सम्पूर्ण देवता और लोक स्थित हैं उसे जो नहीं जानता, वह केवल ऋचाओंका पाठ करके क्‍या करेगा । जो उसे जानते हैं, वे ही ज्ञानी पुरुष समभावसे स्थित होते हैं। श्रीविष्णुके उस परम पदको ज्ञानी पुरुष सदा देखते हैं। वह अक्षर, शाश्वत, नित्य एवं सर्वत्र व्याप्त है। कल्याणकारी नामसे युक्त भगवान्‌ विष्णुंक उस परमधाम---गोलोकमें बड़े सींगोंवाली गौएँ रहती हैं तथा वहाँकी प्रजा बड़े सुखसे रहा करती है। गौओं तथा पीनेयोग्य सुखदायक पदार्थोसे उस परम धामकी बड़ी शोभा होती है। वह सूर्यके समान प्रकाशमान, अन्धथकारसे परे, ज्योतिर्मय एवं अच्युत--- अविनाशी पद है। श्रीविष्णुके उस परम घामको ही मोक्ष कहते हैं। वहाँ जीव बन्धनसे मुक्त होकर अपने लिये सुखकर पदको प्राप्त होते हैं। वहाँ जानेपर जीव पुनः इस लोकमें नही लोटते; इसलिये उसे मोक्ष कहा गया है
मोक्ष, परमपद, अमृत, विष्णुमन्दिर, अक्षर, परमधाम, वैकुण्ठ, शाश्रतपद, नित्यधाम, परमव्योम, सर्वोत्कृष्ट पद तथा सनातन पद--ये अविनाशी प्ररम .धामके पर्यायवाची रब्द हैं। अब उस त्रिपादविभूतिके स्वरूपका वर्णन करूँगा।श्रीमहादेबजी कहते हैं--पार्वती ! त्रिपादविभूतिके असंख्य लोक बतलाये गये हैं। वे सब-केबल शुद्ध सत्त्वमय, ब्रह्मानन्दमय, सुखसे परिपूर्ण, नित्य, निर्विकार, हेय गुणोंसे रहित, हिरण्मय, शुद्ध, कोटि सूर्येकि समान प्रकाशमान, वेदमय, दिव्य तथा काम-क्रोध आदिसे रहित हैं। भगवान्‌ नारायणके चरणंकमलॉकी भक्तिमें ही रस लेनेवाले पुरुष उनमें निवास करते हैं। वहाँ निरन्तर सामगानकी सुखदायिनी ध्वनि होती रहती है। ते सभी लोक उपनिषद्‌-स्वरूप, वेदमय तेजसे युक्त तथा वेदस्वरूप स्त्री-पुरुषोंसे भरे हैं। बेदके ही रससे भरे हुए सरोवर उनकी शोभा बढ़ाते हैं । श्रुति, स्मृति ओर पुराण आदि भी उन लोकोंके स्वरूप हैं। उनमें दिव्य वृक्ष भी सुशोभित होते हैं। उनके विश्व-विख्यात स्वरूपका पूरा-पूरा वर्णन मुझसे नहीं हो सकता । विरजा ओर परम व्योमके बीचका जो स्थान है, उसका नाम केवल है। वही अव्यक्त ब्रह्मके उपासकोंके उपभोगमें आता है। वह आत्मानन्दका सुख प्रदान करनेवाला है। उस स्थानको केवल, परमपद, निःश्रेयस्‌, निर्वाण, केैवल्य ओर मोक्ष कहते हैं। जो महात्मा भगवान्‌ लक्ष्मीपतिके चरणोंकी भक्ति ओर सेवाके रसका उपभोग करके पुष्ट हुए हैं, वे महान्‌ सौभाग्यशाली भगवद्चरण-सेवक पुरुष श्रीविष्णुके परम धाममें जाते हें, जो ब्रह्मानन्द प्रदान करनेवाला है। उसका नाम है वैकुण्ठधाम । वह अनेक