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भारतीय अंक प्रणाली को पश्चिम के देशों में हिंदू-अरबी अंक प्रणाली के नाम से जाना जाता है क्योंकि यूरोपीय देशों को इस अंक प्रणाली का ज्ञान अरब देश से प्राप्त हुआ था। जबकि अरबों को यह ज्ञान भारत से मिला था।[1]
भारतीय अंक प्रणाली में शून्य (०) को मिला कर कुल १० अंक होते हैं। भारतीय अंक प्रणाली, संसार की सर्वाधिक प्रचलित अंक प्रणाली हैं।
फ्रांस के प्रसिद्ध गणितज्ञ पियरे साइमन लाप्लास के अनुसार,
नीचे भारतीय अंकों का देवनागरी एवं अन्तरराष्ट्रीय स्वरूप दिखाया गया है-
देवनागरी अंक | अन्तरराष्ट्रीय अंक | हिन्दी में नाम | संस्कृत में नाम |
---|---|---|---|
० | 0 | शून्य | शून्यम् |
१ | 1 | एक | एकम् |
२ | 2 | दो | द्वे |
३ | 3 | तीन | त्रीणि |
४ | 4 | चार | चत्वारि |
५ | 5 | पाँच | पंच |
६ | 6 | छः | षड् |
७ | 7 | सात | सप्त |
८ | 8 | आठ | अष्ट |
९ | 9 | नौ | नव |
इतिहासकारों के अनुसार ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में भारत में ब्राह्मी अंकों का प्रचलन था। पुणे एवं मुंबई के क्षेत्र की गुफाओं में मिले शिलालेखों में तथा उत्तर प्रदेश में मिले प्राचीनकाल के सिक्कों में ब्राह्मी अंक पाये गये हैं। ब्राह्मी अंकों में दशमलव प्रणाली तथा शून्य का प्रयोग नहीं होता था।
अप्रामाणिक दस्तावेज़ों के अनुसार भारत में शून्य, जो कि दशमलव प्रणाली का आधार है, का आविष्कार इस्वी सन् की प्रथम शताब्दी में हो चुका था। किन्तु भारत में शून्य के आविष्कार के प्रामाणिक दस्तावेज़ पाँचवी शताब्दी में ही मिले हैं। ग्वालियर में पाये गये शिलालेख, जो कि ईस्वी सन् ८७० का है, में शून्य के संकेत पाए गए हैं। इस शिलालेख को सभी इतिहासकारों ने एक मत से मान्यता दी है।
शून्य के आविष्कार हो जाने पर भारत में दस अंको वाली अंक प्रणाली का प्रचलन आरम्भ हो गया जो कि इस संसार में प्रचलित आधुनिक अंक प्रणालियों का आधार बनी।
ईस्वी सन् के सातवीं शताब्दी में अरब ने भारतीय अंक प्रणाली का अभिग्रहण कर लिया। अरब में भारतीय अंकों को गुबार अंक और भारतीय अंक प्रणाली को हिंदुसा अंक प्रणाली के नाम से जाना जाने लगा। हिंदुस्तान से इस अंक प्रणाली के प्राप्त होने के कारण ही वहाँ इसे 'हिंदुसा' नाम दिया गया।
अरब के मुहम्मद इब्न मूसा अल-ख़्वारिज़्मी नामक विद्वान के कालक्रम विवरण के अनुसार,
यूरोप में बारहवीं शताब्दी तक रोमन अंकों का प्रयोग होता था। रोमन अंक प्रणाली में केवल सात अंक हैं, जो अक्षरों द्वारा व्यक्त किए जाते हैं। ये अक्षरांक हैं- I (एक), V (पांच), X (दस), L (पचास), C (सौ), D (पांच सौ) तथा M (एक हजार)। इन्हीं अंको के जोड़ ने घटाने से कोई भी संख्या लिखी जाती है। उदाहरण के लिए अगर तीन लिखना है तो एक का चिन्ह तीन बार लिख दिया III। आठ लिखना है तो पांच के दायीं तरफ तीन एक-एक के चिन्ह लिखकर जोड़ दिए और VIII (आठ) हो गया। यह प्रणाली इतनी कठिन और उलझी हुई है कि जब बारहवीं शताब्दी में यूरोप का भारतीय अंक प्रणाली से परिचय हुआ तो उसने उसे स्वीकार ही नहीं किया, अपितु एकदम अपना लिया। यूरोप में कुछ शताब्दियों बाद जो वैज्ञानिक-औद्योगिक क्रान्ति हुई, उसके मूल में भारतीय अंक गणना का ही योगदान है।
भारत ने गणना हेतु नौ अंकों तथा शून्य का अविष्कार किया था। यही नहीं, अंकों के स्थानीय मान (प्लेस वेल्यू) का भी आविष्कार भारत में ही हुआ। शून्य का कोई मान (मूल्य) नहीं है किन्तु उसे अगर एक अंक के दाहिनी ओर लिख दिया जाए तो वह दस इंगित करेगा क्योंकि अब १ का स्थानीय मान दस हो गया। यदि दाहिनी ओर एक और शून्य बढ़ा दिया जाए, तो यह संख्या सौ हो जाएगी। इस तरह अंक के दाहिनी ओर लिखे जाने पर मूल्यहीन शून्य, दूसरे अंकों का मूल्य बढ़ा देता है। संक्षेप में, स्थान के अनुसार अंकों के मूल्य निर्धारण के सिद्धान्त को स्थानीय मान कहते हैं। इस प्रणाली से किसी भी संख्या को लिखना बहुत आसान