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फर्डिनांद द सस्यूर (Ferdinand de Saussure) को आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक के रूप में जाना जाता है।
इनका जन्म सन् 1857 ई. में जेनेवा में हुआ था। इनके पिता एक प्रसिद्ध प्राकृतिक वैज्ञानिक थे। इसलिए उनकी प्रबल इच्छा थी कि सस्यूर भी इस क्षेत्र में अपना अध्ययन-कार्य करें। परंतु सस्यूर की रुचि भाषा सीखने की ओर अधिक थी। यही कारण था कि जेनेवा विश्वविद्यालय में सन् 1875 ई. में भौतिकशास्त्र और रसायनशास्त्र में प्रवेश पाने के पूर्व ही वे ग्रीक भाषा के साथ-साथ फ्रेंच, जर्मन, अंग्रेजी और लैटिन भाषाओं से परिचित हो चुके थे तथा सन् 1872 ई. में “भाषाओं की सामान्य व्यवस्था” नामक लेख लिख चुके थे। पंद्रह वर्ष की आयु में लिखे इस लेख में उन्होंने यह दिखलाने का प्रयत्न किया कि संसार की सभी भाषाओं के मूल में तीन आधारभूत व्यंजनों की व्यवस्था है।
उन्होंने अपना अध्ययन कार्य जेनेवा, पेरिस और लेपजिंग में संस्कृत और तुलनात्मक भाषाविज्ञान के अंर्तगत पूर्ण किया। साथ ही साथ वह लेपजिंग विश्वविद्यालय में नव्य वैयाकरणों (ब्रुगमैन एवं कार्ल बेवर) के संपर्क में आए। इक्कीस साल की आयु में उन्होंने यूरोपीय भाषाओं की आधारभूत व्यवस्था पर लेख लिखा। इस लेख के अंतर्गत उन्होंने अनेक आधारभूत संकल्पनाओं पर न केवल सैद्धांतिक प्रहार किया वरन् भाषा-संबंधी अनुसंधान के क्षेत्र में प्रणालीगत विश्लेषण की बात भी उठाई।
इनका दूसरा आधार स्तंभ डॉक्टरेट की उपाधि के लिए प्रस्तुत शोध-प्रबंध था। उनके शोध का विषय “संस्कृत भाषा में संबंधकारक की प्रकृति और प्रयोग” था। डॉक्टरेट की उपाधि के बाद ये जर्मनी में और अधिक नहीं रूके क्योंकि इन्हें जर्मनी का सामाजिक और शैक्षिणिक वातावरण पसंद नहीं आया।
सन् 1880 ई. में सस्यूर जर्मनी छोड़कर फ्रांस आए। पेरिस में उन्होंने लगभग दस वर्षों तक ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का अध्ययन किया। कालांतर में वे पेरिस की भाषाविज्ञान संबंधी संस्था के सदस्य बने। जर्मनी से लौटने के बाद एक सक्रिय सदस्य के रूप में नवयुवक भाषाविद् सस्यूर ने समाज में एक महत्त्व्पूर्ण स्थान बना लिया। जेनेवा विश्वविद्यालय में सन् 1907 ई. में उन्हें सामान्य भाषाविज्ञान के अध्यापन का अवसर प्राप्त हुआ। एक वर्ष के अंतराल पर उनहोंने इस विषय में सन् 1907, 1909 एवं 1911 में तीन बार अध्ययन-अध्यापन कार्य किया। यह व्याख्यान माला ही उनकी पुस्तक का आधार बनी, जिसे उनके दो प्रबुद्ध सहयोगियों बेली और सेचहावे ने सन् 1913 ई. में ‘कोर्स ऑफ लिंग्विस्टिक’ नामक जर्नल में संपादित किया। सस्यूर के नोट्स न के बराबर थी, न ही सस्यूर ने अपने जीवन में किताब लिखी।
फरवरी 1913 ई. में 53 वर्ष की अल्पावस्था में सस्यूर की मृत्यु हो गई। अपने जीवन काल में सस्यूर ने स्वयं बहुत कम लिखा। डॉक्टरेट उपाधि के लिए लिखे गए अपने शोध ग्रंथ के अतिरिक्त उन्होंने कोई पुस्तक नहीं लिखी। 4 फ़रवरी 1954 ई. को लिखे गए उनके एक पत्र से यह संकेत अवश्य प्राप्त होता है कि वे भाषाविज्ञान पर एक सैद्धांतिक पुस्तक लिखना चाहते थे।
अविस्मरणीय भाषाविद् सस्यूर ने अपने जीवन काल में बहुत कम लेखन कार्य किया। पर इतना कम लिख कर भी वे आज भाषा-चिंतन के क्षेत्र में अमर हैं। वे स्वयं इस बात के अनूठे उदाहरण हैं कि अध्यापक-चिंतक के लिए अध्यापन, लेखन अधिक प्रभावकारी हो सकता है।
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