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उमैयद जनरल، विजेता सिंध और फारस के राज्यपाल विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
मुहम्मद बिन क़ासिम (अरबी: محمد بن قاسم, अंग्रेज़ी: Muhammad bin Qasim) इस्लाम के शुरूआती काल में उमय्यद ख़िलाफ़त के एक अरब सिपहसालार थे। उनहोंने १७ साल की उम्र में भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी इलाक़ों पर हमला बोला और सिन्धु नदी के साथ लगे सिंध और पंजाब क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया। यह अभियान भारतीय उपमहाद्वीप में आने वाले मुस्लिम राज का एक बुनियादी घटना-क्रम माना जाता है। इन्होंने राजा दाहिर को रावर के युद्ध में बुरी तरह परास्त किया । आसव खलीफा अलवजीफ के आदेश पर मकरान पर 712 A.D में हमला किया था।
इमाद-उद-दीन मुहम्मद बिन क़ासिम बिन युसुफ़ सकाफ़ी | |
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अपने सैनिकों को युद्ध में ले जाते हुए मुहम्मद बिन क़ासिम | |
जन्म |
३१ दिसम्बर ६९५ ताइफ़, अरबी प्रायद्वीप |
देहांत | १८ जुलाई ७१५ |
निष्ठा | हज्जाज बिन युसुफ़, उमय्यद ख़लीफ़ा अल-वलीद प्रथम का राज्यपाल |
उपाधि | अमीर |
युद्ध/झड़पें | उमय्यद ख़िलाफ़त के लिये सिन्ध और पश्चिमी पंजाब पर क़ब्ज़ा |
मुहम्मद बिन क़ासिम[मृत कड़ियाँ] का जन्म आधुनिक सउदी अरब में स्थित ताइफ़ शहर में हुआ था। वह उस इलाक़े के अल-सक़ीफ़ (जिसे अरबी लहजे में अल-थ़क़ीफ़ उच्चारित करते हैं) क़बीले का सदस्य था। उसके पिता क़ासिम बिन युसुफ़ का जल्द ही देहांत हो गया और उसके ताऊ हज्जाज बिन युसुफ़ ने (जो उमय्यादों के लिए इराक़ के राज्यपाल थे) उसे युद्ध और प्रशासन की कलाओं से अवगत कराया। उसने हज्जाज की बेटी ज़ुबैदाह से शादी कर ली और फिर उसे सिंध पर मकरान तट के रास्ते से आक्रमण करने के लिए रवाना कर दिया गया।
मुहम्मद बिन क़ासिम के भारतीय अभियान को हज्जाज कूफ़ा के शहर में बैठा नियंत्रित कर रहा था। ७१० ईसवी में ईरान के शिराज़ शहर से ६,००० सीरियाई सैनिकों,६०० ऊंटों की सेना तथा ३००० सामान ढोने वाले बाख्त्री ऊंट थे और अन्य दस्तों को लेकर मुहम्मद बिन क़ासिम पूर्व की ओर निकला। मकरान में वहाँ के राज्यपाल ने उसे और सैनिक दिए। उस समय मकरान पर अरबों का राज नया था और उसे पूर्व जाते हुए फ़न्नाज़बूर और अरमान बेला (आधुनिक 'लस बेला') में विद्रोहों को भी कुचलना पड़ा। फिर वे किश्तियों से सिंध के आधुनिक कराची शहर के पास स्थित देबल की बंदरगाह पर पहुंचे, जो उस ज़माने में सिंध की सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह थी।
देबल से अरब फ़ौजें पूर्व की ओर निकलती गई और रास्ते में नेरून और सहवान जैसे शहरों को कुचलती गई। यहाँ उन्होंने बहुत बंदी बनाए और उन्हें गुलाम बनाकर भारी संख्या में हज्जाज और ख़लीफ़ा को भेजा। बहुत सा ख़ज़ाना भी भेजा गया और कुछ सैनिकों में बाँटा गया। बातचीत करके अरबों ने कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने साथ मिला लिया। सिन्धु नदी के पार रोहड़ी में दाहिर सेन की सेनाएँ थीं जो हराई गई। दाहिर सेन की मृत्यु हो गई और मुहम्मद बिन क़ासिम का सिंध पर क़ब्ज़ा हो गया। दाहिर सेन के सगे-सम्बन्धियों को दास बनाकर हज्जाज के पास भेज दिया गया। ब्राह्मनाबाद और मुल्तान पर भी अरबी क़ब्ज़ा हो गया। यहाँ से मुहम्मद बिन क़ासिम ने सौराष्ट्र की तरफ दस्ते भेजे लेकिन राष्ट्रकूटों के साथ संधि हो गई। उसने भी बहुत से भारतीय राजाओं को ख़त लिखे की वे इस्लाम अपना लें और आत्म-समर्पण कर दें। उसने कन्नौज की तरफ १०,००० सैनिकों की सेना भेजी लेकिन कूफ़ा से उसे वापस आने का आदेश आ गया और यह अभियान रोक दिया गया।[1]
