Loading AI tools
जर्मनी में एक भाषाविद ओर प्राच्य विकिपीडिया से, मुक्त विश्वकोश
[1]फ़्रीड्रिश मैक्स मूलर (Friedrich Max Müller; ०६ दिसम्बर १८२३ - २८ अक्टूबर १९००) एक जर्मनवासी था जो ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी का कर्मचारी था। वह एक जर्मन भाषाविद, वेद तथा प्राच्य विद्या विशारद था। ।[2][3] जन्म से जर्मन होने के बावजूद उसने अपना अधिकांश जीवन इंग्लैण्ड में बिताया और वहीं अध्ययन भी किया। वह पाश्चात्य शैक्षणिक भारतविद्या तथा तुलनात्मक धर्मशास्त्र का संस्थापक था।
मैक्स मूलर | |
---|---|
जन्म | फ़्रीड्रिश मैक्स मूलर 6 दिसंबर 1823 डेसाऊ, डची ऑफ एनहाल्ट, जर्मन परिसंघ |
मौत | 28 अक्टूबर 1900 (उम्र 76) ऑक्सफोर्ड, ऑक्सफ़र्डशायर, इंग्लैंड |
पेशा | लेखक, स्कॉलर |
राष्ट्रीयता | जर्मन/ब्रिटिश |
शिक्षा | यूनिवर्सिटी ऑफ लीपज़िग |
उल्लेखनीय कामs | 'द सेक्रेड बुक्स ऑफ द ईस्ट', 'चिप्स फ्रॉम ए जर्मन वर्कशॉप' |
जीवनसाथी | जॉर्जीना एडिलेड ग्रेनेफेल |
बच्चे | विल्हेम मैक्स मूलर |
हस्ताक्षर |
मैक्स मूलर ने भारत का ईसाईकरण करने का षड़यंत्र रचा। उसने सनातन हिन्दू धर्म व भारतीय संस्कृति को क्षति पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
6 दिसंबर 1823 को मैक्स मूलर का जन्म जर्मनी के देसो नामक शहर में हुआ था। उसके पिता विल्हेम मूलर जाने-माने कवि थे। मैक्स मूलर जब 4 साल का हुआ तो उसके पिता का निधन हो गया। 6 साल की उम्र में मैक्स मूलर ने जर्मनी के एक ग्रामर स्कूल में शिक्षा लेनी शुरू की। 1843 में उच्च शिक्षा की डिग्री हासिल की। इसके बाद से ही मैक्स मूलर, संस्कृत, ग्रीक, लैटिन, अरबी और फारसी जैसी प्राचीन भाषाओं की ओर रुचि दिखाने लगा।
1846 में मैक्स मूलर इंग्लैंड पहुंच गया और संस्कृत पर अनुस्न्धान के साथ-साथ ऋग्वेद का अनुवाद करने लगा। यहां बुन्सेन और प्रो. एच.एच. विल्सन ने ऋग्वेद के अनुवाद में मैक्स मूलर की बहुत सहायता की। 1848 में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में ऋग्वेद का मुद्रण शुरू हुआ और मैक्स मूलर ने इसी स्थान को अपना घर बना लिया। 1850 में मैक्स मूलर को ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में आधुनिक यूरोपी भाषा के प्रोफेसर की नौकरी मिल गई।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में रहते हुए मैक्स मूलर ने कई लेख लिखे, जिन्हें बाद में ‘चिप्स फ्रॉम ए जर्मन वर्कशाप’ शीर्षक से संग्रह रूप में प्रकाशित किया गया। 1859 में मैक्स मूलर ने ‘हिस्ट्री आफ एंशेंट संस्कृत लिटरेचर’ प्रकाशित की। मैक्स मूलर चाहता था कि ऑक्सफोर्ड में उसे संस्कृत विभाग का आचार्य बनाया जाए, लेकिन पद रिक्त होने के बाद भी मैक्स मूलर को नहीं चुना गया। वजह थी कि मैक्स मूलर विदेशी था। इस घटना से मैक्स मूलर को काफी गहरा झटका लगा। हालांकि, 1868 में मैक्स मूलर को भाषाशास्त्र का आचार्य बना दिया गया।
