Loading AI tools
विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
भारत का समुद्रिक इतिहास ईसापूर्व तीसरी सहस्राब्दी से शुरू होता है जब सिन्धु घाटी के लोगों ने मेसोपोटामिया के साथ समुद्री व्यापार आरम्भ किया।[1]
भारत का समुद्री इतिहास, पश्चिमी सभ्यता के जन्म से पहले का है। माना जाता है कि विश्व का पहला ज्वारीय बंदरगाह लोथल में हड़प्पा सभ्यता के दौरान 2300 ई० पू० के आसपास बनाया गया था, जो वर्तमान में गुजरात तट पर मांगरोल बंदरगाह के पास है। ऋग्वेद, जो 2000 ई. पू. के आसपास लिखा गया माना जाता है, में जहाजों द्वारा इस्तेमाल किए गए सागर के मार्गों के ज्ञान का श्रेय वरुण देवता को जाता है। इसके अलावा ऋग्वेद में नौसेना के अभियानों का वर्णन है, जो अन्य राज्यों को नियंत्रण में करने के लिए सौ चप्पुओं वाले जहाज ( शतरित्र / शतारित्र ) का इस्तेमाल करते थे। ऋग्वेद में भी यह कहा गया है कि अश्विनों ने शतारित्र के साथ समुद्र में भुज्यु को बचाया था (अनारम्भणे तदवीरयेथामनास्थाने अग्रभणे समुद्रे । यदश्विना ऊहथुर्भुज्युमस्तं शतारित्रां नावमातस्थिवांसम् ॥५॥) । इसमें 'प्ल॒वम्' का एक संदर्भ है, जो तूफान की परिस्थितियों में एक पोत को स्थिरता देने वाले पंख हैं।[2] शायद ये आधुनिक स्टेबलाइजर्स (Stablisers) के अग्रदूत हो सकते हैं। इसी तरह, अथर्ववेद में उन नौकाओं का उल्लेख है जो विशाल, अच्छी तरह से निर्मित और आरामदायक थीं। ये सब इंगित करते हैं कि वैदिक काल में समुद्र के माध्यम से व्यापार गतिविधियां बहुत आम थीं।
खंभात की खाड़ी से भारतीयों ने 1200 ईसा पूर्व में यमन के साथ व्यापार संबंध स्थापित किए। मिस्र के फिरौन की कब्रों (Pharaohs' Tombs) में काली मिर्च की उपस्थिति इंगित करती है कि पश्चिमी एशिया और अफ्रीका के साथ सक्रिय भारतीय व्यापार था। भारतीयों ने दक्षिण पूर्व एशिया के साथ व्यापार गतिविधियों की शुरुआत 5-4 शताब्दी ईसा पूर्व में की।
कलिंग के समुद्र तटीय क्षेत्रों, तटीय ओडिशा में प्रमुख व्यापारिक बंदरगाह थे, जिनके लिए बोइता नावों[4] का उपयोग किया जाता था। प्राचीन साधब (समुद्री व्यापारी) व्यापार के लिए कलिंग से श्रीलंका और दक्षिण-पूर्व एशिया के दूर-दराज के क्षेत्रों में जाते थे, जिसमें भारतीय मुख्य भूमि और द्वीपीय दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र सम्मिलित थे।[5]
भारतीय पुराणों में महासागर, समुद्र और नदियों से जुड़ी हुई ऐसी कई घटनाएँ मिलती हैं जिससे इस बात का पता चलता है कि मानव को समुद्र और महासागर से जलीय संपदा के रूप में काफ़ी आर्थिक सहायता प्राप्त हुई है। भारतीय साहित्य, कला, मूर्तिकला, चित्रकला और पुरातत्व-विज्ञान से प्राप्त कई साक्ष्यों से भारत की समुद्री परंपराओं के अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त होता है। भारत के समुद्री इतिहास का अध्ययन करने से इस बात का पता चलता है कि प्राचीन काल से लेकर कई शताब्दियों तक हिंद महासागर पर भारतीय उपमहाद्वीप का वर्चस्व कायम रहा था। इसके बाद व्यापार के लिए भारतीय समुद्री रास्तों का प्रयोग प्रारंभ हो गया थाI इस प्रकार 16 वीं शताब्दी तक का काल देशों के मध्य समुद्र के रास्ते होने वाले व्यापार, संस्कृति और परंपरागत लेन-देन का गवाह रहा है।
