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विनिमय दर (exchange rate) दो अलग मुद्राओं की सापेक्ष कीमत होती है, अर्थात एक मुद्रा के पदों में दूसरी मुद्रा के मूल्य की माप है। किन्हीं दो मुद्राओं के मध्य विनिमय की दर उनकी पारस्परिक माँग (demand) और आपूर्ति (supply) होती है।[1]
विदेशी विनिमय (foreign exchange) के संबंध में विचार करने से पहले 'विनिमय' शब्द का अर्थ जान लेना आवश्यक है। विनिमय का साधारण अर्थ यह है कि किसी एक वस्तु के बदले आवश्यकता की अन्य वस्तुएँ प्राप्त करना। वस्तुओं के क्रय विक्रय अथवा अदल बदल को भी विनिमय (exchange) कहते हैं। विदेशी विनिमय में भिन्न देशों की लेनी देनी का पारस्परिक विनिमय होता है। इसमें विनिमय की दर के विवेचन के अतिरिक्त उस सब लेनी देनी का विवेचन भी शामिल है जिसके द्वारा एक देश अन्य देशों का देनदार और लेनदार बन जाता है। विदेशी विनिमय में इस बात का भी विचार किया जाता है कि उस लेनी देनी का किस प्रकार भुगतान किया जाता है और उसकी विषमता का विनिमय की दर पर क्या प्रभाव पड़ता है।[2]
हमें यह विचार करना है कि कोई देश अन्य देश का किन कारणों से देनदार और लेनदार हो जाता है। जितनी रकम की वस्तुएँ बाहर से किसी देश में आती हैं उतनी रकम का वह देश अन्य देशों का देनदार हो जाता है और जितनी रकम की वस्तुएँ वह बाहर अन्य देशों को भेजता है उतनी रकम का वह लेनदार हो जाता है। विदेशी जहाजों पर माल का आयात होने से जहाजों के भाड़े के लिए भी वह अन्य देशों का देनदार हो जाता है। इसी प्रकार अपने जहाज पर माल बाहर भेजने के कारण वह अन्य देशों का लेनदार भी हो जाता है। देश की सरकार या व्यक्ति यदि अन्य देश के ऋणपत्र (सिक्यूरिटी) एवं शेयर आदि खरीदता है तो देश अन्य देशों का लेनदार हो जाता है। इसके अतिरिक्त विदेशियों से कर्ज लेने के समय भी अन्य देशों का देनदार हो जाता है। देश में कार्य करनेवाले विदेशियों की बचत और मुनाफे के कारण भी देश अन्य देशों का देनदार हो जाता है। जब देश किसी कारण से अन्य देशों को विशेष 'कर' देने के लिए बाध्य किया जाता है तो वह इस रकम के लिए अन्य देश का देनदार हो जाता है।
उपर्युक्त लेन-देन का भुगतान करने के लिए कुछ देशों में तो सोने चाँदी के सिक्के प्रचलित हैं और उनका लेन देन इन्हीं सिक्कों में कूता जाता है। यदि किसी कारण से देश को अपना कर्ज चुकाने का कोई अन्य साधन नहीं मिलता, तो उसे सोना या चाँदी भेजने के लिए बाध्य होना पड़ता है। व्यापारी लोग प्राय: भुगतान विदेशी हुंडियों से ही करते हैं क्योंकि अब सरकार द्वारा सोना चाँदी बाहर भेजने पर रोक लगा दी गई है। हुंडी एक प्रकार का आज्ञापत्र है। हुंडी लिखनेवाला किसी व्यक्ति या संस्था को यह आज्ञा देता है कि वह हुंडी में लिखी रकम नामोल्लेख किए हुए व्यक्ति को दे दे। ऐसी हुंडी को 'व्यापारी हुंडी' कहते हैं। व्यापारी हुंडी के अतिरिक्त एक और दूसरी तरह की हुंडियों का उपयोग किया जाता है जिन्हें 'रोजगारी हुंडी' कहते हैं। इसके अतिरिक्त यात्री हुंडी, सरकारी हुंडी और बैंकों द्वारा जारी की गई हुंडियों का उपयोग भी विदेशी व्यापारिक लेन देन चुकाने में होता है।
