सुश्रुत संहिता
शल्यचिकित्सा पर प्रथम ग्रंथ / From Wikipedia, the free encyclopedia
सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद एवं शल्यचिकित्सा का प्राचीन संस्कृत(भारतीय) ग्रन्थ है। सुश्रुतसंहिता आयुर्वेद के तीन मूलभूत ग्रन्थों में से एक है। आठवीं शताब्दी में इस ग्रन्थ का अरबी भाषा में 'किताब-ए-सुस्रुद' नाम से अनुवाद हुआ था।
सुश्रुतसंहिता बृहद्त्रयी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है (वृहत्त्रयी = चरकसंहिता + सुश्रुतसंहिता +अष्टाङ्गहृदयम्) । यह संहिता आयुर्वेद साहित्य में शल्यतन्त्र की वृहद साहित्य मानी जाती है। धन्वन्तरि द्वारा उपदिष्ट एवं उनके शिष्य सुश्रुत द्वारा प्रणीत ग्रन्थ आयुर्वेदजगत में 'सुश्रुतसंहिता' के नाम से विख्यात हुआ। कालक्रम में ५वीं शताब्दी में नागार्जुन द्वारा इस संहिता में उत्तरतन्त्र जोड़ने के साथ-साथ सम्पूर्ण संहिता का प्रतिसंस्कार भी किया गया। इसके बाद १०वीं सदी में तीसटपुत्र चन्द्रट ने जेज्जट की व्याख्या के आधार पर इसकी पाठशुद्धि की। उनका यह योगदान भी प्रतिसंस्कार जैसा ही था। इसके रचयिता सुश्रुत हैं जो छठी शताब्दी ईसापूर्व काशी में जन्मे थे।
यद्यपि वर्तमानकाल में उपलब्ध सुश्रुतसंहिता में अष्टाङ्ग आयुर्वेद का पर्याप्त वर्णन मिलता है तथापि शल्यचिकित्सा को आधार मानकर निर्मित होने के कारण इसे शल्यचिकित्सा के प्राचीनतम एवं आकर ग्रन्थ के रूप में मान्यता प्राप्त हुई है। आधुनिक शल्यचिकित्सक भी सुश्रुत को शल्यचिकित्सा का जनक मानते हैं।
सुश्रुतसंहिता मूलतः ५ स्थानों और १२० अध्यायों (सूत्रस्थान-४६, निदानस्थान-१६, शारीरस्थान-१०, चिकित्सास्थान-४० एवं कल्पस्थान-८ अध्यायों) में विभाजित है। नागार्जुनकृत उत्तरतन्त्र के ६६ अध्यायों को भी इसमें जोड़ देने पर वर्तमान में इस संहिता में कुल १८६ अध्याय मिलते हैं। इसमें ११२० रोगों, ७०० औषधीय पौधों, खनिज-स्रोतों पर आधारित ६४ प्रक्रियाओं, जन्तु-स्रोतों पर आधारित ५७ प्रक्रियाओं, तथा आठ प्रकार की शल्य क्रियाओं का उल्लेख है।
इस संहिता के सूत्रस्थान में आयुर्वेद के मौलिक सिद्धान्त जैसे दोष-धातु-मल, ऋतुचर्या, हिताहित, अरिष्ट, रस-गुण-वीर्य-विपाक, आहार, औषध-द्रव्य, वमन-विरेचन आदि के साथ-साथ शल्यचिकित्सा के मूलभूत सिद्धान्तों यथा अष्टविध शल्यकर्म, यन्त्र, शस्त्रानुशस्त्र, क्षारकर्म, अग्निकर्म, जलौकावचारण, कर्णव्यध, कर्णबन्ध, आम और पक्व व्रण, व्रणालेपन, व्रणबन्ध, षट् क्रियाकाल, शल्यापनयन आदि का भी अतुलनीय वर्णन मिलता है। तदुपरान्त निदानस्थान में शल्यशास्त्र के कतिपय प्रमुख रोगों का निदानपञ्चकात्मक वर्णन एवं शारीरस्थान में दार्शनिक विषयों, कौमारभृत्य के मौलिक सिद्धान्तों, मानव शरीरक्रिया और शरीररचना का वर्णन है। इसी स्थान में मर्मशारीर की अवस्थिति सुश्रुत के शारीर विषयक ज्ञान का उत्कृष्टतम स्वरूप है, आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के लिए भी यह कुतुहल का विषय है। अधुना इस विषय पर पुनः अनुसन्धान अपेक्षित है। आयुर्वेदीय साहित्य में शरीररचना (एनाटॉमी) का जितना विशद विवेचन सुश्रुतसंहिता में मिलता है, उतना किसी अन्य ग्रन्थ में नहीं है। इसी कारण आयुर्वेदवाङ्मय में 'शारीरे सुश्रुतः श्रेष्ठः' (शरीररचना की व्याख्या में सुश्रुत श्रेष्ठ हैं) उक्ति प्रसिद्ध है।
चिकित्सास्थान में शल्यतन्त्रोक्त रोगों की चिकित्सा के साथ-साथ, वाजीकरण, रसायन एवं पञ्चकर्म आदि चिकित्सा विधाओं का वर्णन तथा कल्पस्थान में अगदतन्त्र का विस्तृत वर्णन है। उत्तरतन्त्र में शालाक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या, स्वस्थवृत्त, तन्त्रयुक्ति, रस और दोष विषयक मौलिक सिद्धान्तों का वर्णन है। संक्षेप में सुश्रुतसंहिता में न केवल शल्यतन्त्र अपितु आयुर्वेद के अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का विशद विश्लेषण किया गया है जिसके परिणामस्वरूप सुश्रुतसंहिता को बृहत्त्रयी में समादृत स्थान प्राप्त है।