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मुगल साम्राज्य के छठे सम्राट जिन्होंने 1658 से 1707 तक शासन किया। विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
मुहिउद्दीन मोहम्मद (3 नवम्बर 1618 – 3 मार्च 1707), जिसे आम तौर पर औरंगज़ेब या आलमगीर (मुस्लिम प्रजा द्वारा दिया गया शाही नाम जिसका मतलब है विश्व विजेता) के नाम से जाना जाता था, भारत पर राज करने वाला छठा मुग़ल शासक था। उसका शासन 1658 से लेकर 1707 में उनकी मृत्यु तक चला। औरंगज़ेब ने भारतीय उपमहाद्वीप पर लगभगआधी सदी राज किया। वह अकबर के बाद सबसे अधिक समय तक शासन करने वाला मुग़ल शासक था। औरंगज़ेब के शासन में मुग़ल साम्राज्य अपने विस्तार के शिखर पर पहुँचा। उसने अपने जीवनकाल में दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में प्राप्त विजयों के माध्यम से मुग़ल साम्राज्य को साढ़े बारह लाख वर्ग मील में फैलाया। अपने जीवनकाल में, उसने पुरे दक्षिणी भारत में मुग़ल साम्राज्य का विस्तार करने का भरपूर प्रयास किया पर मराठा के वजह पुरे भारत पर राज नही कर सका और उसके शासन के बाद मुग़ल साम्राज्य का सिकुड़ना आरम्भ हो गया।
औरंगज़ेब | |||||||||
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छठवाँ मुग़ल राजा | |||||||||
शासनावधि | 31 जुलाई 1658 – 3 मार्च 1707 | ||||||||
राज्याभिषेक | 13 जून 1659 शालीमार बाग़ | ||||||||
पूर्ववर्ती | शाहजहाँ | ||||||||
उत्तरवर्ती | मोहम्मद आज़म शाह (बराए-नाम) बहादुर शाह I | ||||||||
जन्म | मुहिउद्दीन मोहम्मद 3 नवम्बर 1618 दाहोद, मुग़ल साम्राज्य | ||||||||
निधन | 3 मार्च 1707 88) अहमदनगर, मुग़ल साम्राज्य | (उम्र||||||||
समाधि | |||||||||
जीवनसंगी | दिलरस बानो बेगम नवाब बाई औरंगाबादी महल उदयपुरी महल | ||||||||
संतान |
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घराना | तैमूरी | ||||||||
राजवंश | मुग़ल ख़ानदान | ||||||||
पिता | शाहजहाँ | ||||||||
माता | मुमताज़ महल | ||||||||
धर्म | इस्लाम |
औरंगजेब को सबसे विवादास्पद मुग़ल शासक माना जाता है क्योंकि उन्होंने गैर-मुसलमानों के प्रति जज़िया कर जैसी भेदभावपूर्ण नीतियां लागू कीं और उनके शासन में बड़ी संख्या में हिंदू मंदिरों को नष्ट कर दिया गया।[1][2] औरंगज़ेब ने पूरे साम्राज्य पर शरियत आधारित फ़तवा-ए-आलमगीरी लागू किया और सिखों के गुरु तेग बहादुर को भी उनके आदेश के तहत मार दिया गया था। [3][4]
औरंगज़ेब का जन्म 3 नवम्बर 1618 को दाहोद, गुजरात में हुआ था।[5] वो शाहजहाँ और मुमताज़ महल की छठी सन्तान और तीसरा बेटा था। उनके पिता उस समय गुजरात के सूबेदार थे। जून 1626 में जब उनके पिता द्वारा किया गया विद्रोह असफल हो गया तो औरंगज़ेब और उनके भाई दारा शूकोह को उनके दादा जहाँगीर के लाहौर वाले दरबार में नूर जहाँ द्वारा बन्धक बना कर रखा गया। 26 फरवरी 1628 को जब शाहजहाँ को मुग़ल सम्राट घोषित किया गया तब औरंगज़ेब आगरा किले में अपने माता-पिता के साथ रहने के लिए वापस लौटा। यहीं पर औरंगज़ेब ने अरबी और फ़ारसी की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की।