मैक्स मूलर ने 1861 और 1863 में ‘रॉयल इंस्टीट्यूशन’ के सामने भाषाविज्ञान सम्बन्धी कई व्याख्यान दिए। बाद में मैक्स मूलर के ये व्याख्यान ‘लेक्चर्स ऑन सायंस ऑफ लैंग्वेजज’ के नाम से प्रकाशित हुए। मैक्स मूलर ने भाषा विज्ञान को ‘भौतिक विज्ञान’ की श्रेणी में माना है, जबकि यह वस्तुत: ऐतिहासिक या सामाजिक विज्ञान की एक विद्या है। मैक्स मूलर ने भाषाशास्त्री के लिये संस्कृत के अध्ययन की आवश्यकता को इतना महत्व दिया कि उनके शब्दों में, ‘संस्कृत-ज्ञान-शून्य तुलनात्मक भाषाशास्त्री उस ज्योतिषी के समान है, जो गणित नहीं जानता।‘
थॉमस एल्वा एडिसन अपने ग्रामोफोन का आविष्कार कर चुके थे और और यह गलत जानकारी कुछ लोगों ने प्रचलित कर दी है कि उन्होंने अपने कुछ शब्दों के चुनाव की जिम्मेदारी मैक्समूलर को सौंपी थी। इस जानकारी के अनुसार ये शब्द ऋग्वेद से लिए गए थे और फोनोग्राफ में रिकॉर्ड होने वाले पहले शब्द थे। सच्चाई ये है कि फोनोग्राफ में सुना गया पहला वाक्य था-मेरी हैड ए लिटिल लैम्ब।
मैक्स मूलर का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य 51 जिल्दों में ‘सैक्रेड बुक्स ऑफ़ दि ईस्ट’ (पूर्व के धार्मिक-पवित्र-ग्रंथ) का संपादन रहा है। यह कार्य 1875 में शुरू किया गया था, लेकिन तीन जिल्दों के अलावा सारा कार्य मैक्स मूलर के जीवनकाल में ही प्रकाशित हो चुका था। मैक्स मूलर ने ‘भारतीय दर्शन’ पर भी रचनाएं की थीं। अंतिम दिनों वह बौद्ध दर्शन में अधिक रुचि रखने लगा था। 28 अक्टूबर 1900 को ऑक्सफोर्ड में ही मैक्स मूलर का निधन हुआ।
फ्रेडरिक मैक्समूलर एक ऐसा नाम है जिसे ब्रिटिश शासनकाल में ब्रिटिश राजनीतिज्ञों, प्रशासकों और कूटनीतिज्ञों ने एक सदी (१८४६-१९४७) तक लगातार हिन्दुओं का एक अभिन्न मित्र और वेदों के महान विद्वान के रूप में प्रस्तुत किया ! परन्तु क्या यह सत्य है ? जी नहीं सत्य ऐसे बिलकुल विपरीत है ! वास्तव में मैक्स मूलर हिन्दुओं और हिन्दू धर्मशास्त्रों का एक महान शत्रु था, परन्तु दुर्भाग्य से, उस समय के ही नहीं, बल्कि आज के हिन्दू भी उसके उद्देश्य व कार्य के दूरगामी प्रभाव को समझने में असफल रहे हैं क्योंकि मैक्समूलर ने अपनी लेखनी की चतुराई द्वारा अपने वास्तविक स्वरूप और वेद भाष्य के विकृतीकरण के उद्देश्य को बड़े योजनाबद्ध तरीके से छिपाए रखा, यहाँ तक कि उसके निधन के बाद सन् १९०१ में प्रकाशित स्वलिखित जीवनी में भी उसे उजागर नहीं किया !
उन्नीसवी सदी के हिन्दू, मैक्समूलर उसके मेक्समूलरवाद को पहचानने और समझने में पूरी तरह विफल रहे है क्यूंकि हिन्दुओं के आमतौर पर अत्यंत सरल होने के कारण उन्होंने उसे ही सच मान लिया जी कि मेक्समूलर ने कहा और लिखा ! इसके अतिरिक्त उसे आजीवन अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजों का पूर्ण समर्पण और सहयोग मिलता रहा जो कि उस समय भारत को गुलाम बनाए हुए थे ! इसी कारण वह भाषा विज्ञान-शोध की आड़ में छिपकर लगातार हिन्दू धर्म एवं वेदों पर प्रहार करता रहा !
