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भारतीय पार्श्व गायक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
मन्ना डे (असमिया: মান্না দে "मन्ना दे"; 1 मई 1919 - 24 अक्टूबर 2013), जिन्हें प्यार से मन्ना दा के नाम से भी जाना जाता है, फिल्म जगत के एक सुप्रसिद्ध भारतीय पार्श्व गायक थे। उनका वास्तविक नाम प्रबोध चन्द्र डे था, जो पुरन चन्द्र डे के बेटे थे। पश्चिम बंगाल में एक फ़िल्म बनी थी - चारन कबि मुकुन्दादास; मुकुन्दादास का मूल नाम था यजनेश्वर डे ,जो गुरुदयाल डे के बेटे थे (बंगाल मे चारन लोग के नाम के साथ डे जुडता है)। मन्ना दा ने सन् 1942 में फ़िल्म तमन्ना से अपने फ़िल्मी कैरियर की शुरुआत की और 1942 से 2013 तक लगभग 3000 से अधिक गानों को अपनी आवाज दी।[2] मुख्यतः हिन्दी एवं बंगाली फिल्मी गानों के अलावा उन्होंने अन्य भारतीय भाषाओं में भी अपने कुछ गीत रिकॉर्ड करवाये।
मान्ना दे | |
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पृष्ठभूमि | |
जन्म | 1 मई 1919[1] कलकत्ता, ब्रिटिश भारत |
निधन | अक्टूबर 24, 2013 94) बंगलौर, भारत | (उम्र
सक्रियता वर्ष | 1942–2013 |
वेबसाइट | www |
भारत सरकार ने उन्हें 1971 में पद्म श्री, 2005 में पद्म भूषण एवं 2007 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया।
मन्ना दा का जन्म कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में 1 मई 1919 को महामाया व पूरन चन्द्र डे के यहाँ हुआ था। उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा इन्दु बाबुर पाठशाला से पूरी करने के पश्चात स्कॉटिश चर्च कॉलेज में प्रवेश लिया। कॉलेज के दिनों वे कुश्ती और मुक्केबाजी जैसी प्रतियोगिताओं में खूब भाग लेते थे। उनके पिता उन्हें वकील बनाना चाहते थे। उन्होंने विद्यासागर कॉलेज से स्नातक किया। कुश्ती के साथ मन्ना फुटबॉल के भी काफी शौकीन थे। संगीत के क्षेत्र में आने से पहले इस बात को लेकर लम्बे समय तक दुविधा में रहे कि वे वकील बनें या गायक। आखिरकार अपने चाचा कृष्ण चन्द्र डे से प्रभावित होकर उन्होंने तय किया कि वे गायक ही बनेंगे।[3][4][5]
मन्ना डे ने संगीत की प्रारम्भिक शिक्षा अपने चाचा केoसीo डे से हासिल की। उनके बचपन के दिनों का एक दिलचस्प वाकया है। उस्ताद बादल खान और मन्ना डे के चाचा एक बार साथ-साथ रियाज कर रहे थे। तभी बादल खान ने मन्ना डे की आवाज सुनी और उनके चाचा से पूछा - "यह कौन गा रहा है?" जब मन्ना डे को बुलाया गया तो उन्होंने उस्ताद से कहा - "बस ऐसे ही गा लेता हूँ।" लेकिन बादल खान ने मन्ना डे की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया। इसके बाद वह अपने चाचा से संगीत की शिक्षा लेने लगे। मन्ना डे 40 के दशक में अपने चाचा के साथ संगीत के क्षेत्र में अपने सपनों को साकार करने के लिये मुंबई आ गये। और फिर यहीं के होकर रह गये।[6] वह जुहू विले पार्ले में रहते थे।[उद्धरण चाहिए]
18 दिसम्बर 1953 को केरल की सुलोचना कुमारन से उनकी शादी हुई। उनकी दो बेटियाँ हैं: शुरोमा और सुमिता। शुरोमा का जन्म 19 अक्टूबर 1956 तथा सुमिता का जन्म 20 जून 1958 को हुआ। उनकी पत्नी सुलोचना, जो कैंसर से पीड़ित थी, की मृत्यु बंगलोर में 18 जनवरी 2012 को हुई। अपने जीवन के पचास वर्ष से ज्यादा मुम्बई में व्यतीत करने के बाद मन्ना डे अन्तत: कल्याण नगर बंगलोर में जा बसे। इसी शहर में उन्होंने अन्तिम साँस ली।