मुग़ल प्रथाओं के अनुसार, शाहजहाँ ने 1634 में शहज़ादे औरंगज़ेब को दक्कन का सूबेदार नियुक्त किया। औरंगज़ेब खडकी (महाराष्ट्र) को गया जिसका नाम बदलकर उसने औरंगाबाद कर दिया। 1637 में उन्होंने रबिया दुर्रानी से विवाह किया। इधर शाहजहाँ मुग़ल दरबार का कामकाज अपने बेटे दारा शिकोह को सौंपने लगा। 1644 में औरंगज़ेब की बहन एक दुर्घटना में जलकर मर गयी। औरंगज़ेब इस घटना के तीन हफ्तों बाद आगरा आया जिससे उनके पिता शाहजहाँ को उस पर बहुत क्रोध आया। उसने औरंगज़ेब को दक्कन के सूबेदार के पद से निलम्बित कर दिया। औरंगज़ेब 7 महीनों तक दरबार नहीं आया। बाद में शाहजहाँ ने उसे गुजरात का सूबेदार बना दिया। औरंगज़ेब ने सुचारु रूप से शासन किया और उसे इसका परिणाम भी मिला, उसे बदख़्शान (उत्तरी अफ़गानिस्तान) और बाल्ख़ (अफ़गान-उज़्बेक) क्षेत्र का सूबेदार बना दिया गया।
इसके बाद उन्हें मुल्तान और सिन्ध का भी सूबेदार बनाया गया। इस दौरान वे फ़ारस के सफ़वियों से क़ंधार पर नियन्त्रण के लिए लड़ते रहे पर उन्हें पराजय के अलावा और कुछ मिला तो वो था अपने पिता की उपेक्षा। 1652 में उन्हें दक्कन का सूबेदार पुनः बनाया गया। उन्हें गोलकोंडा और बीजापुर के विरुद्ध लड़ाइयाँ की और निर्णायक क्षण पर शाहजहाँ ने सेना वापस बुला ली। इससे औरंगज़ेब को बहुत ठेस पहुँची क्योंकि शाहजहाँ ऐसे उनके भाई दारा शिकोह के कहने पर कर रहे थे।
शाहजहाँ 1657 में ऐसे बीमार हुए कि लोगों को उसका अन्त निकट लग रहा था। ऐसे में दारा शिकोह, शाह शुजा और औरंगज़ेब के बीच में सत्ता को पाने का संघर्ष आरम्भ हुआ। शाह शुजा जिसने स्वयं को बंगाल का राज्यपाल घोषित कर दिया था, अपने बचाव के लिए बर्मा के अरकन क्षेत्र में शरण लेने पर विवश हो गया। 1658 में औरंगज़ेब ने शाहजहाँ को आगरा किले में बन्दी बना लिया और स्वयं को शासक घोषित किया। दारा शिकोह को विश्वासघात के आरोप में फाँसी दे दी गयी। उन्हें 1659 में दिल्ली में राजा का ताज पहनाया गया था। उनके शासन के पहले 10 वर्षों का वर्णन मुहम्मद काज़िम द्वारा लिखित आलमगीरनामा में किया गया है।[6]
औरंगज़ेब ने अ-मुस्लिमों पर जज़िया कर पुनः से आरम्भ करवाया, जिसे अकबर ने समाप्त कर दिया था।
औरंगज़ेब के शासन काल में युद्ध-विद्रोह-दमन-चढ़ाई इत्यादि का ताँता लगा रहा। पश्चिम में सिक्खों की संख्या और शक्ति में बढ़ोत्तरी हो रही थी। दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा को अन्ततः उन्होंने पराजित कर दिया पर इस बीच छत्रपती शिवाजी महाराज की मराठा सेना ने उनकी नाक में दम कर दिया। शिवाजी महाराज को औरंगज़ेब ने गिरफ्तार कर तो लिया पर शिवाजी महाराज और पुत्रसंभाजी महाराज के भाग निकलने पर उनके लिए बहुत चिन्ता का कारण बन गये। शिवाजी महाराज की मृत्यु के बाद भी मराठे औरंगज़ेब को युद्ध के लिये ललकारते रहे।
