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कालका-शिमला रेलवे, उत्तर भारत में एक 2 फीट 6 इंच (762 मिमी) छोटी लाइन (narrow gauge) रेलवे है जो कालका से शिमला तक के ज्यादातर पहाड़ी मार्ग से होकर गुजरती है। इसे यहाँ के पहाड़ियों और आसपास के गांवों के रमणीक दृश्यों के लिए जाना जाता है। ब्रिटिश राज के दौरान इस रेलवे का निर्माण भारत की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला को शेष भारतीय रेल प्रणाली से जोड़ने के लिए 1898 और 1903 के बीच हर्बर्ट सेप्टिमस हैरिंगटन के निर्देशन में किया गया था।
भारत की पर्वतीय रेल | |
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विश्व धरोहर सूची में अंकित नाम | |
देश | भारत |
प्रकार | सांस्कृतिक |
मानदंड | ii, iv |
सन्दर्भ | 944 |
युनेस्को क्षेत्र | एशिया-प्रशांत |
शिलालेखित इतिहास | |
शिलालेख | 1999 (23वां सत्र) |
विस्तार | 2005; 2008 |
इसके शुरुआती इंजनों का निर्माण शार्प, स्टीवर्ट एंड कंपनी द्वारा किया गया था। बाद में बड़े इंजनों को उतारा गया था, जिनका निर्माण हंसलेट इंजन कंपनी द्वारा किया गया था। डीजल और डीजल-हाइड्रोलिक इंजनों का परिचालन क्रमशः 1955 और 1970 में शुरू किया गया।
8 जुलाई 2008 को, यूनेस्को ने कालका-शिमला रेलवे को 'भारत के पर्वतीय रेलवे विश्व धरोहर स्थल' के रूप में शामिल किया।[1]
ब्रिटिश शासन की ग्रीष्मकालीन राजधानी शिमला को कालका से जोड़ने के लिए 1896 में दिल्ली अंबाला कंपनी को इस रेलमार्ग के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। समुद्र तल से 656 मीटर की ऊंचाई पर स्थित कालका (हरियाणा) रेलवे स्टेशन को छोड़ने के बाद ट्रेन शिवालिक की पहाड़ियों के घुमावदार रास्ते से गुजरते हुए 2076 मीटर ऊपर स्थित शिमला तक जाती है।
दो फीट छह इंच की इस नैरो गेज लेन पर नौ नवंबर, 1903 से आजतक रेल यातायात जारी है। कालका-शिमला रेलमार्ग में 103 सुरंगें और 869 पुल बने हुए हैं। इस मार्ग पर 919 घुमाव आते हैं, जिनमें से सबसे तीखे मोड़ पर ट्रेन 48 डिग्री के कोण पर घूमती है।
वर्ष १९०३ में अंग्रेजों द्वारा कालका-शिमला रेल सेक्शन बनाया गया था। रेल विभाग ने 7 नवम्बर 2003 को धूमधाम से शताब्दी समारोह भी मनाया था, जिसमे पूर्व रेलमंत्री नितीश कुमार ने हिस्सा लिया था। इस अवसर पर नितीश कुमार ने इस रेल ट्रैक को हैरिटेज का दर्जा दिलाने के लिए मामला यूनेस्को से उठाने की घोषणा की थी।
यूनेस्को के दल ने कालका-शिमला रेलमार्ग का दौरा करके हालात का जायजा लिया था और दल ने कहा था कि, दार्जिलिंग रेल सेक्शन के बाद यह एक ऐसा सेक्शन है जो अपने आप में अनोखा है। यूनेस्को ने इस रेलपथ के ऐतिहासिक महत्व को समझते हुए भरोसा दिलाया था कि इसे विश्व धरोहर में शामिल करने के लिए वह पूरा प्रयास करेंगे। और अन्ततः 24 जुलाई 2008 को इसे विश्व धरोहर घोषित किया गया।