1943 में फिल्म तमन्ना में बतौर प्लेबैक सिंगर उन्हें सुरैया के साथ गाने का मौका मिला। हालांकि इससे पहले वह फिल्म रामराज्य में कोरस के रूप में गा चुके थे। दिलचस्प बात है कि यही एक एकमात्र फिल्म थी, जिसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देखा था। मन्ना डे केवल शब्दो को ही नहीं गाते थे, बल्कि अपने गायन से शब्द के पीछे छिपे भाव को भी खूबसूरती से सामने लाते थे। शायद यही कारण है कि प्रसिद्ध हिन्दी कवि हरिवंश राय बच्चन ने अपनी अमर कृति मधुशाला को स्वर देने के लिये मन्ना डे का चयन किया। सन् 1961 में संगीत निर्देशक सलिल चौधरी के संगीत निर्देशन में फिल्म काबुलीवाला की सफलता के बाद मन्ना डे शोहरत की बुलन्दियों पर जा पहुँचे।[7]
आवारा में उनके द्वारा गाया गीत "तेरे बिना चाँद ये चाँदनी!" बेहद लोकप्रिय हुआ। इसके बाद उन्हें बड़े बैनर की फिल्मों में अवसर मिलने लगे। "प्यार हुआ इकरार हुआ" (श्री 420), "ये रात भीगी-भीगी" (चोरी-चोरी), "जहाँ मैं जाती हूँ वहीं चले आते हो" (चोरी-चोरी), "मुड़-मुड़ के ना देख मुड़-मुड़ के!" (श्री 420) जैसे अनेक सफल गीतों में उन्होंने अपनी आवाज दी।[8]
(सुना है मन्ना डे कुश्ती और रशियन की गर्लफ्रेंड में भी खूब भाग लेते थे।)
“ | आप लोग मेरे गीत को सुनते हैं लेकिन अगर मुझसे पूछा जाये तो मैं कहूँगा कि मैं मन्ना डे के गीतों को ही सुनता हूँ। | ” |
मन्ना डे को कठिन गीत गाने का शौक था। उनके गाये गीत हर तबके में काफी लोकप्रिय हुए। "लागा चुनरी में दाग, छुपाऊँ कैसे?", "पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी!", "सुर ना सजे, क्या गाऊँ मैं?", "जिन्दगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हँसाये कभी ये रुलाये!", "ये रात भीगी भीगी, ये मस्त नज़ारे!", "तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझे दीप कहूँ या तारा!" या "तू प्यार का सागर है, तेरी इक बूँद के प्यासे हम" और "आयो कहाँ से घनश्याम?" जैसे गीत ही नहीं, उनके गाये "यक चतुर नार, बड़ी होशियार!", " यारी है ईमान मेरा, यार मेरी जिन्दगी!", "प्यार हुआ इकरार हुआ", "ऐ मेरी जोहरा जबीं!" और "ऐ मेरे प्यारे वतन!" जैसे गीत भी लोगों की जबान पर आज भी चढ़े हुए हैं।[10]
गायकी को लेकर मन्ना डे के मन में अपार श्रद्धा थी। किसी भी निर्माता को यदि अपनी फिल्म में शास्त्रीय गीत गवाना होता था तो वह सिर्फ मन्ना डे को ही साइन करता था।[उद्धरण चाहिए] 1968 में रिलीज हुई फिल्म पड़ोसन के एक गाने ("इक चतुर नार बड़ी होशियार") की रिकॉर्डिग हो रही थी तो किशोर कुमार, जिन्हें सरगम बिलकुल नहीं आती थी और मन्ना डे, जो इसके मास्टर थे, के बीच इस बात को लेकर खींचतान हो गयी। निर्माता ने कहा कि इसे वैसा ही गाना है जैसा गीतकार राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा है। किशोर कुमार तो गाने के लिये तैयार हो गये परन्तु मन्ना डे ने गाने से मना कर दिया। वे अड़ गये और कहा "मैं ऐसा हरगिज नहीं करूँगा। मैं संगीत के साथ मजाक