औरंगज़ेब की विवादास्पद प्रतिष्ठा के प्राथमिक कारणों में से एक हिंदुओं के खिलाफ उनकी धार्मिक नीतियों से उपजा है, क्योंकि उन्होंने भेदभावपूर्ण जजिया कर वापस लाया था जो हिंदू निवासियों को चुकाना पड़ता था।[7] औरंगजेब इस्लाम की सख्त और रूढ़िवादी व्याख्या के लिए जाना जाता था। उसने शरिया कानून लागू करने और पूरे साम्राज्य में इस्लामी प्रथाओं को फिर से लागू करने की मांग की। इसके कारण हिंदू मंदिरों का विध्वंस, गैर-मुस्लिमों पर भेदभावपूर्ण कर लगाना और धार्मिक अल्पसंख्यकों का उत्पीड़न हुआ।[7]
औरंगज़ेब के प्रशासन में दूसरे मुग़ल शहंशाहों से ज़्यादा हिंदू नियुक्त थे चूँकि यह हिंदू राजाओं की संख्या सहित संख्या और भूमि क्षेत्र के मामले में पिछले प्रशासन की तुलना में बहुत बड़ा था। मुग़ल इतिहास के बारे में यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि दूसरे शहंशाहों की तुलना में औरंगज़ेब के शासनकाल में सबसे ज़्यादा हिंदू प्रशासन का हिस्सा थे। ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि औरंगज़ेब के पिता शाहजहां के शासनकाल में सेना के विभिन्न पदों, दरबार के दूसरे अहम पदों और विभिन्न भौगोलिक प्रशासनिक इकाइयों में हिंदुओं की तादाद 24 फ़ीसद थी जो औरंगज़ेब के समय में 33 फ़ीसद तक हो गई थी। एम अथर अली के शब्दों में कहें तो यह तथ्य इस धारणा के विरोध में सबसे तगड़ा सुबूत है कि शहंशाह हिंदू मनसबदारों के साथ पक्षपात करते थे।[8]
औरंगज़ेब की सेना में वरिष्ठ पदों पर बड़ी संख्या में कई राजपूत नियुक्त थे। मराठों और सिखों के ख़िलाफ़ औरंगज़ेब के हमले को धार्मिक चश्मे से देखा जाता है लेकिन यह निष्कर्ष निकालते वक़्त इस बात की उपेक्षा कर दी जाती है कि तब युद्ध क्षेत्र में मुग़ल सेना की कमान अक्सर राजपूत सेनापति के हाथ में होती थी। इतिहासकार यदुनाथ सरकार लिखते हैं कि एक समय एक छोटी और अस्थायी अवधि के लिए ख़ुद छत्रपती शिवाजी भी औरंगज़ेब की सेना में मनसबदार थे।
औरंगज़ेब तथाकथित हिन्दू और सिख विरोधी काम करता था। खाने-पीने, वेश-भूषा और जीवन की अन्य सभी सुविधाओं में वे संयम बरतता था। प्रशासन के भारी काम में व्यस्त रहते हुए भी वे अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए क़ुरआन की नकल बना कर के और टोपियाँ सीकर कुछ पैसा कमाने का समय निकाल लेता था।[उद्धरण चाहिए]
औरंगज़ेब ही नहीं सभी मध्यकालीन भारत के तमाम मुसलमान बादशाहों के बारे में एक बात यह भी कही जाती है कि उनमें से कोई भारतीय नहीं था।
मुग़ल काल में ब्रज भाषा और उसके साहित्य को हमेशा संरक्षण मिला था और यह परंपरा औरंगज़ेब के शासन में भी जारी रही। कोलंबिया यूनिवर्सिटी से जुड़ी इतिहासकार एलिसन बुश बताती हैं कि औरंगज़ेब के दरबार में ब्रज को प्रोत्साहन देने वाला माहौल था। शहंशाह के बेटे आज़म शाह की ब्रज कविता में ख़ासी दिलचस्पी थी। ब्रज साहित्य के कुछ बड़े नामों जैसे महाकवि देव को उन्होंने संरक्षण दिया था। इसी भाषा के एक और बड़े कवि वृंद तो औरंगज़ेब के प्रशासन में भी नियुक्त थे।