उपर्युक्त लेन देन जिस दर पर चुकाया जाता है उसे विनिमय दर कहते हैं। इस दर पर प्राय: बैंकों द्वारा विदेशी दर्शनी हुंडियाँ स्वीकारी जाती हैं और इसी दर पर किसी समय देश की लेनी देनी की विषमता का प्रभाव पड़ता है। यदि सरकार द्वारा बाहर सोना भेजने में कोई रोक टोक न हो और देश की देनी लेनी से बहुत अधिक हो तो विनिमय की दर उस सीमा तक पहुंच जाती है जब देशवासियों को हुंडी के बदले सोना भेजने में ही सुविधा होती है। इस सीमा को स्वर्ण-निर्यात-दर कहते हैं और विनिमय की दर इसके बाहर नहीं जाती। इसके विपरीत अन्य देशों से किसी देश को देनी की अपेक्षा लेनी बहुत अधिक होती है तब उस देश की विनिमय की दर उस सीमा तक पहुंच जाती है जब अन्य देशों को उस देश में हुंडियाँ भेजने के बदले सोना भेजने में सुविधा होती है। इस दर को स्वर्णआयात-दर कहते हैं। विदेशी विनिमय की दर इस सीमा से बहर नहीं जाती। इस प्रकार स्वर्ण आयात और निर्यात दर के अंदर ही किसी देश की विनिमय की दर घटती बढ़ती है।
अब हमें यह जानना है कि विनिमय की दर की अत्यधिक घटबढ़ का व्यापार या भिन्न भिन्न वर्गों के मनुष्यों पर क्या प्रभाव पड़ता है। जब विनिमय की दर स्वर्ण-आयात-दर से बाहर जाने लगती है तो देश में बाहर से माल मँगानेवालों को लाभ होता है और आयात को उत्तेजना मिलती है। साथ ही साथ देश से बाहर माल भेजनेवालों को हानि उठानी पड़ती है। देश के अंदर की वस्तुओं की कीमत कुछ घटने लगती है। उन उद्योगों को हानि होती है जिनका देश के अंदर विदेशी सस्ते माल से मुकाबला रहता है। इस प्रकार विनिमय की दर की अत्यधिक घटबढ़ से किसी को तो लाभ होता है और किसी को हानि। व्यापारियों को हजारों का नुकसान हो जाता है और कुछ को उतना ही फायदा हो जाता है। इस हानि लाभ से बचने के लिए प्रत्येक देश की सरकार का यह प्रयत्न हो जाता है कि वह विनिमय की दर को अत्यधिक घटने बढ़ने से रोके।
वर्तमान काल में संसार के अधिकांश देशों में सोने और चाँदी के प्रामाणिक सिक्के प्रचलित नहीं हैं। पत्रमुद्रा (पेपर करेंसी) का सर्वत्र ही प्रचार है। स्वर्ण के आयात और निर्यात पर सरकारों द्वारा रोक लगा दी गई है। इस कारण किसी भी देश की सरकार को अपने देश की विदेशी विनिमय की दर का नियंत्रण करना आवश्यक हो जाता है। वह हमेशा प्रयत्न करती है कि यह किसी भी समय देश की देनी लेनी से बहुत अधिक न होने पावे।
विदेशी विनिमय के नियंत्रण करने का प्रधान कारण यह है कि विनिमय दर में घटबढ़ होने के कारण अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बहुत धक्का लगता है। अत: इस घटबढ़ को रोकने के लिए अनेक राष्ट्रों ने विदेशी विनिमय समीकरण कोषों की स्थापना की। उस कोष में स्वदेश का द्रव्य और अन्य देशों का द्रव्य और सोना भी रहता है। आर्थिक संकट के समय भी कभी कभी देश की पूँजी को बाहर जाने से रोकने के लिए विदेशी विनिमय का नियंत्रण किया जाता है।
