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खुरदार या अंग्युलेट (ungulate) ऐसे स्तनधारी जानवरों को कहा जाता है जो चलते समय अपना भार अपने पाऊँ की उँगलियों के अंतिम भागों पर उठाते हैं। यह भार सहन करने के लिए ऐसे पशुओं के पाऊँ अक्सर खुरों के रूप में होते हैं।[1] स्तनधारियों के बहुत से गण खुरदार होते हैं। बहुत से जाने-पहचाने प्राणी इस श्रेणी में आते हैं, जिसमें घोड़ा, गधा, ज़ेब्रा, गाय, गेंडा, ऊँट, दरियाई घोड़ा, सूअर, बकरी, तापीर, हिरन, जिराफ़, ओकापी, साइगा और रेनडियर शामिल हैं।
किसी ज़माने में 'खुरदार' टैक्सोन (जीव जातियों का समूह) एक क्लेड माना जाता था, यानि यह समझा जाता था कि खुर किसी एक जाति में क्रम-विकास (एवोल्यूशन) से उत्पन्न हुए और उस जाति से आगे उत्पन्न हर वंशज जाति खुरदार है। वर्तमानकाल में इस विचार को लेकर जीववैज्ञानिकों में मतभेद है और बहुत से विद्वानों के अनुसार भिन्न खुरदार जातियाँ एक-दूसरे से उतनी अनुवांशिक (जेनेटिक) गहराई से सम्बंधित नहीं हैं जितना पहले समझा जाता था। अधिकतर खुरदारी शाकाहारी होते हैं। ध्यान दें कि शरीरों और अनुवांशिकी की जाँच से कुछ पानी में विचारने वाले जानवरों को भी खुरदार की श्रेणी में डाला जाता है हालाँकि कड़ी नज़र से देखा जाए तो इनके खुर नहीं होते।
शुरू में वैज्ञानिक सभी खुरदारों को एक ही जीववैज्ञानिक गण का हिस्सा मानते थे, लेकिन अब इन्हें कई अलग श्रेणियों में विभाजित किया जाता है:
खुरीय (Ungulata) नालोत्पन्न स्तनपोषियों का एक बड़ा वर्ग है, जिसके अंतर्गत खुरवाले शाकाहारी चौपाए आते है। नवयुग के पश्चात् ई. वॉटन् (E. Wotton) (१५५२) ने जरायुज चौपायों को बहुपादांगुलीय, खुरीय एवं सुमवालों में विभाजित किया। १६९३ में जॉन रे ने इन चौपायों को दो बड़े वर्गों, खुरीय (Ungulata) और नखरिण (Unguiculata) में विभक्त किया। रे के पश्चात् कुछ लुप्त एवं कुछ बाद में पता लगे हुए वर्ग भी खुरीय के अंतर्गत समाविष्ट कर लिए गए। ऑस्बार्न के स्तनपोषियों का युग नामक ग्रंथ में खुरीयों के गणों का उल्लेख मिलता है। अधिकांश खुरीयों के पैर पतले एवं दौड़ने में समर्थ होते हैं तथा उनका शरीर पृथ्वी से पर्याप्त ऊँचा रहता है। वे खुरों के बल चलते हैं। इनके अगले, पिछले पैरों के ऊपरी भाग धड़ से इतने सटे रहते हैं कि दिखलाई नहीं पड़ते।
सामान्यता खुरीय पशु खुले भूभाग में रहने के अभ्यस्त होते हैं। जहाँ वे घास-पात पर जीते हैं। इनके बहुत से गण विलुप्त हो चुके हैं। जीवित गणों का वितरण निम्नलिखित है:
इस वर्ग के पशुओं में अगले और पिछले पैरों के मध्यांगुल मुख्य हैं जिनपर शरीर का अधिकांश भार रहता है। तीसरा अंगुल ही अवयव का केंद्रवर्ती भाग है। इनके दाँत सामान्यता कूटदंत होते हैं। वर्तमान विषमांगुल तीन वंशों में विभक्त किए गए हैं।
इस गण में सूअर, जलहस्ती, पोत्री (Peccaries), ऊँट, मृग, मूस, (Moose, उत्तरी अमरीका का हिरन), ऋष्य (Elk), महाग्रीव (जिराफ, Giraffe), शूलशृंग (Prong horn), चौपाए, भैंस और भैंसे, वृषहरिण (Gnus), हरिण, कुरंग (Gazelle), चमरी (Yak), भेंड़, रंकु (Ibex), बकरे और बकरियाँ तथा अन्य बहुत से अख्यात प्रकार के पशु आते हैं। ये साधारणतया केवल स्थलचर प्राणी हैं, यद्यपि इनमें से कुछ अर्धजलचर भी होते हैं। ये अर्धजलचर प्राणी अधिकांश शीघ्रगामी होते हैं, परंतु इतने भारी शरीर के होते हैं कि इनके पैर अधिक शीघ्रता से नहीं उठते। इनके दो या चार अंगुलों में खुर होते हैं। शुद्ध शकाहारी होने के कारण इनके उदर में कई विभाग मिलते हैं।