मुग़ल काल में दरबार की आधिकारिक लेखन भाषा फ़ारसी थी लेकिन औरंगज़ेब का शासन आने से पहले ही शासक से लेकर दरबारियों तक के बीच प्रचलित भाषा हिन्दी-उर्दू हो चुकी थी। इसे औरंगज़ेब के उस पत्र से भी समझा जा सकता है जो उन्होंने अपने 47 वर्षीय बेटे आज़म शाह को लिखा था। शासक ने अपने बेटे को एक किला भेंट किया था और इस अवसर पर नगाड़े बजवाने का आदेश दिया। आज़म शाह को लिखे पत्र में औरंगज़ेब ने लिखा है कि जब वे एक बच्चे थे तो उन्हें नगाड़ों की आवाज बहुत पसन्द थी और वे अक्सर कहते थे, ‘बाबाजी ढन-ढन!’ इस उदाहरण से यह बात कही जा सकती है कि औरंगज़ेब का बेटा तत्कालीन प्रचलित हिन्दी में ही अपने पिता से बातचीत करता था।[8]
सम्राट औरंगज़ेब ने इस्लाम धर्म के महत्व को स्वीकारते हुए ‘क़ुरआन’ को अपने शासन का आधार बनाया। उन्होंने सिक्कों पर कलमा खुदवाना, नौ-रोज़ का त्यौहार मनाना, भांग की खेती करना, गाना-बजाना आदि पर रोक लगा दी। 1663 ई. में सती प्रथा पर प्रतिबन्ध लगाया। तीर्थ कर पुनः लगाया। अपने शासन काल के 11 वर्ष में ‘झरोखा दर्शन’, 12वें वर्ष में ‘तुलादान प्रथा’ पर प्रतिबन्ध लगा दिया, 1668 ई. में हिन्दू त्यौहारों पर प्रतिबन्ध लगा दिया। 1699 ई. में उन्होंने हिन्दू मंदिरों को तोड़ने का आदेश दिया। बड़े-बड़े नगरों में औरंगज़ेब द्वारा ‘मुहतसिब’ (सार्वजनिक सदाचारा निरीक्षक) को नियुक्त किया गया। 1669 ई. में औरंगज़ेब ने बनारस के ‘विश्वनाथ मंदिर’ एवं मथुरा के ‘केशव राय मदिंर’ को तुड़वा दिया। उन्होंने शरीयत के विरुद्ध लिए जाने वाले लगभग 80 करों को समाप्त करवा दिया। इन्हीं में ‘आबवाब’ नाम से जाना जाने वाला ‘रायदारी’ (परिवहन कर) और ‘पानडारी’ (चुंगी कर) नामक स्थानीय कर भी शामिल थे।
औरंगज़ेब के समय में ब्रज में आने वाले तीर्थ−यात्रियों पर भारी कर लगाया गया जिज़्या कर फिर से लगाया गया और हिन्दुओं को मुसलमान बनाया गया। उस समय के कवियों की रचनाओं में औरंगज़ेब के अत्याचारों का उल्लेख है।
औरंगज़ेब द्वारा लगाया गया जिज़्या/जज़िया कर उस समय के हिसाब से था। अकबर ने जिज़्या कर को हटा दिया था, लेकिन औरंगज़ेब के समय यह दोबारा लागू किया गया। जिज़्या सामान्य करों से अलग था जो गैर-मुसलमानों को चुकाना पड़ता था। इसके तीन स्तर थे और इसका निर्धारण संबंधित व्यक्ति की आमदनी से होता था। इस कर के कुछ अपवाद भी थे। ग़रीबों, बेरोज़गारों और शारीरिक रूप से अशक्त लोग इसके दायरे में नहीं आते थे। इनके अलावा हिंदुओं की वर्ण व्यवस्था में सबसे ऊपर आने वाले ब्राह्मण और सरकारी अधिकारी भी इससे बाहर थे। मुसलमानों के ऊपर लगने वाला ऐसा ही धार्मिक कर ज़कात था जो हर अमीर मुसलमान के लिए देना ज़रूरी था ।[8]
