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किसी व्यक्ति द्वार अपने बारे में लिखी गयी पुस्तक विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
साहित्य में आत्मकथा किसी लेखक द्वारा अपने ही जीवन का वर्णन करने वाली कथा को कहते हैं। यह संस्मरण से मिलती-जुलती लेकिन भिन्न है। जहाँ संस्मरण में लेखक अपने आसपास के समाज, परिस्थितियों व अन्य घटनाओं के बारे में लिखता हैं वहाँ आत्मकथा में केन्द्र लेखक स्वयं होता है।[1] आत्मकथा हमेशा व्यक्तिपरक होती हैं, यानि वह लेखक के दृष्टिकोण से लिखी जाती हैं। इनमें लेखक अनजाने में या जानबूझ कर अपने जीवन के महत्वपूर्ण तथ्य छुपा सकता है या फिर कुछ मात्रा में असत्य वर्णन भी कर सकता है।[2] एक ओर आत्मकथा से व्यक्ति के जीवन और परिस्थितियों के बारे पढ़कर पाठकों को जानकारी व मनोरंजन मिलता है, तो दूसरी ओर इतिहासकार आत्मकथाओं की जानकारी को स्वयं में मान्य नहीं ठहराते और सदैव अन्य स्रोतों से उनमें कही गई बातों की पुष्टी करने का प्रयास करते हैं।[3]
हिन्दी में सत्रहवीं शताब्दी में रचित बनारसीदास की अर्द्धकथानक(1641ई०) अपनी बेबाकी में चैंकाने वाली आत्मकथा है। यह ब्रजभाषा में लिखी गयी पद्यात्मक आत्मकथा है। बनारसीदास की अर्द्धकथानक के बाद एक लम्बा कालखण्ड अभिव्यक्ति की दृष्टि से मौन मिलता है। इस लम्बे मौन को स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सन् 1860 में अपने ‘आत्मचरित’ से तोड़ा है। सरस्वती जी का स्वकथित जीवन वृत्तान्त अत्यन्त संक्षेप में भी अपने वर्तमान तक पहुंचने की कथा का निर्वाह निजी विशिष्ट चेतना के साथ करता है। सीताराम सूबेदार द्वारा रचित ‘सिपाही से सूबेदार तक’ जैसी आत्मकथा अपने अंग्रेजी अनुवादों के अनेक संस्करणों में उपलब्ध है। परन्तु इस आत्मकथा का अपने मौलिक रूप हिन्दी में नहीं उपलब्ध होना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है।
भारतेन्दु के छोटे आत्मकथात्मक लेख "एक कहानी : कुछ आप बीती कुछ जग बीती" से प्रारम्भ होती यात्रा अपने द्वितीय चरण में आत्मकथाओं की दृष्टि से अनेक छोटे-बड़े प्रयोग करती है। इस छोटे-से लेख में भारतेन्दु ने अपने निज एवं अपने परिवेश को अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि के साथ उकेरा है। भारतेंदु जी के समकालीन पं. अंबिकादत्त व्यास ने 'निजवृत्तांत' नामक आत्मकथा लिखी। इसके पश्चात् सत्यानंद अग्रिहोत्री कृत 'मुझ में देव-जीवन का विकास', स्वामी श्रद्धानंद कृत 'कल्याण- पथ का पथिक' आदि प्रकाश में आई। इस युग की भाषा शिथिल है, पर तथ्यपरक स्पष्टता उत्कृष्ट हैं।
इस चरण में कई महत्वपूर्ण आत्मकथाएँ प्रकाशित हुई जिनमें राधाचरण गोस्वामी की ‘राधाचरण गोस्वामी का जीवन चरित्र’; इस छोटी सी कृति में वैयक्तिक संदर्भों से ज्यादा तत्कालीन साहित्य और समाज की चर्चा का निर्वाह किया गया है। भाई परमानन्द की आप बीती ("मेरी राम कहानी") का प्रकाशन वर्ष 1922 ई. है। स्पष्टवादिता, सच्चाई के लिए प्रसिद्ध, वैदिक धर्म के सच्चे भक्त परमानन्द की आपबीती का अपनी तत्कालीन राजनीतिक स्थिति में एक विशेष राजनीतिक महत्त्व है। गिरफ्तारी का पहला दिन, हवालात की अंधेरी कोठड़ी के अन्दर, न्याय की निराशा जैसे शीर्षकों में आपबीती विभक्त है जो कहीं न कहीं ‘डायरी’ के समीप लगती है।
1924 में प्रकाशित स्वामी श्रद्धानन्द की "कल्याण मार्ग का पथिक" हिन्दी की वह प्रारम्भिक आत्मकथा है जो आत्मकथात्मक शिल्प की सम्पूर्ण गोलाई और अनिवार्य चेतना के साथ है।
