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सम्राट समुद्रगुप्त के दरबारी कवि हरिषेण द्वारा रचित लेख था। इस लेख को समुद्रगुप्त द्वारा 370 ई में कौशाम्बी से लाये गए अशोक स्तंभ पर खुदवाया गया था। इसमें उन राज्यों का वर्णन है जिन्होंने समुद्रगुप्त से युद्ध किया और हार गये तथा उसके अधीन हो गये।[1] इसके अलावा समुद्रगुप्त ने अलग अलग स्थानों पर एरण प्रशस्ति, गया ताम्र शासन लेख, आदि भी खुदवाये थे।[2] इस प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त ने अपने साम्राज्य का अच्छा विस्तार किया था। उसको क्रान्ति एवं विजय में आनन्द मिलता था। प्रयागराज के अभिलेखों से पता चलता है कि समुद्रगुप्त ने अपनी विजय यात्रा का प्रारम्भ उत्तर भारत के आर्यावर्त के 9 शासकों को परास्त करने के साथ किया जिसमें नागसेन, अच्युत, गणपति आदि थे। इन विजयों के द्वारा समुद्र गुप्त ने मध्य प्रदेश या गंगा यमुना दोआब पर अपनी सत्ता स्थापित की। उसने इन 9 शासकों का पूर्ण उन्मूलन किया क्योंकि केंद्रीय प्रदेश के स्पर्धी राज्यों को बिना पूर्णतः परास्त और उन्मूलन किया उसके लिए आगे बढ़ना संभव नहीं था।।[3]
“ | अनेक भ्रष्टराज्योत्सन्न-राजवंश प्रतिष्ठापनोद्भूत- निखिल भुवन विचरण-शान्त यशसः॥ | ” |
— प्रयाग प्रशस्ति, कवि हरिषेण[4] |
प्रयाग प्रशस्ति
यह स्तंभ प्रयाग में मौर्य शासक अशोक के ६ स्तम्भ लेखों में से एक है। प्रयाग के संगम-तट पर पूर्व में सम्राट अशोक द्वारा बनवाये गए किले में अवस्थित १०.६ मी. ऊँचा अशोक स्तम्भ २३२ ई.पू. का है, जिस पर तीन शासकों के लेख खुदे हुए हैं। इस स्तंभ को २०० ई. में में समुद्रगुप्त द्वारा कौशाम्बी से प्रयाग लाया गया और तब उसके दरबारी कवि हरिषेण रचित प्रयाग-प्रशस्ति लेख इस पर खुदवाया गया था।[3] बाद में १६०५ ई. में इस स्तम्भ पर मुगल सम्राट जहाँगीर के राजतिलक का उल्लेख भी इस पर खुदवाया गया। ब्रिटिश काल में १८०० ई में इस किले की दीवार के निर्माण करते हुए दीवार के रास्ते में इसके आने के कारण स्तम्भ को गिरा दिया गया और पुनः १८३८ में अंग्रेजों ने इसे पुनः स्थापित कर दिया।
इस लेख के आधार पर ही हमें गुप्तकालीन प्रशासन की महत्त्वपूर्ण सूचना मिलती है। उदहारण के लिए हरिषेण को इस अभिलेख में कुमारामात्य, महादण्डनायक और संधिविग्रहिक भी कहा गया है। परवर्ती वंशों के काल में भी गुप्तकालीन प्रशासनिक शब्दावली प्रचलित रही और हमें देश भर से कई ऐसे ताम्रपत्र मिलते हैं जिनकी भाषा और शैली प्रयाग प्रशस्ति के समान ही है।
गुप्तकाल के शासकों राजधानी काफ़ी समय तक प्रयाग रही है। इसी कारण गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त ने प्रयाग-प्रशस्ति को उस स्तम्भ पर खुदवाया था। यहीं प्राप्त ४४८ ई. के एक गुप्त कालीन अभिलेख से ५वीं शताब्दी में भारत में दशमलव पद्धति प्रयोग होने के बारे में भी जानकारी मिलती है।
प्रशस्ति के अनुसार परिचय में समुद्रगुप्त को महाराजाधिराज श्री चन्द्रगुप्त का महादेवी कुमार देवी से उत्पन्न्न पुत्र तथा लिच्छवी दौहित्र बताया गया है।
“ | महाराजाधिराज चन्द्रगुप्तपुत्रस्य महादेव्याकुमारदेव्यामुत्पन्नस्य लिच्छवि दौहित्रस्य | ” |
— प्रयाग प्रशस्ति[4] |
संगीत क्षेत्र में समुद्रगुप्त को [नारद] और तुम्बुरु से तुलनीय बताया है। किन्तु प्रशस्ति में उसके अश्वमेध यज्ञ का उल्लेख नहीं है, जो इंगित करता है कि यह यज्ञ उसने प्रशस्ति के बाद किया होगा। यहां उसको विद्वज्जनोपजीव्य काव्य का प्रणेता बताय़ा गया है।[4]
प्रशस्ति में उल्लेख है कि समुद्रगुप्त ने नेपाल, असम, बंगाल के सीमावर्ती प्रदेश एवं पंजाब पर अधिकार कर लिया था। इनके अलावा उसने आटविक (अर्थात् जंगली राज्य) में उसने उत्तर में गाजीपुर से जबलपुर और विंध्याचल क्षेत्र तक अधिकार किया एवं दक्षिण में दस से अधिक राज्यों के शासकों को पराजित कर छोड़ दिया था। कवि हरिषेन प्रयाग प्रशस्ति में पल्लवों पर विजय अभियान का उल्लेख भी करते हैं। इसके अनुसार उसने दक्षिण-पथ में अपनी दिग्विजय यात्रा में सर्वप्रथम दक्षिण कोसल नरेश महेन्द्र को पराजित किया था। उसके पश्चात महाकान्तर के व्याघ्रराज को अधीन किया।[5]
वर्तमान भारत से बाहर समुद्रगुप्त ने अफगानिस्तान के शासकों, शकों (मध्य एशिया क्षेत्र) एवं कुशाणों (बैक्ट्रिया) के राज्यों में भी अपनी सत्ता फैलायी। एक चीनी स्रोत से ज्ञात होता है कि गुप्त ने दक्षिण में लंका नरेश मेधवर्मन के दूत से प्राप्त निवेदन सन्देश पर गया में विशाल बौद्ध मन्दिर और विहार बनवाया। प्रयाग प्रशस्ति लेख में समुद्रगुप्त को अजातशत्रु की उपाधि दी है और उसी बहादुरी एवं युद्ध-कौशल के आधार पर आज भी वह भारत का नेपोलियन कहलाता है। उसका साम्राज्य पूर्व में ब्रह्मपुत्र, दक्षिण में नर्मदा तथा उत्तर में कश्मीर तक विस्तृत था, एवं शासनकाल ३२८ ई. से ३७५ ई. तक था। प्रशस्ति के अनुसार अपने विशाल साम्राज्य को उसने अनेक प्रान्तों, जनपदों और जिलों में विभाजित किया था एवं सरकारी पदाधिकारियों में खाद्य-पाकिक, कुमारामात्य, महादण्डनायक, सन्धिविग्रहिक तथा सम्राट का प्रधान परामर्शदाता होते थे।[3] साम्राज्य के दूरस्थ भागों का शासन सामंत, राजा के प्रतिनिधि के रूप में किया करते थे।
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