ज्ञानमीमांसा
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ज्ञानमीमांसा, (अंग्रेजी - Epistemology, प्राचीन यूनानी ἐπιστήμη ( एपिस्तेमि ) 'ज्ञान ' , और -λογία से व्युत्पन्न ) या ज्ञान का सिद्धांत, दर्शनशास्त्र कि एक प्रमुख शाखा है, जो ज्ञान का युक्तिबद्ध अध्ययन करती है। ज्ञानमीमांसा, ज्ञान के स्वभाव, उद्भव, और परिधि के विश्लेषण के साथ-साथ, विश्वास की तार्किकता, ज्ञान के वैध स्रोंतों, तथा उनके औचित्यकरण से संपृक्त हैं। ज्ञानमीमांसा का ध्येय सत्य के स्वरूप को समझकर सत्यता और असत्यता के भेद को स्पष्ट करना है।[1]
ज्ञानमीमांसा | |
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विद्या विवरण | |
अधिवर्ग | दर्शनशास्त्र |
विषयवस्तु | ज्ञान का स्वभाव और सीमा, विश्वासों का प्रमाणिकरण |
प्रमुख विद्वान् | अरस्तू, रेने देकार्त, लाइब्नीज़, जॉर्ज बर्कली, स्पिनोज़ा, जॉन लॉक, ब्लेज़ पास्कल, फ्रान्सिस बेकन, डेविड ह्यूम, इमैनुएल कांट, हेगेल |
इतिहास | ज्ञानमीमांसा का इतिहास |
प्रमुख विचार व अवधारणाएं | ज्ञान की परिभाषा, गेटियर समस्या |
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ज्ञानमीमांसा के विवाद, इन चार मुख्य क्षेत्रों में एकत्र हैं।[2][3][4]
- ज्ञान के स्वभाव का दार्शनिक विश्लेषण और ज्ञान के गठन के लिए विश्वास के लिए आवश्यक शर्तें, जैसे सत्य और न्याय-औचित्यकरण (या प्रमाणिकता)।
- ज्ञान और न्यायोचित विश्वास के संभावित स्रोत, जैसे प्रत्यक्षण, तर्कबुद्धि, स्मृति और गवाही (शब्दप्रमाण)।
- ज्ञान या न्यायोचित विश्वास के एक निकाय की संरचना, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या सभी न्यायोचित विश्वासों को न्यायोचित मूलभूत विश्वासों से प्राप्त किया जाना चाहिए या क्या औचित्यकरण के लिए केवल विश्वासों के एक सुसंगत समुच्च्य की आवश्यकता है।
- दार्शनिक संशयवाद , जो ज्ञान की संभावना और संबंधित समस्याओं पर सवाल उठाता है, जैसे कि क्या संशयवाद हमारे सामान्य ज्ञान के दावों के लिए खतरा है और क्या संशयवादी तर्कों का खंडन करना संभव है।
मूलतः,ज्ञानमीमांसा इन सवालों का उत्तर देने का प्रयत्न करता है[1][2][5][6] जैसे कि
- हम क्या जानते हैं?
- जब हम बोलते है कि हम कुछ जानते हैं,इसका क्या अर्थ हुआ?
- प्रमाणित विश्वासों को क्या प्रमाणित बनाता है?
- हम कैसे जानते है कि हम (कोई चीज) जानते हैं?