अंग्रेज शासक लगातार यही प्रचार करते रहे कि मैक्समूलर तो वेदों का महान विद्वान और हिन्दू धर्म तथा हिन्दुओं का शुभचिंतक है ! अंग्रेज अपने इस कथन की पुष्टि इस बात से करते हैं कि उसने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में १८४६ से १९०० तक वेदों और हिन्दू धर्मशास्त्रों पर एक विशाल साहित्य स्वंय लिखा तथा अपने जैसे सहयोगी लेखकों द्वारा लिखवाकर उसे स्वयं संपादित किया !
अब यह समझना अत्यंत आवश्यक है कि क्या मैक्समूलर वास्तव में वेदों और हिन्दू धर्म शास्त्रों का प्रशंसक और भारत का मित्र था ? क्या वह वेदों, उपनिषदों, दर्शनों आदि के उदात्त, प्रेरणादायक और आध्यात्मिक चिंतन से प्रभावित था, और उन्हें वह अंग्रेजी माध्यम से विश्वभर में फैलाना चाहता था ? क्या वह भारतीय धर्मशास्त्रों का जिज्ञासु था ? क्या उसने ऋग्वेद का भाष्य भारतीय प्राचीन या स्कीय-पाणिनीय पद्धति के अनुसार किया था ? उसने सायण-भाष्य को ही आधार क्यों माना ? क्या उसने सायण के सभी मापदण्डों को अपनाया ? यदि नहीं, तो क्यो ? आखिर उसे वेदों में क्या मिला ?
क्या वह तुलनात्मक भाषा विज्ञान और गाथावाद के शोध की आड़ में एक पक्षपाती, पूर्वाग्रही और छद्मवेशी सैक्यूलर ईसाई मिशनरी था ? जो वेदों और हिन्दू धर्म शास्त्रों के भ्रामक अर्थ करके हिन्दू धर्म को समूल नष्ट करना चाहता था ! क्या वह वेदों को बाईबिल से निचले स्तर का दिखाकर भारतीयों को ईसाईयत में धर्मान्तरित करना और भारत में ब्रिटिश राज को सुदृढ़ करना चाहता था ? आखिर उसने वेदों और भारत के प्राचीन इतिहास के बारे में अनेक कपोल-कल्पित मान्यताएं क्यों स्थापित कीं ? इसके अलावा ईस्ट इंडिया कंपनी ने भी अंग्रेजी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के ज्ञान में अधकचरे, चौबीस वर्षीय, अनुभवहीन गैर-ब्रिटिश, जर्मन युवक मैक्समूलर को ही वेदभाष्य के लिए क्यों चुना ?
उसने वेदों का विकृतीकरण क्या, क्यों और कैसे किया ? इन्हीं कुछ प्रश्नों को यहाँ संक्षेप में विश्लेषण किया जाएगा ताकि अधकचरे ज्ञानी हिन्दू और सैक्यूलरवादी, जो उसके विकृत साहित्य के आधार पर समय-समय पर हिन्दू धर्म की निंदा करते रहते हैं, उसकी वास्तविकता तथा उसके निहित उद्देश्य को समझ सकें ! इसके लिए हमें तत्कालीन ब्रिटिश शासित भारत की धार्मिक व राजनैतिक स्थितियों को समझना होगा, जिनके कारण उन्हें एक मैक्समूलर की तलाश करनी पड़ी !
हम यहाँ कुछ मुख्य बिंदु प्रस्तुत कर रहे हैं !
मैंक्समूलर को बढ़ावा देना मैकाले की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा था | मैकाले के मन में भारत के प्राचीन संस्कृत साहित्य के प्रति घृणात्मक भाव होना अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि पराधीनों की संस्कृति विजेताओं से श्रेष्ठतर कैसे हो सकती है, विशेषकर जब उन्हें उन पर शासन करना हो ? जैसा कि उसने कहा भी था –
(2 Feb. 1835 Proc. On education).