मुहम्मद बिन क़ासिम भारत में अरब साम्राज्य[मृत कड़ियाँ] के आगे विस्तार की तैयारी कर रहा थे जब हज्जाज की मृत्यु हो गई और ख़लीफ़ा अल-वलीद प्रथम का भी देहांत हो गयाggggg। अल वलीद का छोटा भाई सुलयमान बिन अब्द-अल-मलिक अगला ख़लीफ़ा बना। अपने तख़्त पर आने के लिए वह हज्जाज के राजनैतिक दुश्मनों का आभारी था और उसने फ़ौरन हज्जाज[मृत कड़ियाँ] के वफ़ादार सिपहसालारों, मुहम्मद बिन क़ासिम और क़ुतैबाह बिन मुस्लिम, को वापस बुला लिया। उसने याज़िद बिन अल-मुहल्लब को फ़ार्स, किरमान, मकरान और सिंध का राज्यपाल नियुक्त किया। याज़िद को कभी हज्जाज ने बंदी बनाकर कठोर बर्ताव किया था इसलिए उसने तुरंत मुहम्मद बिन क़ासिम को बंदी बनाकर बेड़ियों में डाल दिया। मुहम्मद बिन क़ासिम की मौत की दो कहानियाँ बताई जाती हैं:
कहानी जो भी हो, मुहम्मद बिन क़ासिम को उसके अपने ख़लीफ़ा ने बीस वर्ष की आयु में मार दिया। उसकी क़ब्र कहाँ है, यह भी अज्ञात है।
यह एक तारीखी हकीकत है कि मोहम्मद बिन कासिम को फतेह सिंध के साथ ही कत्ल कर दिया गया था और इसके सियासी वजूहात भी थे और उसमें सबसे बड़ी वजह सिंध पर उसका तसल्लुत था, मकामी लोगों ने जिस तरह से मोहम्मद बिन कासिम को अपना हुक्मरान मान लिया था उससे खलीफा वलीद बिन अब्दुल मलिक को यह ख्याल गुजरा कि कहीं वह सिंध में अपनी खुद मुख्तार हुकूमत ना कायम कर ले और इसी दौरान राजा दाहिर की लड़कियों का वाकिया गुजरा जिससे हुकूमत को मोहम्मद बिन कासिम को वापस बुलाने का मौका मिल गया और इसका जिक्र उसी दौर में लिखी गई किताब चचनामा में भी मिलता है।
मोहम्मद बिन कासिम हज्जाज बिन युसुफ़ का दामाद भी था और इराक और ईरान के साहिलों इलाकों में हज्जाज बिन युसुफ़ का दखल इतना बढ़ चुका था कि चाह कर भी खलीफा उसकी मुखालिफत नहीं कर सकता था। सिंध में लगातार हो रही नाकामी के बावजूद भी वलीद बिन अब्दुल मलिक नहीं चाहते थे कि हज्जाज अपने दामाद मोहम्मद बिन कासिम को लश्करकशी का जिम्मा सौपें लेकिन हज्जाज ने यही किया, और यहीं से उस कहानी की शुरुआत हुई कि जिसका अंजाम मोहम्मद बिन कासिम के साथ खत्म हुआ।
जब आप हकीकत की नजर से तारीख (history) का मुताला करेंगे तो आपको पता चलेगा कि मोहम्मद बिन कासिम का सियासी वजूहात की वजह से कत्ल किया गया था, यह कहानी कि खलीफा ने मोहम्मद बिन कासिम[मृत कड़ियाँ] को खुद को एक बक्से में बंद करके दारुल हुकूमत की तरफ रवाना होने को कहा इसमें कोई सच्चाई नजर नहीं आती क्योंकि अगर मोहम्मद बिन कासिम ने कोई गलती की थी या उस पर कोई इल्जाम लगा था तो बगैर उसकी दलील सुने उसका कत्ल कर देना कहीं का इंसाफ नहीं था लेकिन ऐसा किया गया क्योंकि सियासत को उस वक़्त भी खून की जरूरत थी।
Muhammad Bin Qasim: हिंदुस्तान में लंबे समय मुस्लिम सत्ता स्थापित रही है. अगर समय का आकलन किया जाए तो लगभग 12 सौ ई. से लेकर ब्रिटिश सत्ता के भारत का सिरमौर बनने तक भारत की शीर्ष सत्ता पर ज्यादातर मुसलमान शासक ही हुए. हालांकि ऐसा नहीं है कि इससे पहले तक भारतीय सरजमीं पर इस्लाम धर्म का आगमन नहीं हुआ हो.देश में 1200 ई. के आसपास पहली मुस्लिम सत्ता स्थापित होने से लगभग 500 साल पहले ही यहां इस्लाम ने दस्तक दे दी थी.
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