आचार्य हरिभद्र
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आचार्य हरिभद्र सूरि प्रसिद्ध जैन दार्शनिक तथा नैयायिक थे। मूलतः वे चित्तौड़ के एक ब्राह्मण थे जिन्होने जैन मत स्वीकारने के बाद श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय में प्रवेश किया।
जेकोबी, लायमान, विन्तर्नित्स, सुवाली और शुब्रिंग आदि अनेक विद्वानों ने भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थ एवं जीवन के विषय में चर्चा की है। विद्वानों ने हरिभद्र के भिन्न-भिन्न ग्रन्थों का सम्पादन, अनुवाद या सार भी दिया है। हरिभद्र जर्मन, अंग्रेजी आदि पाश्चात्य भाषाओं के ज्ञाता विद्वानों के लक्ष्य पर एक विशिष्ट विद्वान के रूप से उपस्थित हुए।
प्रतिभाशाली और विद्वान् होना वस्तुतः तभी सार्थक होता है जब व्यक्ति में सत्यनिष्ठा और सहिष्णुता हो । आचार्य हरिभद्र उस युग के विचारक है जब भारतीय चिन्तन में और विशेषकर दर्शन के क्षेत्र में वाक्-छल और खण्डन-मण्डन की प्रवृत्ति बलवती बन गयी थी । प्रत्येक दार्शनिक स्वपक्ष के मण्डन एवं परपक्ष के खण्डन में ही अपना बुद्धि-कौशल मान रहा था। मात्र यही नहीं, दर्शन के साथ-साथ धर्म के क्षेत्र में भी पारस्परिक विद्वेष और घृणा अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। स्वयं आचार्य हरिभद्र को भी इस विद्वेष भावना के कारण अपने दो शिष्यों की बलि देनी पड़ी थी। हरिभद्र की महानता और धर्म एवं दर्शन के क्षेत्र में उनके अवदान का सम्यक् मूल्यांकन तो उनके युग की इन विषम परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में ही किया जा सकता है। उनकी महानता तो इसी में निहित है कि उन्होंने शुष्क वाग्जाल तथा घृणा एवं विद्वेष की उन विषम परिस्थितियों में भी समभाव, सत्यनिष्ठा, उदारता, समन्वयशीलता और सहिष्णुता का परिचय दिया। यह अवश्य कहा जा सकता है कि समन्वयशीलता और उदारता के ये गुण उन्हें जैन दर्शन की अनेकान्त दृष्टि के रूप में विरासत में मिले थे, फिर भी उन्होंने अपने जीवन-व्यवहार और साहित्य-सृजन में इन गुणों को जिस शालीनता के साथ आत्मसात् किया था वैसे उदाहरण स्वयं जैन-परम्परा में भी विरल ही हैं।