अर्थात् ”मैंने सारे भारत का भ्रमण किया है और मैंने एक भी व्यक्ति को चोर और भिखारी नहीं पाया है ! मैंने इस देश में इतनी सम्पदा देखी है तथा इतने उच्चनैतिक आदर्श देखें हैं और इतने उच्च योग्यता वाले लोग देखें हैं कि मैं नहीं समझता कि हम कभी इसे जीत पाऐंगे जब तक कि इसके मूल आधार को ही नष्ट न कर दें जो कि इस देश की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक धरोहर है और इसीलिए मैं प्रस्तावित करता हूँ कि हम उसकी प्राचीन और पुरानी शिक्षा पद्धति और उकीस संस्कृति को बदल दें क्यों यदि भारतीय यह सोचने लगें कि जो कुछ विदेशी और अंग्रेजी है, वह उनकी अपनी संस्कृति से अच्छा और उत्तम है तो वे अपना स्वाभिमान एवं भारतीय संस्कृति को खो देंगे और वे वैसे ही हो जायेंगे जैसा कि हम चाहते हैं, पूरी तरह एक पराधीन राष्ट्र !”
(२ फरवरी १८३५, प्रोसी, शिक्षा)
”उसने सच्चाई से स्वीकारा भी कि भारत में अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की स्थापना का उद्देश्य वास्तव में, ऊँची जातियों के हिन्दुओं को ईसाईयत में धर्मान्तरित करने का था और ऐसा ही उसने कलकत्ता से, १२ अक्टूबर १८३६ को, अपने पिता को एक पत्र में लिखा भी थाः
(Life and Letters of Lord Macaulay. Pp. 329-30; Bharti, pp. 46-47).
अर्थात् ”हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यजनक गति से बढ़ हे हैं ! निसंदेह कुछ जगहों पर ऐसा होना मुश्किल हो रहा है, कुछ जगहों पर हमें उन सबकों शिक्षा दे पाना असंभव हो रहा है जो कि ऐसा चाहते हैं ! हुगली शहर में चौदह सौं लड़के अंग्रेजी सीख रहे हैं ! इस शिक्षा का हिन्दुओं पर आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ रहा है ! कोई भी हिन्दू जिसने अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त कर ली है, वह निष्ठापूर्वक हिन्दू धर्म से जुड़ा हुआ नहीं रहता है ! कुछ एक, औपचारिकता के रूप में, नाम मात्र को हिन्दू धर्म से जुड़े दिखाई देते हैं, लेकिन अनेक स्वयं को ‘शुद्ध देववादी’ कहते हैं तथा कुछ ईसाईमत अपना लेते हैं ! यह मेरा पूरा विश्वास है यदि हमारी शिक्षा की योजनाएँ चलती रहीं तो तीस साल बाद बंगाल के सम्भ्रान्त परिवारों में एक भी मूर्तिपूजक नहीं रहेगा और ऐसा किसी प्रकार के प्रचार एवं धर्मान्तरण किए बगैर हो सकेगा ! किसी धार्मिक आजादी में न्यूनतम हस्तक्षेप न करते हुए ऐसा हो सकेगा ! ऐसा स्वाभाविक ज्ञान देने की प्रक्रिया द्वारा हो जाएगा ! मैं हृदय से उस योजना के परिणामों से प्रसन्न हूँ !” आपका अत्यन्त प्रिय टी.बी. मैकॉले
(लार्ड मैकॉले की जीवनी और पत्र, पृ. ३२९; भारती पृ. ४६-४७)
मैकॉले के विचारों की पुष्टि करते हुए ”पादरी क्लिफोर्ड ने ईमानदारी से यह स्वीकारा है
“Every Christian missionary will claim that the mission school in India has a definite purpose. He may be specific and say that the funcgtion of mission schools in India is to lead boys and girls to lesus Christ.”
(Christianity in a Changing India, p. 147).
अर्थात् ”प्रत्येक ईसाई मिशनरी यह निश्चित तौर पर जानते हैं कि भारत में मिशन स्कूलों का एक निश्चित उद्देश्य क्या है ! वे जानते हैं कि भारत में मिशन स्कूलों का कार्य लड़के और लड़कियों को जीजस क्राइस्ट की ओर ले जाने का है !
