गुरुकुल
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गुरुकुल से आशय ऐसे विद्यालय से है जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरु के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता है।[1] प्राचीन भारत में गुरुकुल ही अध्ययन-अध्यापन के प्रधान केंद्र हुआ करते थे। दूर-दूर से ब्रह्मचारी विद्यार्थी, अथवा सत्यान्वेषी परिव्राजक अपनी अपनी शिक्षाओं को पूर्ण करने जाते थे। वे गुरुकुल छोटे अथवा बड़े सभी प्रकार के होते थे।
भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल में पढ़े हुए छात्रों का सब जगह बहुत सम्मान होता था। राम ने ऋषि वशिष्ठ के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी। इसी प्रकार पाण्डवों ने ऋषि द्रोण के यहाँ रह कर शिक्षा प्राप्त की थी।
भारतवर्ष के गुरुकुल आश्रमों के आचार्यों को उपाध्याय और प्रधान आचार्य को 'कुलपति' या 'महोपाध्याय' कहा जाता था । रामायण काल में वशिष्ठ का बृहद् आश्रम था जहाँ राजा दिलीप तपश्चर्या करने गये थे, जहाँ विश्वामित्र को ब्रह्मत्व प्राप्त हुआ था। इस प्रकार का एक और प्रसिद्ध आश्रम प्रयाग में भारद्वाज मुनि का था।[2]
गुरुकुलों के ही विकसित रूप तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला और वलभी के विश्वविद्यालय थे। जातकों, ह्वेनसांग के यात्राविवरण तथा अन्य अनेक संदर्भों से ज्ञात होता है कि उन विश्वविद्यालयों में दूर-दूर से विद्यार्थी वहाँ के विश्वविख्यात अध्यापकों से पढ़ने आते थे। वाराणसी अत्यन्त प्राचीन काल से शिक्षा का मुख्य केन्द्र थी और अभी हाल तक उसमें सैकड़ों गुरुकुल, पाठशालाएँ रही हैं और उनके भरण पोषण के लिए अन्नक्षेत्र चलते रहे। यही अवस्था बंगाल और नासिक तथा दक्षिण भारत के अनेक नगरों में रही। 19वीं शताब्दी में प्रारंभ होने वाले भारतीय राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के युग में प्राचीन गुरुकुलों की परम्परा पर अनेक गुरुकुल स्थापित किए गए और राष्ट्रभावना के प्रसार में उनका महत्वपूर्ण योग रहा। यद्यपि आधुनिक अवस्थाओं में प्राचीन गुरुकुलों की व्यवस्था को यथावत पुन: प्रतिष्ठित तो नहीं किया जा सकता, तथापि उनके आदर्शों को यथावश्यक परिवर्तन के साथ अवश्य अपनाया जा सकता है।
प्राचीन भारत के गुरुकुलों के अंतर्गत तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ थीं-
- (१) गुरुकुल- जहाँ विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे,
- (२) परिषद- जहाँ विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी,
- (३) तपस्थली- जहाँ बड़े-बड़े सम्मेलन होते थे और सभाओं तथा प्रवचनों से ज्ञान अर्जन होता था। नैमिषारण्य ऐसा ही एक स्थान था।
गुरुकुल शिक्षा पद्धति की प्रमुख विशेषताएँ ये थीं-
- गुरुकुल पूर्णतः आवासीय शिक्षा प्रदान करने का एकांत स्थान होता था, जहाँ आठ से दस वर्ष की आयु में बच्चा गुरु के सानिध्य मे रह कर विद्या अध्ययन करता था।
- विद्यार्थीब गुरु के निर्देशों का पूर्णतः पालन करते थे।
- गुरुकुल मे बच्चे स्वयं दिनचर्या के सभी कार्य करते थे। वे अपने उपयोग की सामाग्री का निर्माण स्वयं करते थे। अपने खाने की व्यवस्था स्वयं खेती या भिक्षाटन से करते थे।
- गुरुकुल मे श्रुति अर्थात सुन कर याद करते थे, लिपिबद्ध करने का परम्परा नहीं थी।