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शास्त्रीय संगीत

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शास्त्रीय संगीत
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भारतीय शास्त्रीय संगीत या मार्ग, भारतीय संगीत का अभिन्न अंग है। शास्त्रीय संगीत को ही ‘क्लासिकल म्यूजिक भी कहते हैं। शास्त्रीय गायन सुर-प्रधान होता है, शब्द-प्रधान नहीं। इसमें महत्व सुर का होता है (उसके चढ़ाव-उतार का, शब्द और अर्थ का नहीं)। इसको जहाँ शास्त्रीय संगीत-ध्वनि विषयक साधना के अभ्यस्त कान ही समझ सकते हैं, अनभ्यस्त कान भी शब्दों का अर्थ जानने मात्र से देशी गानों या लोकगीत का सुख ले सकते हैं। इससे अनेक लोग स्वाभाविक ही ऊब भी जाते हैं पर इसके ऊबने का कारण उस संगीतज्ञ की कमजोरी नहीं, लोगों में जानकारी की कमी है।

सामान्य तथ्य शास्त्रीय संगीत ...

सामवेद में संगीत के बारे में गहराई से चर्चा की गई है। भारतीय शास्त्रीय संगीत गहरे तक आध्यात्मिकता से प्रभावित रहा है, इसलिए इसकी शुरुआत मनुष्य जीवन के अंतिम लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति के साधन के रूप में हुई। [1]

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इतिहास

सारांश
परिप्रेक्ष्य

भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा भरत मुनि के नाट्यशास्त्र और उससे पहले सामवेद के गायन तक जाती है। भरत मुनि द्वारा रचित भरत नाट्य शास्त्र, भारतीय संगीत के इतिहास का प्रथम लिखित प्रमाण माना जाता है। इसकी रचना के समय के बारे में कई मतभेद हैं। आज के भारतीय शास्त्रीय संगीत के कई पहलुओं का उल्लेख इस प्राचीन ग्रंथ में मिलता है। भरत मुनि के नाटयशास्त्र के बाद मतंग मुनि की बृहद्देशी और शारंगदेव रचित संगीत रत्नाकर, ऐतिहासिक दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। बारहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में लिखे सात अध्यायों वाले इस ग्रंथ में संगीत व नृत्य का विस्तार से वर्णन है।

संगीत रत्नाकर में कई तालों का उल्लेख है व इस ग्रंथ से पता चलता है कि प्राचीन भारतीय पारंपरिक संगीत में बदलाव आने शुरू हो चुके थे व संगीत पहले से उदार होने लगा था मगर मूल तत्व एक ही रहे। 11वीं और 12वीं शताब्दी में मुस्लिम सभ्यता के प्रसार ने उत्तर भारतीय संगीत की दिशा को नया आयाम दिया। राजदरबार संगीत के प्रमुख संरक्षक बने और जहां अनेक शासकों ने प्राचीन भारतीय संगीत की समृद्ध परंपरा को प्रोत्साहन दिया वहीं अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार उन्होंने इसमें अनेक परिवर्तन भी किए। इसी समय कुछ नई शैलियाँ भी प्रचलन में आईं जैसे खयाल, गज़ल आदि और भारतीय संगीत का कई नये वाद्यों से भी परिचय हुआ जैसे सरोद, सितार इत्यादि।

भारतीय संगीत के आधुनिक मनीषी स्थापित कर चुके हैं कि वैदिक काल से आरम्भ हुई भारतीय वाद्यों की यात्रा क्रमश: एक के बाद दूसरी विशेषता से इन यंत्रों को सँवारती गयी। एक-तंत्री वीणा ही त्रितंत्री बनी और सारिका युक्त होकर मध्य-काल के पूर्व किन्नरी वीणा के नाम से प्रसिद्ध हुई। मध्यकाल में यह यंत्र जंत्र कहलाने लगा जो बंगाल के कारीगरों द्वारा आज भी इस नाम से पुकारा जाता है। भारत में पहुँचे मुस्लिम संगीतकार तीन तार वाली वीणा को सह (तीन) + तार = सहतार या सितार कहने लगे। इसी प्रकार सप्त तंत्री अथवा चित्रा-वीणा, सरोद कहलाने लगी। उत्तर भारत में मुगल राज्य ज्यादा फैला हुआ था जिस कारण उत्तर भारतीय संगीत पर मुसलिम संस्कृति व इस्लाम का प्रभाव ज्यादा महसूस किया गया। जबकि दक्षिण भारत में प्रचलित संगीत किसी प्रकार के मुस्लिम प्रभाव से अछूता रहा।

बाद में सूफी आन्दोलन ने भी भारतीय संगीत पर अपना प्रभाव जमाया। आगे चलकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई नई पद्धतियों व घरानों का जन्म हुआ। ब्रिटिश शासनकाल के दौरान कई नये वाद्य प्रचलन में आए पाश्चात्य संगीत से भी भारतीय संगीत का परिचय हुआ। आम जनता में लोकप्रिय आज का वाद्य हारमोनियम, उसी समय प्रचलन में आया। इस तरह भारतीय संगीत के उत्थान व उसमें परिवर्तन लाने में हर युग का अपना महत्वपूर्ण योगदान रहा।

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भारतीय वाद्य यंत्र

आमतौर पर हिन्दुस्तानी संगीत में इस्तेमाल किए गए उपकरणों में सितार, सरोद, सुरबहार, ईसराज, वीणा, तनपुरा, बन्सुरी, शहनाई, सारंगी, वायलिन, संतूर, पखवज और तबला शामिल हैं। आमतौर पर कर्नाटिक संगीत में इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों में वीना, वीनू, गोत्वादम, हार्मोनियम, मृदंगम, कंजिर, घमत, नादाश्वरम और वायलिन शामिल हैं।

भारतीय शास्त्रीय संगीत पद्धतियां

भारतीय शास्त्रीय संगीत की दो प्रमुख पद्धतियां हैं- हिन्दुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत[2]

हिन्दुस्तानी संगीत

यह शास्त्रीय संगीत, उत्तर भारत में प्रचलित हुआ।

हिन्दुस्तानी संगीत के प्रमुख रागों की सूची

कर्नाटक संगीत

यह दक्षिण भारत में प्रचलित हुआ। हिन्दुस्तानी संगीत मुगल बादशाहों की छत्रछाया में विकसित हुआ और कर्नाटक संगीत दक्षिण के मन्दिरों में। इसी कारण दक्षिण भारतीय कृतियों में भक्ति रस अधिक मिलता है और हिन्दुस्तानी संगीत में शृंगार रस।

कर्नाटक संगीत के प्रमुख रागों की सूची

राग हंसध्वनि

चित्रवीथिका

सन्दर्भ

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

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