धर्म का दर्शनशास्त्र
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धर्म का दर्शनशास्त्र या धर्म दर्शन (अंग्रेजी-philosophy of religion) दर्शनशास्त्र की वह शाखा है जो धर्म तथा धार्मिक परंपराओं में शामिल विषयों और अवधारणाओं का सुव्यवस्थित तथा तर्कसंगत रूप से दार्शनिक विवेचना करता है। यह धार्मिक महत्व के मामलों पर अन्वेषण करने की व्यापक दार्शनिक क्रिया है, जिसमें धर्म के स्वभाव और अर्थ, ईश्वर की वैकल्पिक अवधारणाएं, परम सत् (ultimate reality), और ब्रह्मांड की सामान्य विशेषताओं (जैसे, प्रकृति के नियम, चेतना का उदय, इत्यादि) और ऐतिहासिक घटनाओं (जैसे कि 1755 के लिस्बन का भूकंप) का धार्मिक महत्व शामिल हैं। दार्शनिक विलियम एल. रोवे ने धर्म के दर्शनशास्त्र को इस प्रकार चित्रित किया: "बुनियादी धार्मिक विश्वासों और अवधारणाओं की समालोचनात्मक परीक्षा।" धर्म के दर्शनशास्र में ईश्वर या देवताओं या दोनों के बारे में वैकल्पिक विश्वास, धार्मिक अनुभव के विभिन्न प्रकार , विज्ञान और धर्म के बीच अन्योन्यक्रिया, अच्छाई और बुराई का स्वभाव और उनकी परिधि, और जन्म, इतिहास और मृत्यु के धार्मिक उपचार शामिल हैं।[1] इस क्षेत्र में धार्मिक प्रतिबद्धताओं के नैतिक प्रभाव, आस्था, तर्कबुद्धि, अनुभव और परंपरा के बीच संबंध, चमत्कार, पवित्र रहस्योद्घाटन, रहस्यवाद, शक्ति और मोक्ष की अवधारणाएं भी शामिल हैं। [1]
धर्म का दर्शनशास्त्र | |
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विद्या विवरण | |
अधिवर्ग | दर्शनशास्र, तत्वमीमांसा |
विषयवस्तु | धर्म के स्वभाव और अर्थ का दार्शनिक अध्ययन |
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ईश्वरमीमांसा(Theology) भी धर्म के तार्किक विमर्श से संपृक्त है परंतु,ईश्वरमीमांसा में धर्म का अध्ययन, ईश्वर के अस्तित्व को अभिगृहित या स्वयंसिद्ध मानकर किया जाता है। धर्म के दर्शनशास्त्र में ईश्वरमीमांसा के विपरित, आस्था (ईश्वर में विश्वास) पूर्वकल्पित नहीं होती। धर्म के दर्शन में, ईश्वरमीमांसा से अलग, धर्मिक दृष्टिकोण के आलोचनाओं का, जैसे कि धर्मनिरपेक्षता एवं नास्तिकता का अध्ययन भी शामिल होता है। धर्म के दर्शनशास्त्र को ईश्वरमीमांसा से यह संकेतित करते हुए अलग किया गया है कि, ईश्वरमीमांसा के लिए, "इसके समीक्षात्मक चिंतन धार्मिक प्रतिबद्धता पर आधारित हैं"।[2] इसके अलावा, "धर्ममीमांसा एक प्राधिकरण के प्रति उत्तरदाई है जो उसके विचारण, बोलने और गवाही देने की पहल करता है ... [जबकि] दर्शन कालातीत साक्ष्य को अपने तर्कों का आधार बनाता है।"[2]
"धर्म का दर्शनशास्त्र" शब्द उन्नीसवीं शताब्दी तक पश्चिमी सभ्यता में सामान्य उपयोग में नहीं आया था, और अधिकांश पूर्व-आधुनिक और प्रारंभिक आधुनिक दार्शनिक रचनाओं में धार्मिक विषयों और गैर-धार्मिक दार्शनिक प्रश्नों का मिश्रण शामिल था। एशिया में, उदाहरणों में हिंदू उपनिषद् , ताओ-धर्म और कन्फ्यूशीयसवाद के कार्य और बौद्ध ग्रंथ जैसी कृतियां शामिल हैं। पाइथागोरसवाद और स्टोइकवाद जैसे ग्रीक दर्शन में देवताओं के बारे में धार्मिक तत्व और सिद्धांत शामिल थे, और मध्यकालीन दर्शन तीनों बड़े एकेश्वरवादी इब्राहिमवादी धर्मों से काफी प्रभावित था। पश्चिमी दुनिया में थॉमस हॉब्स, जॉन लॉक और जॉर्ज बर्कली जैसे शुरुआती आधुनिक दार्शनिकों ने धर्मनिरपेक्ष दार्शनिक मुद्दों के साथ-साथ धार्मिक विषयों पर भी चर्चा की।
धर्म के दर्शनशास्त्र के कुछ पहलुओं को शास्त्रीय रूप से तत्वमीमांसा का एक भाग माना जाता है । अरस्तू की "मेटाफिजिक्स" में, शाश्वत गति का अनिवार्य रूप से पूर्व-कारण एक अचल चालक (या अविचलित प्रेरक) था, जो इच्छा की वस्तु की तरह, या सोच की तरह, स्वयं को स्थानांतरित किए बिना गति को प्रेरित करता है।[3] आज, हालांकि, दार्शनिकों ने इस विषय के लिए "धर्म का दर्शनशास्त्र" शब्द को अपनाया है, और आमतौर पर इसे एक अलग विशेषज्ञता के रूप में माना जाता है, हालांकि यह अभी भी कुछ, विशेषतः कैथोलिक दार्शनिकों द्वारा, तत्वमीमांसा की एक शाखा के रूप में माना जाता है।