आधुनिक मूल्यों के मानदंडों पर जिज़्या निश्चितरूप से एक पक्षपाती कर व्यवस्था थी। आधुनिक राष्ट्र, धर्म और जाति के आधार पर इस तरह का भेद नहीं कर सकते। इसीलिए जब हम 17वीं शताब्दी की व्यवस्था को आधुनिक राष्ट्रों के पैमाने पर इसे देखते हैं तो यह बहुत अराजक व्यवस्था लग सकती है, लेकिन औरंगज़ेब के समय ऐसा नहीं था। उस दौर में इसके दूसरे उदाहरण भी मिलते हैं। जैसे मराठों ने दक्षिण के एक बड़े हिस्से से मुग़लों को बे-दख़्ल कर दिया था। उनकी कर व्यवस्था भी तक़रीबन इसी स्तर की पक्षपाती थी। वे मुसलमानों से ज़कात वसूलते थे और हिंदू आबादी इस तरह की किसी भी कर व्यवस्था से बाहर थी।[8]
समकालीन अदालत के इतिहास में उल्लेख किया गया है कि खंडेला, जोधपुर, उदयपुर और चित्तौड़ में मंदिरों सहित सैकड़ों हिंदू मंदिरों को औरंगज़ेब या उनके सरदारों द्वारा उनके आदेश पर ध्वस्त कर दिया गया था।[9], और सितंबर 1669 में, औरंगजेब ने वाराणसी में प्रमुख हिंदू मंदिरों में से एक, काशी विश्वनाथ मंदिर को नष्ट करने का आदेश दिया।[10]
अब्राहम एराली के अनुसार, "1670 में औरंगज़ेब ने, उज्जैन के आसपास के सभी मंदिरों को नष्ट कर दिया गया था" और बाद में "300 मंदिरों को चित्तौड़, उदयपुर और जयपुर के आसपास नष्ट कर दिया गया" अन्य हिंदू मंदिरों में से 1705 के अभियानों में कहीं और नष्ट कर दिया गया; और "औरंगज़ेब की धार्मिक नीति ने उनके और नौवें सिख गुरु, तेग बहादुर के बीच घर्षण पैदा कर दिया, जिसे जब्त कर लिया गया और दिल्ली ले जाया गया, उन्हें औरंगज़ेब ने इस्लाम अपनाने के लिए बुलाया और मना करने पर, उन्हें यातना दी गई और नवंबर 1675 में उनका सिर कलम कर दिया गया। [11].
विश्वप्रसिद्ध इतिहासकार रिचर्ड ईटन के मुताबिक़ मुग़लकाल में मंदिरों को ढहाना दुर्लभ घटना हुआ करती थी और जब भी ऐसा हुआ तो उसके कारण राजनैतिक रहे। ईटन के मुताबिक़ वही मंदिर तोड़े गए जिनमें विद्रोहियों को शरण मिलती थी या जिनकी मदद से शहंशाह के ख़िलाफ़ साज़िश रची जाती थी। उस समय मंदिर तोड़ने का कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं था।[8]
इस मामले में कुख्यात कहा जाने वाले औरंगज़ेब भी सल्तनत के इसी नियम पर चले। उन्होंने शासनकाल में मंदिर ढहाने के उदाहरण बहुत ही दुर्लभ हैं (ईटन इनकी संख्या 15 बताते हैं) और जो हैं उनकी जड़ में राजनीतिक कारण ही रहे हैं। उदाहरण के लिए औरंगज़ेब ने दक्षिण भारत में कभी-भी मंदिरों को निशाना नहीं बनाया जबकि उनके शासनकाल में ज़्यादातर सेना यहीं तैनात थी। उत्तर भारत में उन्होंने ज़रूर कुछ मंदिरों पर हमले किए जैसे मथुरा का केशव राय मंदिर लेकिन इसका कारण धार्मिक नहीं था। मथुरा के जाटों ने सल्तनत के ख़िलाफ़ विद्रोह किया था इसलिए यह हमला किया गया।
ठीक इसके उलट कारणों से औरंगज़ेब ने मंदिरों को संरक्षण भी दिया। यह उनकी उन हिंदुओं को भेंट थी जो शहंशाह के वफ़ादार थे। किंग्स कॉलेज, लंदन की इतिहासकार कैथरीन बटलर तो यहां तक कहती हैं कि औरंगज़ेब ने जितने मंदिर तोड़े, उससे ज़्यादा बनवाए थे। कैथरीन फ़्रैंक, एम अथर अली और जलालुद्दीन जैसे विद्वान इस तरफ़ भी इशारा करते हैं कि औरंगज़ेब ने कई हिंदू मंदिरों को अनुदान दिया था जिनमें बनारस का जंगम बाड़ी मठ, चित्रकूट का बालाजी मंदिर, इलाहाबाद का सोमेश्वर नाथ महादेव मंदिर और गुवाहाटी का उमानंद मंदिर सबसे जाने-पहचाने नाम हैं।[8]