रामप्रसाद बिस्मिल की जेल में फांसी के दो दिन पूर्व लिखी हुई ‘आत्मकथा’ एवं लाला लाजपत राय की आत्मकथा का प्रथम भाग कुछ ऐसी महत्वपूर्ण लघु आत्मकथाएँ जिन्हें अभी तक वो सम्मान नहीं मिला जिसकी वे अधिकारी थीं।
सन् 1932 में मुंशी प्रेमचंद ने 'हंस' का एक विशेष आत्मकथा-अंक सम्पादित करके, अपने यहाँ आत्मकथा विधा के विकास की एक बड़ी पहल की थी।
1941 में प्रसिद्ध साहित्यकार श्यामसुन्दर दास की आत्मकथा ‘मेरी आत्म कहानी’ प्रकाशित हुई। सम्पूर्ण कृति में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना, विकास, गति, तत्कालीन हिन्दी और हिन्दी की स्थिति की चर्चाएँ हैं। एक उच्चकोटि के भाषाविद् की आत्मकथा होने के बावजूद भी आत्मकथा में भाषा-शैली का या अभिव्यक्ति का माधुर्य नहीं है। पत्रों के उद्धरण, अंग्रेजी दस्तावेज, आँकड़ों का विस्तृत वर्णन लेखक के ऐतिहासिक महत्त्व को प्रमाणित तो करते हैं लेकिन आत्मकथा की सहज निर्बन्ध व्यक्तिक गति को खंडित करते हैं।
1946 में ‘मेरी जीवन यात्रा’ (भाग 1) का प्रकाशन हिन्दी की एक विशिष्ट घटना है। आत्मकथाकार राहुल सांकृत्यायन ‘प्राक्कथन’ में ही जीवन यात्राओं के महत्त्व को निरूपित करते हैं।
1947 में प्रकाशित बाबू राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ में जीवन की दीर्घकालीन घटनाओं का अंकन एवं स्वचित्रण बिना किसी लाल-बाग के तटस्थता के साथ आत्मकथा में सम्पादित है। लेखक के बचपन के तत्कालीन सामाजिक रीति-रिवाजों का, संकुचित प्रथाओं से होने वाली हानियों का, तत्कालीन गँवई जीवन का, धार्मिक व्रतों, उत्सवों और त्यौहारों का, शिक्षा की स्थितियों का सही हूबहू चित्र राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ में अंकित है। तत्कालीन हिन्दू-मुसलमानों के बीच की असाम्प्रदायिक सहज सामान्य सामाजिक समन्वय की भावना का चित्र भी आत्मकथा अनायास ही उकेरती है। सरदार बल्लभ भाई पटेल ‘आत्मकथा’ को मात्र कृति ही नहीं इतिहास मानते हैं- ‘‘प्रायः पिछले 25 वर्षों से हमारा देश किस स्थिति को पहुँच गया है इसका सजीव और एक पवित्र देशभक्त के हृदय में रंगा हुआ इतिहास पाठकों को इस आत्मकथा में मिलेगा।’’
1951 में प्रकाशित स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की ‘स्वतंत्रता की खोज में, अर्थात् मेरी आत्मकथा’ हिन्दी की अत्यन्त महत्वपूर्ण आत्मकथा है। स्वतंत्रता की खोज में भटकते पथिक की यह कथा मानवता से जुड़ी आत्मा की छटपटाहट एवं तत्कालीन भारतीय राजनीतिक स्थितियों से सम्बद्ध है।
यशपाल की आत्मकथा ‘सिंहावलोकन’ का प्रकाशन लखनऊ से तीन खण्डों में हुआ है। प्रथम खण्ड में लेखक के बाल्य, शिक्षा तथा क्रान्तिकारी दल के कार्यों का उल्लेख होने से वैयक्तिक जीवन पर प्रचुर प्रकाश पड़ा है। कृति में आन्दोलन की घटनाओं की रहस्यात्मकता और रोमांचता के साथ-साथ अपनी विशिष्ट क्रान्तिकारी विचारधारा के महत्त्व को लेखक ने निरूपित किया है। व्यक्ति, परिवार और राजनीतिक दासता की स्थितियाँ और उनमें पनपती और विकसित होती क्रान्तिकारी चेतना को एकसाथ अंकित करती इस आत्मकथा (सशस्त्र क्रान्ति की कहानी) की शैली विवेचनात्मक है। जो कहीं न कहीं उनके उपन्यासों की भाँति रोचक और मर्मस्पर्शी है।
सन् 1956 ई. में जानकी देवी बजाज की आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ प्रकाशित हुई। लेखिका के अशिक्षित होने के कारण ऋषभदेव रांका ने इसे लिपिबद्ध किया। यह कौतूहल का विषय है कि इस कृति के कारण हिन्दी की प्रथम महिला आत्मकथाकार होने का गौरव एक अशिक्षित महिला को मिला। पिता की पुण्य स्मृति के साथ आत्मकथा का प्रारम्भ होता है। यह कृति तत्कालीन हिन्दू और मुसलमानों के आपसी सद्भाव को अंकित करती युगीन प्रवृत्तियों को चित्रित करती है। राजस्थानी शब्दों का अत्यन्त सहजता के साथ हिन्दी में घुलामिला स्वरूप आत्मकथा को असाधारण बनाता है।