इस वर्ग में तीन वंश उपलब्ध हैं। वे क्रमश: इस प्रकार हैं : जलहस्ती (Hippopotamus), सूअर तथा पोत्री। जलहस्ती विशाल एवं भारी शरीरवाले होते हैं। इनके हरेक अगले पैरों की तुलना में पिछले पैर बड़े होने के कारण इसकी पीठ आगे की ओर झुकी होती है। यह रोमंथी दक्षिणी अमरीका का निवासी है।
पैर में चार चार खुर होते हैं। ये अफ्रीका में पाए जाते हैं। छोटे आकार के जलहस्ती साइबीरिया में मिलते हैं। शूकर वंश में यूरोप के जंगली सूअर, कीलयुक्त चर्मवाले तथा अन्य कई प्रकार के सूअर हैं। पोत्री सूअर जैसे द्रुतगामी प्राणी है, जो सदैव बड़े बड़े समूहों में रहते हैं। इस कारण ये इतने भयंकर होते हैं कि उनका सामना नहीं किया जा सकता।
ये खुरीय पशु जुगाली करनेवाले कहे जाते हैं, क्योंकि ये अपने भोज्य पदार्थ को पहले तो बिना चबाए ही निगल जाते हैं, फिर उसमें से थोड़ा थोड़ा मुँह में लाकर चबाते हैं। ये पशु तीन महागणों से विभाजित हैं।
मातृका मृग रोमंथियों में सबसें आद्य है। ऊँट रोमंथियों का एक छोटा समूह है। यह एशिया और अफ्रीका के मरुस्थल मात्र में सीमित है। इसकी दो विशेषताएँ प्रसिद्ध हैं-यह जल के बिना लंबे समय तक रह सकता है एवं भोजन के अभाव में अपने कूबड़ के चर्बीयुक्त अंश से निर्वाह कर लेता है। इन्हीं दोनों विशेषताओं से यह अपना जीवन मरुभूमि में सुचारु रूप से व्यतीत कर सकता है। अतएव यह एशिया तथा अफ्रीका के लंबे मरुमार्गों के लिए नितांत उपयुक्त भारवाहक सिद्ध हुआ है। इसलिये इसे मरुस्थल का जहाज भी कहा गया है। विकूटों में भी ऊँटों जैसे गुण हैं। ये दक्षिण अमरीका के प्राणी हैं।
प्ररोमंथि महागण में -
इस गण में आद्य खुरीयों की एक ही जीवित प्रजाति है जिसे प्रशश (Cony) कहते हैं। यह कृतंक जैसे प्रतीत होते हैं, क्योंकि इनके बंटाखु सरीखे छोटे कान तथा छोटी पूँछ होती है और इनके कर्तनदंत स्थायी मज्जा (Pulp) से निकलते रहते हैं। अपनी कुछ विशेषताओं के कारण ये आद्य खुरीयों में सम्मिलित हैं। इनमें कुछ तो चट्टानों पर रहते हैं और कुछ अंशत: वृक्षवासी भी होते हैं। इनके अगले पैरों में चार और पिछले पैरों में तीन खुर होते हैं।
इस गण में विशाल आकृति के अत्यंत विशिष्ट स्थलचर स्तनपोषी हैं। इनकी विशेषताएँ ये हैं : नासिका एवं उत्तरोष्ठ से निकली हुई लंबी सूँड, उत्तर हनु के दो कर्तनदंत बाहर की ओर हाथी दाँत के रूप में निकले हुए और पश्चहानव्य नितांत कूटदंत होते हैं। इनकी करोटि की अस्थियों में बड़े बड़े वायुकूप होते हैं और ये बहुत मोटी होती है। हाथी की दो जीवित प्रजातियाँ हैं, प्रथम भारतीय (Elephas indicus) तथा द्वितीय, कालद्वीपीय (E. africanus)। कालद्वीपीय हस्ती विशालतरकाय तथा बड़े कानोंवाला होता हैं। भारतीय हाथी भारवाहन में अतिप्रयुक्त है। इसकी आयु २०० वर्ष तक की होती है।
यह प्रारंभिक खुरीय संजाति की एक जलीय शाखा मानी जाती है, जो शुंडिगण से दूरतया संबद्ध है। यह बड़े, लगभग बिना बालों के, स्तनपोषी हैं। इनके पश्चपाद नहीं होते तथा इनकी पूँछ चपटी पुच्छपक्ष के रूप में होती हैं। इनका उदर अन्य खुरीयों के समान होती है। ये सामुद्रिक वनस्पतियों पर ही निर्वाह करते हैं।
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