औरंगज़ेब को कट्टरपंथी साबित करने की कोशिश में एक बड़ा तर्क यह भी दिया जाता है कि उन्होंने संगीत पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन यह बात भी सही नहीं है। कैथरीन बताती हैं कि सल्तनत में तो क्या संगीत पर उन्होंने दरबार में भी प्रतिबंध नहीं था। शहंशाह ने जिस दिन राजगद्दी संभाली थी, हर साल उस दिन उत्सव में ख़ूब नाच-गाना होता था।[8] कुछ ध्रुपदों की रचना में औरंगज़ेब नाम शामिल है जो बताता है कि उनके शासनकाल में संगीत को संरक्षण हासिल था। कुछ ऐतिहासिक तथ्य इस बात की तरफ़ भी इशारा करते हैं कि वे ख़ुद संगीत के अच्छे जानकार थे। मिरात-ए-आलम में बख़्तावर ख़ान ने लिखा है कि शहंशाह को संगीत विशारदों जैसा ज्ञान था। मुग़ल विद्वान फ़क़ीरुल्लाह ने राग दर्पण नाम के दस्तावेज़ में औरंगज़ेब के पसंदीदा गायकों और वादकों के नाम दर्ज किए हैं। औरंगज़ेब को अपने बेटों में आज़म शाह बहुत प्रिय थे और इतिहास बताता है कि शाह अपने पिता के जीवनकाल में ही निपुण संगीतकार बन चुके थे।
औरंगज़ेब के शासनकाल में संगीत के फलने-फूलने की बात करते हुए कैथरीन लिखती हैं, ‘500 साल के पूरे मुग़लकाल की तुलना में औरंगज़ेब के समय फ़ारसी में संगीत पर सबसे ज़्यादा टीका लिखी गईं। हालांकि यह बात सही है कि अपने जीवन के अंतिम समय में औरंगज़ेब ज़्यादा धार्मिक हो गए थे और उन्होंने गीत-संगीत से दूरी बना ली थी। लेकिन ऊपर हमने जिन बातों का ज़िक्र किया है उसे देखते हुए यह माना जा सकता है कि उन्होंने कभी अपनी निजी इच्छा को सल्तनत की आधिकारिक नीति नहीं बनाया।[8]
औरंगज़ेब के अन्तिम समय में दक्षिण में मराठों का ज़ोर बहुत बढ़ गया था। उन्हें दबाने में शाही सेना को सफलता नहीं मिल रही थी। इसलिए सन 1683 में औरंगज़ेब स्वयं सेना लेकर दक्षिण गए। वह राजधानी से दूर रहते हुए, अपने शासन−काल के लगभग अंतिम 25 वर्ष तक उसी अभियान में रहे। 50 वर्ष तक शासन करने के बाद उनकी मृत्यु दक्षिण के अहमदनगर में 3 मार्च सन 1707 ई. में हो गई। दौलताबाद में स्थित फ़कीर बुरुहानुद्दीन की क़ब्र के अहाते में उन्हें दफ़ना दिया गया। उनकी नीति ने इतने विरोधी पैदा कर दिये, जिस कारण मुग़ल साम्राज्य का अंत ही हो गया। हालांकि औरंगज़ेब ख़ुद को हिंदू स्थान का शहंशाह मानते थे एवं उनकी दौलत बहुत थी मगर ख़ुद की क़ब्र के बारे मे उनके ख़यालात अलग थे। उन्होंने ख़ुद की क़ब्र के बारे में ऐसा लिखा था कि वह बहुत ही सीधी-सादी बनायी जाए। उनकी क़ब्र औरंगाबाद ज़िले ख़ुल्दाबाद में स्थित है।
औरंगज़ेब का संपूर्ण राजकीय उपाधि था:-
अल-सुल्तान अल-आजम व़ अल ख़ाक़ान अल-मुकर्रम हज़रत अबूल मुज़फ़्फ़र मुही अल-दीन मुहम्मद औरंगज़ेब बहादुर आलमगीर प्रथम, बादशाह ग़ाज़ी, शाहिनशाह इ सल्तनत अल-हिन्दीया व़ अल-मग़ूलिया[12]
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