जनपदोंसे व्याप्त है। श्रीहरि उसीमें निवास करते हैं। बह रत्नमय प्राकारों, विमानों तथा मणिमय महलोंसे सुशोभित है। उस धामके मध्यभागमें दिव्य नगरी है, जो अयोध्या कहलाती है तथा जो चहारदीवारियों ओर ऊँचे दरवाजोंसे घिरी है। उनमें मणियों तथा सुवर्णोके चित्र बने हैं। उस अयोध्यापुरीके चार दरवाजे हैं तथा ऊँचे-ऊँचे गोपुर उसकी शोभा बढ़ाते हैं। चण्ड आदि द्वारपाल और कुमुद आदि दिक्पाल उसकी रक्षामें रहते हैं। पूर्वके दरवाजेपर चण्ड और प्रचण्ड, दक्षिण-द्वारपर भद्र ओर सुभद्र, पश्चिम-द्वारपर जय और विजय तथा उत्तरके दरवाजेपर धाता और विधाता नामक द्वारपाल रहते हैं। कुमुद, कुमुदाक्ष, पुण्डरीक, बामन, शंकुकर्ण, सर्वनिद्र, सुमुख ओर सुप्रतिष्ठित--ये उस नगरीके दिक्‍पाल बताये गये हैं। पार्वती ! उस पुरीमें कोटि-कोटि अग्निके समान तेजोमय गृहोंकी पंक्तियाँ शोभा पाती हैं। उनमें तरुण अवस्थावाले दिव्य नर-नारी निवास करते हैं। पुरीके मध्यभागमें भगवानका मनोहर अन्तःपुर है, जो मणियोंके प्राकारसे युक्त और सुन्दर गोपुरसे सुशोभित है। उसमें भी अनेक अच्छे-अच्छे गृह, विमान और प्रासाद हैं। दिव्य अप्सराएँ और स्त्रीयाॅ सारि ओरसे उस अन्तःपुरकी शोभा बढ़ाती हैं। उसके बीचमें एक दिव्य मण्डप है, जो राजाका खास स्थान है; उसमें बड़े-बड़े उत्सव होते रहते हैं। वह मण्डप रत्नोका बना है तथा उसमें मानिकके हजारों खम्भे लगे हैं। वह दिव्य मोतियोंसे व्याप्त है तथा साम-गानसे सुशोभित रहता है । मण्डपके मध्यभागमें एक रमणीय सिंहासन है, जो सर्ववेदस्वरूप और शुभ हे। वेदमय धर्मादि देवता उस सिंहासनको सदा घेरे रहते हैं। धर्म, ज्ञान, ऐश्वर्य और बैराग्य तथा ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद भी मूर्तिमान्‌ होकर उस सिंहासनके चारों ओर खड़े रहते हैं। शक्ति, आधारशक्ति, चिच्छक्ति, सदाशिवा तथा धर्मादि देवताओंकी शक्तियाँ भी वहाँ उपस्थित रहती हैं। सिंहासनके मध्यभागमें अग्नि, सूर्य और चन्द्रमा निवास करते हैं। कूर्म (कच्छप), नागराज (अनन्त या वासुकि) , तीनों वेदोंके स्वामी, गरुड़, छन्द और सम्पूर्ण मन्त्र---ये उसमें पीठरूप घारण करके रहते हैं । वह पीठ सब अक्षरोंसे युक्त है । उसे दिव्य योगपीठ कहते हैं। उसके मध्यभागमें अष्टदलकमल है, जो उदयकालीन सूर्यके समान कान्तिमान्‌ है। उसके बीचमें सावित्री नामकी कर्णिका है, जिसमें देवताओंके स्वामी परम पुरुष भगवान्‌ विष्णु भगवती लक्ष्मीजीके साथ विराजमान होते हैं।