नहीं कर सकता।" खैर किसी तरह मन्ना की बात मान ली गयी और गीत की रिकॉर्डिग शुरू हुई। परन्तु उन्होंने सारा गाना क्लासिकी अन्दाज़ में ही गाया। लेकिन जब किशोर कुमार ने गलत अन्दाज वाला नोटेशन गायकी के अन्दाज में गाया, तो मन्ना चुप हो गये और कहा - "यह क्या है? यह कौन सा राग है?" इस पर हास्य अभिनेता महमूद ने उन्हें समझाया - "सर! सीन में कुछ ऐसा ही करना है, इसलिये किशोर दा ने ऐसे गाया।" मगर मन्ना दा इसके लिये तैयार नहीं हुए। किसी तरह उन्होंने अपने हिस्से का गीत पूरा किया लेकिन वह सब नहीं गाया जो उन्हें पसन्द नहीं था। [11]
उनके कुछ और प्रसिद्ध गीत इस प्रकार हैं-
“ | हम सभी उन्हें आज भी मन्ना दा के नाम से ही पुकारते हैं। शास्त्रीय गायकी में उनका कोई सानी नहीं। | ” |
सन् 1969 में फिल्म मेरे हुजूर के लिये सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक, 1971 में बंगला फिल्म निशि पदमा और 1970 में प्रदर्शित फिल्म मेरा नाम जोकर में सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायन के लिये फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से सम्मानित किये गये। भारत सरकार ने मन्ना डे को फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिये सन् 1971 में पद्म श्री सम्मान और 2005 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त सन् 2004 में रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय ने उन्हें डी॰लिट्॰ की मानद उपाधि दी। फिल्मों में उनके उल्लेखनीय योगदान को देखते हुए सन् 2007 में उन्हें फिल्मों का सर्वोच्च सम्मान दादासाहेब फाल्के पुरस्कार प्रदान किया गया।[14]
मन्ना डे पार्श्वगायक तो थे ही उन्होंने बांग्ला भाषा में अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जो बाँग्ला के अलावा अन्य भाषाओं में भी छपी। उनकी जीवनी को लेकर अन्य लेखकों ने भी पुस्तकें लिखीं। प्रकाशित पुस्तकों का विवरण इस प्रकार है-
मन्ना डे के जीवन पर आधारित "जिबोनेरे जलासोघोरे" नामक एक अंग्रेज़ी वृत्तचित्र 30 अप्रैल 2008 को नंदन, कोलकाता में रिलीज़ हुआ। इसका निर्माण "मन्ना डे संगीत अकादमी द्वारा" किया गया। इसका निर्देशन किया डॉ॰ सारूपा सान्याल और विपणन का काम सम्भाला सा रे गा मा (एच.एम.वी) ने।[18]
8 जून 2013 को सीने में संक्रमण के बाद उन्हें बंगलोर के एक अस्पताल के गहन चिकित्सा कक्ष में भर्ती कराया गया।[19] 9 जून 2013 को अचानक उनकी मौत की खबर आयी, किन्तु चिकित्सकों ने कहा कि वे अभी जिन्दा हैं और उनकी स्थिति स्थिर बनी हुई है। संक्रमण से बचाने हेतु वेन्टिलेटर पर गहन चिकित्सकीय परीक्षण किये जा रहे हैं।[20] 9 जुलाई 2013को उनका स्वास्थ्य ठीक हो गया था और चिकित्सकों द्वारा सूचना दी गयी कि उन्हें वेन्टिलेटर से हटा दिया गया है।[21] उन्हें साँस में तकलीफ के साथ गुर्दे की भी समस्या थी। वह डायलिसिस के दौर से भी गुजर रहे थे।[22] 24 अक्टूबर 2013 को सुबह 4 बजकर 30 मिनट पर शरीर के कई अंगों के काम न करने से अस्पताल में ही उनका देहान्त हो गया। अन्तिम समय में मन्ना डे के पास उनकी पुत्री शुमिता व दामाद ज्ञानरंजन देव मौजूद थे।[23]
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