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द्विअग्र या द्वयाग्र या डायोड (diode) यह एक ऐसी वैद्युत युक्ति है जिसमे विधुत धारा एक दिशा मे बहती है। अधिकांशत: डायोड दो सिरों (अग्र) वाले होते हैं किन्तु ताप-आयनिक डायोड में दो अतिरिक्त सिरे भी होते हैं जिनसे हीटर जुड़ा होता है।
डायोड कई तरह के होते हैं किन्तु इन सबकी प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक दिशा में धारा को बहुत कम प्रतिरोध के साथ बहने देते हैं जबकि दूसरी दिशा में धारा के विरुद्ध बहुत प्रतिरोध लगाते हैं। इनकी इसी विशेषता के कारण ये अन्य कार्यों के अलावा प्रत्यावर्ती धारा को दिष्ट धारा के रूप में बदलने के लिये दिष्टकारी परिपथों में प्रयोग किये जाते हैं। आजकल के परिपथों में अर्धचालक डायोड, अन्य डायोडों की तुलना में बहुत अधिक प्रयोग किये जाते हैं।
१९०४ में जॉन एम्ब्रोस फ्लेमिंग ने पहला तापायनी डायोड पेटेन्ट कराया।
जब तक निर्वात नलिकाओं का युग था, वाल्व डायोडों का उपयोग लगभग सभी इलेक्ट्रॉनिक कार्यों (जैसे रेडियो, टेलीविजन, ध्वनि प्रणालियाँ, और इन्स्ट्रुमेन्टेशन आदि) में होता रहा। १९४० के दशक के अन्तिम काल में सेलेनियम डायोड के आ जाने से इनका बाजार कम होने लगा। इसके बाद १९६० के दशक में जब अर्धचालक डायोड की प्रौद्योगिकी बाजार में आ गयी, तब वाल्व डायोड का चलन और भी कम हो गया। आज भी वाल्व डायोड प्रयुक्त होते हैं किन्तु बहुत कम। इनका उपयोग आजकल वहाँ होता है जहाँ बहुत अधिक वोल्टेज और बहुत अधिक धारा की आवश्यकता हो।
1874 में जर्मन वैज्ञानिक कार्ल फर्डिनान्द ब्राउन ने पाया कि किसी धातु और खनिज की सन्धि (जङ्क्शन) केवल एक ही दिशा में धारा प्रवाहित करने देती है। भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चन्द्र बसु ने १८९४ में सबसे पहले क्रिस्टल का उपयोग करके रेडियो तरंगों को डिटेक्ट किया।
1930 के दशक के मध्य में बेल प्रयोगशाला के शोधकर्ताओं ने पाया कि क्रिस्टल डिटेक्टर का उपयोग माइक्रोवेव प्रौद्योगिकी में किया जा सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय बिन्दु-सम्पर्क डायोड (point-contact diodes या crystal rectifiers or crystal diodes) का विकास हुआ जिसका उपयोग राडार में हुआ। १९५० के दशक के आरम्भ में जंक्शन डायोड का विकास हुआ।
वर्तमान समय में अनेक प्रकार के अर्धचालक डायोड प्रयुक्त होते हैं, जैसे बिन्दु-सम्पर्क डायोड, पी-एन डायोड, शॉट्की डायोड Archived 2023-05-16 at the वेबैक मशीन आदि। इनमें पी-एन जंक्शन डायोड सर्वाधिक प्रचलित और उपयोगी है।
बिन्दु सम्पर्क डायोड (Point Contact Diode) का विकास १९३० के दशक से आरम्भ हुआ। आजकल इसका उपयोग प्रायः ३ जीगाहर्ट्स से लेकर ३० जीगाहर्ट्स पर होता है। बिन्दु सम्पर्क डायोड में एक कम व्यास का धातु का तार एक अर्धचालक क्रिस्टल के सम्पर्क में होता है। दे दो तरह के होते हैं- वेल्ड किए गए सम्पर्क बिन्दु वाले या बिना वेल्ड सम्पर्क बिन्दु वाले।
पी-एन डायोड किसी अर्धचालक पदार्थ (जैसे सिलिकन, जर्मेनियम, गैलियम आर्सेनाइड आदि) के क्रिस्टल से बनाए जाते हैं। इसमें अन्य पदार्थ की अशुद्धि डालकर एक ही क्रिस्टल के दो भाग बना दिए जाते हैं जो एक सन्धि (जंक्शन) पर मिलते हैं। इस सन्धि के एक तरफ इलेक्ट्रॉनों की अधिकता होती है, जिससे इस भाग को n-टाइप अर्धचालक कहा जाता है। सन्धि के दूसरी तरफ धनात्मक आवेश वाहक (holes) होते हैं, इसलिए इस भाग को p-टाइप अर्धचालक कहते हैं।
शॉट्की डायोड में भी एक सन्धि होती है जो धातु और अर्धचालक की सन्धि होती है, न कि पी टाइप और एन टाइप अर्धचालकों की सन्धि। धातु और अर्धचालक की सन्धि की विशेषता उस सन्धि की धारिता (capacitance) का अत्यन्त कम होना है। कम सन्धि-धारिता के कारण शॉट्की डायोड का उपयोग अत्यधि गति से स्विचिंग (ऑन-ऑफ करने) के लिए किया जाता है।
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