हिन्दी के प्रसिद्ध नाटककार और हिन्दी सेवी सेठ गोविन्द दास की आत्मकथा के तीन भाग ‘प्रयत्न, 'प्रत्याशा' और 'नियतारित’ उपशीर्षकों सहित ‘आत्म-निरीक्षण’ शीर्षक से 1957 ई. में प्रकाशित हुए। तथ्यात्मकता, विश्लेषणात्मकता, निर्भीकता एवं स्पष्टवादिता आदि गुणों के कारण यह आत्मकथा और महत्वपूर्ण हो जाती है। लेखक ने अपने किये प्रेम और पिता की वेश्यानुसक्ति तक को छुपाया नहीं है। लेखक का सजग व्यक्तित्व उसकी आत्मकथा में सर्वत्र मुखर है। गांधी तथा नेहरू तक की आलोचना करने में उसने झिझक नहीं दिखाई। साहित्यकार सेठ गोविन्ददास की आत्मकथा की भाषा शैली की सृजनात्मकता इस विशिष्ट विधा को एक और आयाम देती है।
छठे दशक के प्रारम्भ में ही पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ प्रकाशित हुई। दूषित एवं गर्हित परिवेश, पितृ-प्रेम का अभाव तथा उन्मत्त एवं क्रोधी भाई साहब का नियन्त्रण, ‘उग्र’ की नियति थी। ‘अपनी खबर’ में पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ ने मुक्तिबोध के से आत्मीय और आकुल आवेग के साथ अपनी ‘अजीब जिंदगी में आए कुछ प्रमुख व्यक्तियों के चरित्र की गहरी छानबीन की है।
हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा अत्यन्त लोकप्रिय है। इसने आत्मकथा ने गद्य की इस विधा के लेखन में नवीन कीर्तिमान स्थापित किए हैं। आत्मकथा का प्रथम खण्ड ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ 1969 ई. में प्रकाशित हुआ। द्वितीय खण्ड 1970 ई. में ‘नीड़ का निर्माण फिर’ नाम से प्रकाशित हुआ। प्रथम खण्ड में जहाँ बच्चन ने अपने भाव-जगत् और यौवनारम्भ के प्रथम अभिसारों का चित्रण किया है, वहाँ अपने कुल, परिवेश तथा पूर्व पुरूषों का भी अत्यन्त रोचक तथा सरस शैली में वर्णन किया है। द्वितीय खण्ड अपेक्षाकृत अधिक अन्तर्मुखी और आत्म विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति से युक्त है। तृतीय खण्ड ‘बसेरे से दूर’ में प्रयाग विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापक बनने और सहाध्यापक लोगों से द्वेष का चित्रण है। रामधारीसिंह 'दिनकर' ने कृति की दृष्टि से इसे ‘अनमोल एवं अत्यन्त महत्त्व की रचना’ घोषित किया है।’
1970 में प्रकाशित ‘निराला की आत्मकथा’ सूर्यप्रसाद दीक्षित द्वारा संकलित संयोजित एवं सम्पादित है। इस आत्मकथा में निराला के बाल्यकाल की स्मृतियाँ, विवाह, दाम्पत्यभाव, राजा की नौकरी, हिन्दी पढ़ना एवं वंश क्षति आदि से सम्बन्धित घटनाओं के साथ रचना-प्रक्रिया तथा साहित्यिक जीवन का भी विस्तृत विवेचन है।
मोरारजी देसाई की ‘मेरा जीवन वृत्तांत’ और बलराज साहनी की 'मेरी पहली आत्मकथा', यादों के झरोखे आत्मकथा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
इधर महिला और दलित लेखकों ने भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान किया है। मोहनदास नैमिशराय की ‘अपने-अपने पिंजरे’, ओमप्रकाश वाल्मीकि की '
जूठन', सूरजपाल चौहान की 'तिरस्कृत, तुलसीराम की मुर्दहिया और मणिकर्णिका, श्यौराज सिंह 'बैचेन' की ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर,मैत्रेयी पुष्पा की 'कस्तूरी कुंडल बसे', रमणिका गुप्ता की 'हादसे' और 'आपहुदरी' इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहल हैं।
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