भगवानका श्रीविग्रह नीलकमलके समान श्याम तथा कोटि सूर्यकि समान प्रकाशमान है। वे तरुण कुमार-से जान पड़ते हैं। सारा शरीर चिकना है और अवयव कोमल। खिले हुए लाल कमल-जैसे हाथ तथा पैर अत्यन्त मृदुल प्रतीत होते हैं। नेत्र विकसित कमलके समान जान पड़ते हैं। ललाटका निम्न भाग दो सुन्दर भ्रूलताओंसे अधित है। सुन्दर नासिका, मनोहर कपोल, शोभायुक्त मुखकमल, मोतीके दाने-जैसे दाँत और मन्द मुसकानकी छविसे युक्त मूँगे-जैसे लाल-लाल ओठ हैं। मुखमण्डल पूर्ण चन्द्रमाकी शोभा धारण करता है। कमल-जैसे मुखपर मनोहर हास्यकी छटा छायी रहती है। कानोंमें तरुण सूर्यकी भाँति चमकीले कुण्डल उनकी शोभा बढ़ाते हैं। मस्तक चिकनी, काली ओर घुँघराली अलकोंसे सुशोभित है। भगवानके बाल मुँथे हुए हैं, जिनमें पारिजात और मन्दारके पुष्प शोभा पाते हैं। गलेमें कोस्तुभमणि शोभा दे रही है, जो प्रातःकाल उगते हुए सूर्यकी कान्ति धारण करती है। भाँति-भाँतिके हार और सुवर्णकी मालाओंसे शद्भगू-जैसी अगवा बड़ी सुन्दर जान पड़ती है। सिंहके कंधोंके समान ऊँचे और मोटे कंधे शोभा दे रहे हैं। मोटी और गोलाकार चार भुजाओंसे भगवानका श्रीअंग बड़ा सुन्दर जान पड़ता है। सबमें अँगूठी, कड़े ओर भुजबंद हैं, जो शोभावृद्धिके कारण हो रहे हैं। उनका विशाल वक्षःस्थल करोड़ों बालसूर्योकि समान तेजोमय कोस्तुभ आदि सुन्दर आभूषणोंसे देदीप्यमान है। वे वनमालासे विभूषित हैं। नाभिका वह कमल, जो ब्रह्माजीकी जन्मभूमि है (इसके कारण गर्भोदकशायी प्रद्युम्न से उनका अभिन्नता देखा जाता है ), श्रीअंगोकी शोभा बढ़ा रहा है। शरीरपर मुलायम पीताम्बर सुशोभित है, जो बाल रविकी प्रभाके समान जान पड़ता है। दोनों चरणोंमें सुन्दर कड़े विराज रहे हैं, जो नाना प्रकॉरंके रत्रोंसे जड़े होनेके कारण अत्यन्त विचित्र प्रतीत होते हैं। नखोंकी श्रेणियाँ चाँदनीयुक्त चन्द्रमांकं समान उद्धासित हो रही हैं। भगवानका लावण्य कोटि-कोटि कन्दर्पोका दर्प दलन करनेवाला है। वे सौन्दर्यकी निधि और अपनी महिमासे कभी च्युत न होनेवाले हैं। उनके सर्वांगमे दिव्य चन्दनका अनुलेप किया हुआ है। वे दिव्य मालाओंसे विभूषित हैं। उनके ऊपरकी दोनों भुजाओंमें शंख और चक्र हैं तथा नीचेकी भुजाओंमें वरद और अभयकी मुद्राएँ हैं।