'मत्स्य यंत्र' नामक एक दिक्सूचक (Compass) का चौथी और पांचवीं ईस्वी में नौवहन के लिए इस्तेमाल में लाया जाता था। भारतीय साम्राज्यों पर समुद्र के प्रभाव समय बीतने के साथ निरंतर बढ़ते रहे। मौर्य काल में बड़े पैमाने पर समुद्री व्यापार गतिविधियाँ हुईं जिनसे अनेक राष्ट्रों से भारत की निकटता बढ़ी। मौर्य साम्राज्य के दौरान, भारतीयों ने पहले ही दक्षिण पूर्व एशिया में थाईलैंड और मलेशिया प्रायद्वीप से कंबोडिया और दक्षिणी वियतनाम तक व्यापारिक संबंध बना लिए थे। मौर्य वंश की समुद्री गतिविधियों के चलते भारत से इंडोनेशिया और आस-पास के द्वीपों पर जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस काल में भारत पर सिकंदर ने आक्रमण किया। उत्तर-पश्चिम भारत सिकंदर महान के प्रभाव के तहत आया, जिसने पाटला पर एक बंदरगाह का निर्माण किया, जहां अरब सागर में प्रवेश करने से पहले सिंधु नदी दो शाखाओं में बंट जाती है। इतिहास साक्षी है कि भारतीय जहाजों ने जावा और सुमात्रा नामक दूर देशों में कारोबार किया। उपलब्ध साक्ष्य यह भी इंगित करते हैं कि वे देश भी प्रशांत महासागर और हिंद महासागर में अन्य देशों के साथ व्यापार कर रहे थे। मौर्य, सातवाहन, चोल, विजयनगर, कलिंग, मराठा और मुगल साम्राज्य की नौसेनाएँ शक्तिशाली नौसेनाओं में थीं। चोलों ने विदेशी व्यापार और समुद्री गतिविधियों में उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। विदेशों में चीन और दक्षिण पूर्व एशिया में अपना प्रभाव बढ़ाया। गुप्त काल में अन्य देशों के साथ भारत का व्यापार बड़े पैमाने पर हो रहा था। इस काल में खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुई। इतिहास में महान खगोलविद के रूप में प्रसिद्ध आर्यभट्ट और वराहमिहिर ने खगोलीय पिंडों की सही स्थिति चित्रित की। सितारों की स्थिति से किसी जलयान की स्थिति की गणना की एक विधि विकसित की।
भारतीय समुद्री शक्ति का पतन १३वीं शताब्दी में शुरू हुआ। जब पुर्तगाली भारत में आए तब भारतीय समुद्री शक्ति लगभग गायब हो गई थी। बाद में व्यापार के लिए लाइसेंस की एक प्रणाली लगाई गई और इस प्रणाली को सभी एशियाई जहाजों पर लागू किया गया। पूरे हिंद महासागर पर नियंत्रण रखने की रणनीति बनाने वाले पुर्तगाली व्यापारियों के आगमन से शांतिपूर्ण ढंग से हो रहे समुद्री व्यापार में बाधा उत्पन्न हुई। कोड़िकोड के राजा मानविक्रमन ने 1503 में व्यापारिक विशेषाधिकारों को प्राप्त करने के लिये पुर्तगाली प्रयासों के जवाब में नौसैनिक निर्माण शुरू किया। उन्होंने मोहम्मद कुंजली को अपने बेड़े के एडमिरल के रूप में नियुक्त किया। उन्होंने पुर्तगालियों द्वारा किये गये विभिन्न कुचेष्टाओं को सफलतापूर्वक विफल कर दिया। 1509 में दीव में द्वितीय नियुक्ति से भारतीय समुद्रों पर पुर्तगाली नियंत्रण की समाप्ति की गई और अगले 400 वर्षों के लिए भारतीय जल पर यूरोपीय नियंत्रण की नींव रखी। भारतीय समुद्री हितों में सत्रहवीं सदी के अंत में एक उल्लेखनीय पुनरुत्थान देखा गया, जब मुगल पश्चिम तट पर एक प्रमुख शक्ति बन गए। इसके बाद मराठा साम्राज्य की स्थापना छत्रपति शिवाजी महाराज ने 1674 में की थी। इसकी स्थापना से ही मराठों ने जहाजों पर लगी तोपों के साथ एक नौसैनिक बल की स्थापना की। आगे चलकर इन्हें सिधोजी गुजर और बाद में कान्होजी आंग्रे ने एडमिरल के रूप में नियंत्रित किया। 1729 में आंग्रे की मृत्यु से खाड़ी में एक रिक्ति आ गयी, परिणामस्वरूप समुद्री शक्ति पर मराठा नेतृत्व में गिरावट आई।
इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 1600 ई० में हुई थी। 1612 में, कैप्टन थॉमस बेस्ट (Thomas Best) ने स्वाली (Swally) की लड़ाई में पुर्तगालियों का सामना किया और उन्हें हराया। इस मुठभेड़ के साथ-साथ अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी को एक बंदरगाह बनाने और वाणिज्य की रक्षा के लिए गुजरात के सूरत के पास एक गांव में एक छोटी नौसेना की स्थापना करने के लिए प्रेरित किया। अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस नौसेना को "ईस्ट इंडिया कंपनी के मरीन" (Honourable East India Company's Marine) का नाम दिया। युद्धक जहाजों का पहला स्क्वाड्रन 5 सितम्बर 1612 को पहुंचा, जिसे तब ईस्ट इंडिया कंपनी की समुद्री सेना द्वारा बुलाया गया था। 1662 में बॉम्बे अंग्रेजों को सौंप दिया गया था। 1686 तक, ब्रिटिश वाणिज्य मुख्य रूप से बॉम्बे में स्थानांतरित हो गया और इस सेना का नाम "बॉम्बे मेरीन" कर दिया गया। इस सेना ने अद्वितीय सेवा प्रदान की और न केवल पुर्तगाली बल्कि डच और फ्रेंच के साथ संघर्ष किया, और विभिन्न देशों में घुसपैठ करने वाले समुद्री डाकुओं से युद्ध किया। इसके बाद बॉम्बे मेरीन, "महारानी की भारतीय नौसेना" (Her Majesty's Indian Marine) बन गया। इस समय, इस समुद्री सेना के दो विभाजन किए गए। विभिन्न अभियानों के दौरान प्रदान की गई सेवाओं को मान्यता देते हुए 1892 में इसका नाम "रॉयल इंडियन मेरीन" कर दिया गया। प्रथम विश्वयुद्ध के समय रॉयल इंडियन मेरीन को समुद्री सर्वेक्षण, लाइट हाउसों के रख-रखाव और सैनिकों को लाने ले-जाने जैसे कार्य सौंपे गए थेI कमीशन किए गए पहले भारतीय सूबेदार लेफ्टिनेंट डी० एन० मुखर्जी थे जो 1928 में एक इंजीनियर अधिकारी के रूप में रॉयल इंडियन मरीन में शामिल हुए थे।
1934 में रॉयल इंडियन मरीन को "रॉयल इंडियन नेवी" नाम से पुनः संगठित किया गया। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय रॉयल इंडियन नेवी में आठ युद्धपोत शामिल थे। इस युद्ध के अंत तक, इसकी शक्ति 117 लड़ाकू जहाजों और 30,000 कर्मियों तक बढ़ गई थी।
सन १९४७ में भारत के स्वतंत्रत होने पर रॉयल इंडियन नेवी में 11,000 अधिकारी और कार्मिकों के साथ तटीय गश्ती के लिए 32 उपयुक्त पुराने जहाज ही शामिल थे। 1947 में ब्रिटिश भारत का विभाजन भी हुआ था। इस कारण रॉयल इंडियन नेवी को भारत और पाकिस्तान के बीच विभाजित किया गया था। वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारियों ने दोनों नौसेनाओं के साथ काम करना जारी रखा, और जहाजों को दोनों देशों के बीच विभाजित किया गया। 26 जनवरी 1950 को भारत के गणतंत्र बनने के बाद 'रॉयल इंडियन नेवी' से 'रॉयल' शब्द को हटा दिया गया और इसका नाम 'भारतीय नौसेना' कर दिया गया। इसके जहाजों को "भारतीय नौसेना के जहाज" (INS) के रूप में नया नामकरण किया गया।
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.