ज्ञानमीमांसा में भिन्न विशिष्टताएं भिन्न-भिन्न प्रश्न पूछती हैं जैसे "लोग ज्ञान से संबंधित मुद्दों के बारे में औपचारिक प्रारुप कैसे बना सकते हैं?" ( औपचारिक ज्ञानमीमांसा में ), "विभिन्न प्रकार के ज्ञान में परिवर्तन की ऐतिहासिक परिस्थितियाँ क्या हैं?" ( ऐतिहासिक ज्ञानमीमांसा में ), "ज्ञानमीमांसीय जांच के तरीके, लक्ष्य और विषय वस्तु क्या हैं?" अधि-ज्ञानमीमांसा में), और "लोग एक साथ कैसे ज्ञान प्राप्त करते हैं?" (समाजिक ज्ञानमीमांसा में।)
आधुनिक काल के आरम्भिक दिनों में अनुभववादियों (empericists) और तर्कबुद्धिवादियों (rationalists) के बीच के विवाद ने ज्ञानमीमांसा को दर्शनशास्त्र का एक मुख्य विषय बना दिया। जॉन लॉक, डेविड ह्यूम और जॉर्ज बर्कली प्रमुख अनुभववादी दार्शनिक थे, रेने देकार्त, स्पिनोज़ा और गाटफ्रीड लाइबनीज़ प्रमुख तर्कबुद्धिवादी थे।
आधुनिक काल में देकार्त (1596-1650 ई) को ध्यान आया कि प्रयत्न की असफलता का कारण यह है कि दार्शनिक कुछ अग्रिम कल्पनाओं को लेकर चलते रहे हैं। दर्शनशास्त्र को गणित की निश्चितता तभी प्राप्त हो सकती है, जब यह किसी धारणा को, जो स्वतःसिद्ध नहीं, प्रमाणित किए बिना न मानें। उसने व्यापक सन्देह से आरम्भ किया। उसकी अपनी चेतना उसे ऐसी वस्तु दिखाई दी, जिसके अस्तित्व में संदेह ही नहीं हो सकता : संदेह तो अपने आप चेतना का एक आकार या स्वरूप है। इस नींव पर उसने, अपने विचार में, परमात्मा और सृष्टि के अस्तित्व को सिद्ध किया। देकार्त की विवेचन-विधि नई थी, परन्तु पूर्वजों की तरह उसका अनुराग भी तत्वज्ञान में ही था।
जॉन लॉक (1632-1704 ई) ने अपने लिये नया मार्ग चुना। सदियों से सत्य के विषय में विवाद होता रहा है। पहले तो यह जानना आवश्यक है कि हमारे ज्ञान की पहुँच कहाँ तक है। इसी से ये प्रश्न भी जुड़े थे कि ज्ञान क्या है और कैसे प्राप्त होता है। यूरोप महाद्वीप के दार्शनिकों ने दर्शन को गणित का प्रतिरूप देना चाहा था, लॉक ने अपना ध्यान मनोविज्ञान की ओर फेरा और "मानव बुद्धि पर निबंध" की रचना की। यह युगान्तकारी पुस्तक सिद्ध हुई। इसे अनुभववाद (Empiricism) का मूलाधार समझा जाता है। जार्ज बर्कली (1684-1753) ने लॉक की आलोचना में "मानवज्ञान के नियम" लिखकर अनुभववाद को आगे बढ़ाया और डेविड ह्यूम (1711-1776 ईदृ) ने "मानव प्रकृति" में इसे चरम सीमा तक पहुँचा दिया। ह्यूम के विचारों का विशेष महत्व यह है कि उन्होंने कांट (1724-1804 ई) के "आलोचनवाद" के लिये मार्ग खोल दिया। कांट ने ज्ञानमीमांसा को दर्शनशास्त्र का केंद्रीय प्रश्न बना दिया।
किन्तु पश्चिम में ज्ञानमीमांसा को उचित पद प्रप्त करने में बड़ी देर लगी। भारत में कभी इसकी उपेक्षा हुई ही नहीं। गौतम के न्यायसूत्रों में पहले सूत्र में ही 16 विचारविषयों का वर्णन हुआ है, जिसके यथार्थ ज्ञान से निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। इनमें प्रथम दो विषय "प्रमाण" और "प्रमेय" हैं। ये दोनों ज्ञानमीमांसा और ज्ञेय तत्व ही हैं। यह उल्लेखनीय है कि इन दोनों में भी प्रथम स्थान "प्रमाण" को दिया गया है।