है। जिस तीन सौ चवालीस को हम रोमन प्रणाली में CCC XL IV लिखते हैं, उसे भारतीय विधि से ३४४ लिख सकते हैं। इस माध्यम से बड़ी से बड़ी संख्या बिना किसी कठिनाई के संक्षेप में लिखी जा सकती है। भारतीय गणित ने दशमलव प्रणाली का भी आविष्कार किया। भारत में दशमलव अंकों का सर्वप्रथम प्रयोग आर्यभट्ट प्रथम (४९९ ई.) द्वारा मिलता है। संभव है कि इसका आविष्कार इससे भी बहुत पहले हुआ हो। किन्त यूरोप में दशमलव अंक का सामान्य प्रचार सत्रहवीं शताब्दी में हुआ, जिसका ज्ञान निश्चित ही उसने भारत से प्राप्त किया था। ये भारतीय गणितीय सिद्धान्त यूरोप को अरब के माध्यम से प्राप्त हुए थे।
अरबी भाषा में इन अंकों को हिन्दसा कहते हैं। हिन्दसा अर्थात् 'हिन्द से प्राप्त'। अरबी लिपि दाएं से बाएं लिखी जाती है, किन्तु अरबी में अंक बायें से दायें लिखे जाते हैं। यह भी इस बात का प्रमाण है कि अरबी अंकों की उत्पत्ति अरबी भाषा के साथ अरब देश में नहीं हुई, अपितु ये बाहर से आयात किए गए हैं। अरबों के माध्यम से जब यह भारतीय अंक यूरोप पहुँचे तो उन्ह लगा कि ये अंक मूल रूप से अरबों द्वारा ही आविष्कार किए गए हैं। अतएव आज भी यूरोप में एक से नौ एवं शून्य के भारतीय अंकों को ‘एरेबिक न्युमरल’(अरबी गणनांक) कहते हैं।
इस्लाम के पैगम्बर हजरत मोहम्मद के पूर्व अरब देश में जिहालिया अर्थात् 'अज्ञान का युग' कहा जाता है। ज्ञान-विज्ञान में वहां कोई प्रगति नहीं हुई थी। पूरे कुरैश कबीले में, जिससे मोहम्मद साहब का संबंध था, केवल सत्रह लोग कुछ लिखना जानते थे। किन्त इस्लाम की स्थापना के साथ अरब साम्राज्य का विस्तार पिश्चम में स्पेन और उत्तरी अफ्रीका तथा पूर्व में भारत की सीमा तक हो गया। जो देश पराजित होकर अरब साम्राज्य में शामिल हुए, उनके आर्थिक प्रशासन के लिए अरबी गणना-प्रणाली, जो कि अत्यन्त प्रारंभिक स्तर की थी, अपर्याप्त सिद्ध हुई। अतएव विवश होकर अरबी शासकों को विजित जातियों के अंकों का प्रयोग करना पड़ा। खलीफा अल मंसूर (सन ७५३-७७४) के राज्यकाल के समय में सिन्ध से कुछ दूत बगदाद गए, जिनमें कुछ विद्वान भी थे। वे अपने साथ ब्रह्मगुप्त रचित ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त एवं खण्डखाद्यक नामक ग्रंथ भी अन्य ग्रंथों के साथ बगदाद ले गए। इन विद्वानों की सहायता से अल-फजारी एवं याकूब खां तारिक ने इनका अरबी में अनुवाद किया, जिसका अरबी गणित पर विशेष प्रभाव पड़ा। अरब लोगों में भारतीय ज्ञान, विज्ञान और कला के प्रति जो उस समय सम्मान था, वह अल जहीज की पुस्तिका- फकिर असम-सूदन अल-ल बिनद में लिखा हैः
पीसा (इटली) नगर के लियोनाडो ने, जिसने किसी मूर (अरबी) से हिन्दू गणित सीखा और सन १२०२ में लिबर एवैकी नामक पुस्तक लिखी, जिसका संशोधित संस्करण सन १२२८ में आया। इसमें उसने हिन्दू अंकों और उनकी उपयोगिता को समझाया। अलेक्जड र डे विलाडी (सन १२४०) और जान आक हेलीफाक्स (सन १२५०) की पुस्तकों ने भी ‘हिन्दू अंक प्रणाली’ का प्रसार किया। प्रारम्भ में इसका विरोध हुआ, किन्त पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य तक यूरोप के सभी देशों ने इनको स्वीकार कर लिया था।
अन्य यूरोपियन देशों ने भारतीय अंक प्रणाली को अरब से सीखा। चूँकि उन्हें यह अंक प्रणाली अरब से मिली थी इसलिये उन्होंने इसका नाम 'अरबी अंक प्रणाली' रख दिया। इतिहास का सही ज्ञान होने के बाद अब इसे 'हिंदू-अरेबिक अंक' या 'हिन्दू अंकप्रणाली' या 'भारतीय अंकप्रणाली' कहा जाने लगा है।
समय समय में तथा देश देश में भारतीय अंक प्रणाली के अंकों के संकेत में अनेक परिवर्तन हुये। अन्त में इन अंकों का स्वरूप 0, 1, 2, 3,.... के रूप में हो गया और इन्हें अन्तर्राष्ट्रीय मान्यता मिल गई।
आधुनिक अंक एवं अंक प्रणाली वास्तव में भारतीय ही हैं। वर्तमान में इन आधुनिक अंकों को "भारतीय अंकों का अन्तरराष्ट्रीय रूप" के नाम से जाना जाता है।
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