संसार के प्रधान देशों ने मिलकर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की स्थापना की है। इस कोष की स्थापना से देशों के बीच वित्तीय मामलों में अधिक निकट सहयोग का युगारंभ हुआ। इस कोष का प्रधान कार्य विदेशी विनिमय में अस्थिरता कम करने में सदस्य देशों की सहायता करना है। चालू व्यापार के लेन देन में व्यापकता लाने में भी यह कोष सहायक होता है। इसके अतिरिक्त अंतरराष्ट्रीय लेन देन को चुकता करने में भी यह सहायक होता है।
भारतीय विदेशी विनिमय का इतिहास अपने ही ढंग का है। सन् १८९३ में भारत सरकार ने इंग्लैंड के सिक्के शिलिंग पेंस में रुपए की एक कानूनन दर निर्धारित की थी वह दर "१ रु. = १ शिलिंग ४ पेंस" थी। भारत सरकार इस दर को सन् १९१७ तक बनाए रखने में समर्थ रही। इसके बाद विनिमय की दर का बढ़ना प्रारंभ हुआ। विनिमय की दर के बढ़ने का प्रधान कारण चाँदी की कीमत में वृद्धि थी। चाँदी की कीमत इतनी बढ़ गई थी कि भारत का चाँदी का रुपया प्रामाणिक सिक्का हो गया। सन् १९१८ में यह दर १ शि. ६ पें. हो गई। मई और अगस्त, सन् १९१९ में यह दर क्रमश: १ शि. ८ पें. और १ शि. १० पें. हो गई। चाँदी की कीमत फिर भी बढ़ती ही गई। इसी वर्ष विनिमय की दर सितंबर में २ शिलिंग, नवंबर में २ शि. २ पें. तथा दिसंबर में २ शि. ४ पें. तक बढ़ गई।[3]
सन् १९२० के फरवरी महीने के प्रथम सप्ताह में करेंसी कमेटी की रिपोर्ट प्रकाशित हुई। कमेटी ने यह सिफारिश की कि भारतीय विनिमय की कानूनन दर बढ़ा दी जाए पर कमेटी ने ऊँची दर से होनेवाली हानियों की तरफ पूरा ध्यान नहीं दिया। इस दर से भारत के निर्यात व्यापार और उद्योग धंधों को भारी क्षति पहुंचने की संभावना थी परंतु उसने इसकी परवाह न की। कुछ समय बाद विनिमय की दर घटना आरंभ हुआ और वह अप्रैल सन् १९२० तक २ शि. पौने चार पेंस तक गिर गई। विनिमय की दर गिरती ही गई और १९२० के अंत तक वह गिरते गिरते १ शि. १० पें. तक आ गई। इस बीच भारत सरकार को कई लाख रुपयों की उल्टी हुंडिया एवं कई लाख रुपए का सोना घाटे पर बेचना पड़ा। उल्टी हुंडियों को बेचने से भारत सरकार को करीब ३२ करोड़ की हानि हुई और घाटे पर सोना बेचने से करीब ८ करोड़ की हानि हुई। इस प्रकार भारत को लगभग ४० करोड़ रुपयों की हानि हुई।
कई करोड़ रुपयों की हानि उठाने के बाद सितंबर, सन् १९२० से भारत सरकार ने विनिमय संबंधी बातों में किसी भी प्रकार से हस्तक्षेप न करने की नीति अपनाई। इससे विनिमय दर की अस्थिरता और भी बढ़ती गई। सन् १९२१ से १९२५ तक यह दर १ शि. ६ पें. एवं १ शि. ३ पें. के बीच घटती बढ़ती रही। इस अस्थिरता के कारण भी देश को बहुत नुकसान हुआ।
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