भगवानके वामांगमें महेश्वरी भगवती महालक्ष्मी विराजमान हैं। उनका श्रीअंग सुवर्णके समान कान्तिमान्‌ तथा गोर है। सोने और चाँदीके हार उनकी शोभा बढ़ाते हैं। वे समस्त शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। उनकी अवस्था ऐसी है, मानो शरीरमें योवनका आरम्भ हो रहा है। कानोंमें रत्नोके कुण्डल और मस्तकपर काली-काली घुंघराली अलकें शोभा पाती हैं। दिव्य चन्दनसे चर्चित अंगोका दिव्य पुष्पोंसे श्रृंगार हुआ है। केशोंमें मन्दार, केतकी और चमेलीके फूल गुथे हुए हैं। सुन्दर भौहें, मनोहर नासिका और शोभायमान कटिभाग हैं। पूर्ण चन्द्रमाके समान मनोहर मुख-कमलपर मन्द मुसकानकी छटा छा रही है। बाल रविके समान चमकीले कुण्डल कानोंकी शोभा बढ़ा रहे हैं। तपाये हुए सुवर्णके समान शरीरकी कान्ति और आभूषण हैं। चार हाथ है, जो सुवर्णमय कमलोंसे विभूषित हैं। भाँति-भाँतिके विचित्र रलोंसे युक्त सुवर्णमय कमलोंकी माला, हार, केयूर, कड़े ओर अँगूठियोंसे श्रीदेवी सुशोभित हैं। उनके दो हाथोंमें दो कमल ओर शेष दो हाथोंमें मातुलुंग (बिजोरा) ओर जाम्बूनद (धतूरा) शोभा पा रहे हैं। इस प्रकार कभी विलग न होनेवाली महालक्ष्मीके साथ महेश्वर भगवान्‌ विष्णु सनातन परव्योममें सानन्द विराजमान रहते हैं। उनके दोनों पार्श्रमें भूदेवी और लीलादेवी बैठी रहती हैं । आठों दिशाओंमें अष्टदल कमलके एक-एक दलपर क्रमशः विमला आदि राक्तियाँ सुशोभित होती हैं। उनके नाम ये हैं---विमला, उत्कर्षिणी, ज्ञाना, क्रिया, योगा, प्रह्वी, सत्या तथा ईशाना। ये सब परमात्मा श्रीहरिकी पटरानियाँ हैं, जो सब प्रकारके सुन्दर लक्षणोंसे सम्पन्न हैं। ये अपने हाथोंमें चन्द्रमांके समान श्वेत वर्णके दिव्य चँवर लेकर उनके द्वारा सेवा करती हुई अपने पति श्रीहरिको आनन्दित करती हैं। इनके सिवा दिव्य अप्सराएँ तथा पाँच सो युवती स्त्रियाँ भगवानके अन्तःपुरमें निवास करतो हैं, जो सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित, कोटि अग्रियोंके समान तेजस्विनी, समस्त शुभ लक्षणोंसे युक्त तथा चन्द्रमुखी हैं। उन सबके हाथोंमें कमलके पुष्प शोभा पाते हैं। उन सबसे घिरे हुए महाराज परम पुरुष श्रीहरिकी बड़ी शोभा होती है। अनन्त (शेषनाग) , गरुड़ तथा विष्वकसेन सेनानी आदि देवेश्वरों, अन्यान्य पार्षदों तथा नित्यमुक्त भक्तोंसि सेवित हो रमासहित परम पुरुष श्रीविष्णु भोग ओर ऐश्वर्यके द्वारा सदा आनन्दमग्न रहते हैं। इस प्रकार वैकुण्ठधामके अधिपति भगवान्‌ नारायण अपने परम पदमें रमण करते हैं। पार्वती ! अब मैं भगवानके भिन्न-भिन्न व्यूहों और लोकोंका वर्णन करता हूँ। बैकुण्ठधामके पूर्वभागमें श्रीवासुदेवका मन्दिर है। अग्निकोणमें लक्ष्मीका लोक है। दक्षिण-दिशामें श्रीसंकर्षणका भवन है। नैऋत्य कोणमें सरस्वतीदेवीका लोक है। पश्चिम-दिशामें श्रीप्रदुम्नका मन्दिर है। वायव्यकोणमें रतिका लोक है। उत्तर-दिशामें श्रीअनिरुद्धका स्थान है और ईशानकोणमें शान्तिलोक है। भगवानके परम धामको सूर्य, चन्द्रमा और अग्नि नहीं प्रकाशित करते। कठोर ब्रतोंका पालन करनेवाले योगिजन वहाँ जाकर फिर इस संसारमें नहीं लौटते। जो दो नामोंके एक मन्त्र (लक्ष्मीनारायण) के जपमें लगे रहते हैं, वे निश्चय ही उस अविनाशी पदको श्राप्त होते हैं।, पद्म पुराण, उत्तर खण्ड

