प्राकृत
भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो अनेक प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम प्राकृत है / From Wikipedia, the free encyclopedia
भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो अनेक प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम प्राकृत है और उन भाषाओं में जो ग्रंथ रचे गए उन सबको समुच्चय रूप से प्राकृत साहित्य कहा जाता है। प्राकृत का का प्रचार प्राचीन काल में भारत में था और यह प्राचीन संस्कृत नाटकों आदि में स्त्रियों, सेवकों और साधारण व्यक्तियों की बोलचाल में तथा अलग ग्रंथों में पाई जाती है । भारत की बालचाल की भाषाएँ बोलचाल की प्राकृतों से बनी हैं ।
विकास की दृष्टि से भाषावैज्ञानिकों ने भारत में आर्यभाषा के तीन स्तर नियत किए हैं - प्राचीन, मध्यकालीन और अर्वाचीन। प्राचीन स्तर की भाषाएँ वैदिक संस्कृत और संस्कृत हैं, जिनके विकास का काल अनुमानतः ईसापूर्व 2000 से ईसापूर्व 600 तक माना जाता है। मध्ययुगीन भाषाएँ हैं - मागधी, अर्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची भाषा, महाराष्ट्री और अपभ्रंश। इनका विकासकाल ई. पूर्व 600 ई. 1000 तक पाया जाता है।
हेमचंद्र ने संस्कृत को प्राकृत की 'प्रकृति' कहकर सूचित किया है कि प्राकृत, संस्कृत से निकलती है, पर प्रकृति का यह अर्थ नहीं है । केवल संस्कृत का आधार रखकर प्राकृत व्याकरण की रचना हुई है। पर अनुमान है कि ईसवी सन् से प्रायः ३०० वर्ष पहलै यह भाषा प्राकृत रूप में आ चुकी थी । उस समय इसके पश्चिमी और पूर्वी दो भेद थे । यह पूर्वी प्राकृत ही पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुई। बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ इस मागधी या पाली भाषा की बहुत अधिक उन्नति हुई, क्योंकि बौद्ध धर्म के सभी ग्रंथ पहले इसी भाषा में लिखे गए । धीरे-धीरे प्राचीन प्राकृतों के विकास से आज से प्रायः १००० वर्ष पहले देश-भाषाओं का जन्म हुआ था । जिस प्रकार संस्कृत भाषा का सबसे पुराना रूप वैदिक भाषा है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा का भी जो पूराना रूप मिलता है उसे "आर्ष प्राकृत" कहते हैं । कुछ बौद्ध तथा जैन विद्वानों का मत है कि पाणिनि ने इस आर्ष प्राकृत का भी एक व्याकरण बनाया था । पर कुछ लोगों को यह संदेह है कि कदाचित् पाणिनि के समय प्राकृत भाषा का जन्म ही नहीं हुआ था । मार्कण्डेय ने प्राकृत के इस प्रकार भेद किए हैं—(१) भाषा (महाराष्ट्रा, शौरसेनी, प्राच्या, आवंती, मागधी, अद्धंमागधी), (२) विभाषा (शाकारी, चांडाली, शावरी, आभीरी, टाक्की, औड्री, द्रविडी), (३) अपभ्रंश, और (४) पैशाची । चूलिका पैशाची आदि कुछ निम्न श्रेणी की प्राकृतें भी हैं । सबसे प्राचीन काल में मागधी की भाषा पाली के नाम से साहित्य की ओर अग्रसर हुई । बौद्ध ग्रंथ पहले इसी भाषा में लिखे गए । यह मागधी, व्याकरणों की मागधी से पृथक् और प्राचीन भाषा है । पीछे जैनों के द्वारा अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री का आदर हुआ । महाराष्ट्री साहित्य की प्राकृत हुई जिसके एक कृत्रिम रूप का व्यवहार संस्कृत के नाटकों में हुआ । इन प्राकृतों से आगे चलकर और घिसकर जो रूप हुआ वह अपभ्रंश कहलाया । इसी अपभ्रंश के नाना रूपों से आजकल की आर्य शाखा की देशभाषाएँ निकली हैं । इसके अतिरिक्त ललितविस्तर में एक प्रकार की और प्राकृत मिलती है जो संस्कृत से बहुत कुछ मिलती जुलती है।