60 के दशक में चलने वाले भाप के इंजन ने इस स्टेशन की धरोहर को बरकरार रखा है और यह आज भी शिमला और कैथलीघाट के बीच चल रहा है। इसके बाद देश की हैरिटेज टीम ने इस सेक्शन को विश्व धरोहर बनाने के लिए अपना दावा पेश किया था।
इस सेक्शन पर 103 सुरंगों की के कारण शिमला में आखिरी सुरंग को 103 नंबर सुरंग का नाम दिया गया है। इसी कारण से ठीक ऊपर बने बस स्टॉप को भी अंग्रेजों के जमाने से ही 103 स्टेशन के नाम से जाना जाने लगा, जबकि इसका नाम 103 स्टॉप होना चाहिए।
भले ही इस ट्रैक को विश्व धरोहर का दर्जा मिल गया है, लेकिन 105 वर्ष पुराने इस ट्रैक पर कई खामियां भी हैं। इस ट्रैक पर बने कई पुल कई जगह इतने जर्जर हो चुके हैं कि स्वयं रेलवे को खतरा लिखकर चेतावनी देनी पड़ रही है। ऐसे असुरक्षित पुलों पर ट्रेन निर्धारित गति 25 किलोमीटर प्रतिघंटा की जगह 22.5 किलोमीटर प्रतिघंटा की गति से चलती है।
कालका-शिमला रेलमार्ग पर सामान्य सीजन में लगभग डेढ़ हजार यात्री यात्रा करते हैं, जबकि पीक सीजन मे यह आंकड़ा दुगुना हो जाता है।
कल्पा में बनी थी योजना: अंग्रेजों ने हिमाचल के किन्नौर जिले के कल्पा में इस रेल पथ को बनाने की योजना बनाई थी। पहले यह रेलपथ कालका से किन्नौर तक पहुंचाया जाना था, लेकिन बाद में इसे शिमला लाकर पूरा किया गया।
अंग्रेजों ने इस रेल ट्रैक पर जब काम शुरू किया तो बड़ोग में एक बड़ी पहाड़ी की वजह से ट्रैक को आगे ले जाने में दिक्कतें आने लगीं। एक बार तो हालात यह बन गए कि अंग्रेजों ने इस ट्रैक को शिमला तक पहुंचाने का काम बीच में ही छोड़ने का मन बना लिया। इस वजह से ट्रैक का काम देख रहे कर्नल बड़ोग ने आत्महत्या तक कर ली। उन्हीं के नाम पर आज बड़ोग स्टेशन का नाम रखा गया है।
इस ऐतिहासिक रेलमार्ग पर चलने वाले अधिकतर इंजन 36 वर्षों की यात्रा के बाद भी सवारियों को कालका-शिमला की ओर ढो रहे हैं। इस रेलमार्ग पर वर्तमान मे लगभग 14 इंजन चल रहे हैं, इनमे 10 इंजन 36 वर्ष पूरे कर चुके हैं और शेष 4 इंजन भी 20 से 25 वर्ष पुराने हो चुके हैं।
ज्ञात हो की पहाड़ों पर चलने वाले टॉय ट्रेन इंजन का जीवनकाल लगभग 36 वर्ष का ही होता है। इस प्रकार इस रेलमार्ग पर चलन वाले 10 इंजन अपनी यात्रा पूरी कर चुके हैं। इन सभी इंजनों की कालका स्थित नैरोगेज डीजल इंजन कार्यशाला में मरम्मत और रख रखाव किया जाता है, लेकिन पुराने हो चुके इंजनों के कलपुर्जे न मिलने के कारण इनके अनुरक्षण में भी परेशानी होती है।
रेल विभाग इस सेक्शन के लिए मुंबई स्थित परेल कार्यशाला से चार नए इंजन तैयार कराने की बात लगभग 10 महीने से कर रहा है। रेल विभाग इन इंजन को यहां कभी मार्च, कभी अप्रैल तो जून में लाने की बात करता रहा है, लेकिन अभी तक ये इंजन यहां नहीं पहुंचे है।
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