वैष्णव आचार्यों के अनुसार , महावैकुंठ में वर्णित इंद्र जैसे देवता, आवरण देवता, साध्य, विश्वदेव, मरुत् और अन्य देवता, प्राकृत ब्रह्मांड के इंद्रादि देवता से भिन्न हैं। वैष्णव विद्वान विश्वनाथ चक्रवर्ती के अनुसार , ब्रह्मा ने नारायण की कृपा से सृष्टि के आरंभ में इस महावैकुंठलोक (स्व-लोकम्-महावैकुंठम्) का दर्शन किया था।

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सारांश
परिप्रेक्ष्य

नम्मालवार की रचनाओं में , वैकुंठ को तामिल साहित्यिक परंपरा में तिरुनातु (पवित्र भूमि) के रूप में संदर्भित किया गया है । श्री वैष्णव संप्रदाय में, वैकुंठ को एक सौ आठ दिव्य स्वर्गों में से अंतिम और सबसे महान माना जाता है। एक सौ आठ दिव्य देसमों में से अंतिम दो देसम भौतिक ब्रह्माण्ड में तथा उसके परे भगवान विष्णु के दिव्य राज्य वैकुण्ठ में स्थित हैं। ब्रह्माण्ड में एक सौ सातवाँ दिव्य देश क्षीरसागर में स्थित है । तिरुबैमोली के तानियान छंद इस वैकुंठ निवास का वर्णन इस प्रकार करते हैं:

अकल्पनीय बादलों ने आकाश को सुशोभित किया, तथा वैकुंठ की ओर बढ़ते हुए वैष्णवों का स्वागत किया। आकाश में बादल शुभ संकेतों के साथ खेल रहे थे। समुद्र की लहरें ताल,लय पर नाच रही थीं। नारायण के चिर-प्रशंसित भक्त के घर लौटने से सप्तद्वीप प्रसन्न हुए और उसे ढेरों उपहार प्रदान किये। (10.9.1)

अग्निहोम की सुगंध फैल चुकी थी। संगीत वाद्ययंत्रों और शंखों की ध्वनि से आकाश गूंज उठा। मत्स्यनयना स्त्रियाँ खुशी से चिल्ला उठीं, 'हे भक्त, आकाश पर राज करो।' (10.9.6) जिस प्रकार माता अपने बहुत समय से दूर रहे पुत्र को देखकर हर्षित होती है, उसी प्रकार [भगवान की पत्नियाँ] [नये आगत को] देखकर हर्षित होती हैं। [और] अपने आध्यात्मिक परिचारकों के साथ उनका स्वागत करता है। फिर उन्हें (नए आगमन वाले को) वैकुंठवासियों के उत्तम खजाने से बनी शुभ वस्तुओं, इत्र, विशाल दीपक और अन्य शुभ वस्तुओं से सम्मानित किया जाता है। जैसे ही भक्तगण वैकुण्ठ के प्रवेश द्वार पर पहुंच जाते है, चारण लोग खुशी से अभिभूत हो जाते है। देवताओं ने आगे बढ़कर अपना स्थान समर्पित कर दिया, क्योंकि प्रत्येक मनुष्य को वैकुंठ जाने का जन्मसिद्ध अधिकार है। (10.9.10)

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सन्दर्भ‌

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