कृष्ण भगवान भगवान् की परिभाषा का वर्णन करने वाला, विष्णु पुराण के एक प्रसिद्ध श्लोक का अर्थ है:
ऐश्वर्य (सम्पूर्ण वैभव और प्रभुता), धर्म (सम्पूर्ण धार्मिकता और पुण्य), यश (महान यश और ख्याति), श्री (सम्पूर्ण सौंदर्य और संपन्नता), ज्ञान (सम्पूर्ण ज्ञान और समझ), वैराग्य (सम्पूर्ण वैराग्य और त्याग), ये छह गुण मिल कर ‘भगवान् शब्द’ की परिभाषा को पूर्ण करते हैं और भगवान् की सर्वसम्पन्नता को दर्शाते हैं। अर्थात् जो इन उचित गुणों से युक्त है, वे भगवान् है। भगवान् होने के लिए उसमें सम्पूर्ण वैभव और प्रभुता होनी चाहिए। घर्म और पुण्य उस में वास करते दिखने चाहिए, उस में ‘श्री’ अर्थात् पूरी संपन्नता और सौंदर्य का वास होना चाहिए। वे सम्पूर्ण ज्ञान का भंडार होना चाहिए।और उसमें त्याग और वैराग्य की भावना परिपूर्ण होनी चाहिए, वह ही भगवान है और एक ही है। इसीलिए अगर कोई किसी मानव, योगी, कथा वाचक या देवता को ‘भगवान्’ कहे तो ये उचित नहीं होगा, ये स्वयं ईश्वर विष्णु पुराण के पाँचवें अध्याय में ऋषि पराशरजी के द्वारा कह रहें है। देवता भगवान् की परिभाषा में नहीं आते, कोई उन्हें भगवान् कह सकता है, परन्तु वे परिभाषित नहीं है।
ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसरिश्रयः । ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा ॥ (विष्णु पु0 ६।५।७४)॥ [1]
श्रीमद्भागवत महापुराण में भगवान शब्द का प्रयोग करते हुए बताया गया है कि वास्तविक ज्ञान के ज्ञाता लोग एकमात्र अद्वितीय सत्य को ब्रह्म, परमात्मा और भगवान के रूप में पुकारते हैं।
वदन्ति तत् तत्त्वविदः तत्त्वं यद्ज्ञानमद्वयम्। ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते॥ (श्रीमद्भागवत महापुराण १.२.११)॥ [2]
भगवान् प्राप्ति के लिए दो ही कारण कहे गये हैं। कर्म और ज्ञान, इन के द्वारा ही भगवान् प्राप्त हो सकते हैं।
तस्मात्तत्प्राप्तये यत्नः कर्तव्यः पण्डितैर्नरैः । तत्प्राप्तिहेतुर्ज्ञानं च कर्म चोक्तं महामुने ॥ (विष्णु पु0 ६।५।७४)॥ [3]
आगे बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि इस प्रकार यह महान् 'भगवान्' शब्द परब्रह्मस्वरूप श्री वासुदेव का ही वाचक है, किसी और का नहीं। क्योंकि जो समस्त उत्पत्ति-नाश, आना-जाना, विद्या-अविद्या को जानता है वहीं भगवान् कहलाने के योग्य है।॥
एवमेष महाञ्छब्दो मैत्रेय भगवानिति। परमब्रह्मभूतस्य वासुदेवस्य नान्यगः ॥(विष्णु पु0 ६।५।७६) ॥ [4]
हिन्दु वेदों में स्पष्टतः कहीं पर भी भगवान् शब्द का उल्लेख नहीं है। भगवान् शब्द बाद के वैदिक साहित्य, उपनिषदों, और पुराणों में अधिक प्रचलित हुआ, जहाँ इसे व्यापक रूप से ईश्वर के रूप में स्वीकारा गया। वेदों में ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता और उसकी महिमा का वर्णन कई अन्य नामों और विशेषणों के माध्यम से किया गया है, जैसे ईश्वर, परमात्मा, ब्रह्म, रुद्र, विष्णु, अग्नि, इंद्र आदि।
1. ऋग्वेद का एक श्लोक है: एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः॥१.१६४.४६॥ [5]
इस का अर्थ है, सत्य एक ही है, जिसे ज्ञानी लोग विभिन्न नामों से पुकारते हैं। उसे अग्नि, यम, मातरिश्वा आदि कहा जाता है।
2. अथर्ववेद का एक श्लोक है:
यो विश्वेभिर्जगत्येकश्चरति प्रजानन॥१३.४.१६॥
इस का अर्थ है, जो सबके बीच एकमात्र सर्वोच्च सत्ता के रूप में विचरण करता है।
इसी प्रकार से उपनिषदों में भगवान् शब्द की जगह ब्रह्म, आत्मा, और मोक्ष के विषय में विस्तार से चर्चा होती है, जो भगवान की सर्वोच्चता को दर्शाते हैं। महाभारत में विशेष रूप से भगवद गीता में भगवान श्रीकृष्ण का अर्जुन को दिया गया उपदेश प्रमुख है, जिसमें भगवान की महिमा का वर्णन है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं को ‘भगवान’ कहा है।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते । इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥८॥ [6]
वाल्मीकि रामायण में भगवान श्रीराम को ‘भगवान’ कहा गया है।
मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि में भी भगवान का उल्लेख और उनकी पूजा पद्धतियों का वर्णन है।
अगम और तंत्र शास्त्र में भी शिव और शक्ति की पूजा विधियों में भगवान् शब्द का वर्णन है।
अद्वैत वेदांत में शंकराचार्य जी ने भगवान को निर्गुण ब्रह्म कहा है, जो निराकार, अनंत और अपार है।
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