(क्रिश्चियनिटी इन चैंजिंग इंडिया, पृ. १४७)
इसी निश्चित उद्देश्य के प्रति मैक्समूलर को सचेष्ट करने हेतु दिसम्बर १८५५ में मैकॉले ने उसे मिलने को बुलाया | इस भेंट का सम्पूर्ण वृतांत और उसके प्रभाव को स्वयं मेक्समूलर ने १८९८ में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘लैंग सायने’ में स्पष्ट किया है ! एक प्रकार से मैकॉले ने मैक्समूलर को अपमानजनक ढंग से आदेश देकर रुखसत किया ! अपनी माँ को लिखे पत्र में मैक्समूलर ने इस बदनाम साक्षात्कार का वर्णन किया है ! उसने दुखित मन से लिखाः
“Macaulay, and I had a long conversation with him on the teaching necessary for the young men who are sent out to India. He is very clear headed, and extraordinarily eloquent……I went back to Oxford a sadder, and I hope, a wiser man.” (LLMM, Vol. 1, p. 162; Bharti, pp. 35-36).
इस बार मैं लंदन में मैकाले से मिला और उसके साथ मेरी भारत भेजे जाने वाले नौजवानों को क्या सिखाकर भेजा जाए, इस विषय पर लम्बी बातचीत हुई । निश्चित ही उसके विचार एकदम स्पष्ट हैं और वह असाधारण रूप से वाक्पटु व्यक्ति है | मैं और अधिक दुःखी होकर ऑक्सफोर्ड वापिस लौटा, किन्तु शायद, अधिक समझदार मनुष्य बनकर”
(जी.प.खं. १, पृ. १६२)
मूलर के जीवनी लेखक नीरद चौधरी का मत है कि ‘इस भेंट के बाद उसने मध्यम मार्ग अपनाया’, (वही. पृ. १३४), या यह कहिए कि उसने एक बहुरुपिया जैसा खेल खेला जिससे कि ब्रिटिशों के राजनैतिक उद्देश्यों की भी पूर्ति होती रह और भारतीयों को भी शब्द जाल में बहकाए रखा ? मैक्समूलर एक अर्न्तमुखी व्यक्ति था जिसने ऋग्वेद के भाष्य करने के पीछे अपने सच्चे मनोभावों और उद्देश्यों को अपने जीवन भर कभी भी सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया ! मगर अपने हृदय की भावनाओं को १५ दिसम्बर १८६६ को केवल अपनी पत्नी को लिखे पत्र में अवश्य व्यक्त किया ! उसके ये मनोभाव एवं उद्देश्य आम जनता को तभी पता चल सके जब उसके निधन के बाद, १९०२ में उसकी पत्नी जोर्जिना मैक्समूलर ने उसकी जीवनी व पत्रों को सम्पादित कर दो खण्डों में एक दूसरी जीवनी प्रकाशित की ! यदि श्रीमती जोर्जिना उसे अप्रकाशित पत्रों को प्रकाशित न करती तो विश्व उस छद्मवेशी व्यक्ति के असली चेहरे को आज तक भी नहीं जान पाता ! अपनी पत्नी को लिखे इस पत्र में मैक्समूलर ने अपने वेद भाष्य के उद्देश्य को पहली बार दिल खोलकर उजागर किया ! वह लिखता हैः
“I hope I shall finish that work, and I feel convinced, though I shall not live to see it, that this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.”
(LLMM. Vol, 1, p. 328).
अर्थात् ”मुझे आशा है कि मैं इस काम को (सम्पादन-भाष्य आदि) पूरा कर दूंगा और मुझे निश्चय है कि यद्यपि मैं उसे देखने के लिए जीवित न रहूँगा तो भी मेरा ऋग्वेद का यह संस्करण और वेद का अनुवाद भारत के भाग्य और लाखों भारतीयों की आत्माओं के विकास पर प्रभाव डालने वाला होगा ! यह (वेद) उनके धर्म का मूल है और मूल को उन्हें दिखा देना जो कुछ उससे पिछले तीन हजार वर्षों में निकला है, उसको मूल सहित उखाड़ फैंकने का सबसे उत्तम तरीका है !
(जी.प.,खं. १, ३२८)
यहाँ मैक्समूलर स्वयं सच्चाई स्वीकारता है कि उसके वेद भाष्य का उद्देश्य क्या था ! वह स्पष्ट कहता है कि उसके वेद और उससे निकले हिन्दू धर्म शास्त्रों के भाष्यादि का उद्देश्य हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़ फैंकने का हैं भले ही वेदों में कितना ही श्रेष्ठ ज्ञान क्यों न हो ! यदि वह इतना पक्षपाती और पूर्वाग्रही है, तो उसके साहित्य को पढ़ना और मानना ही व्यर्थ है !
इसका अर्थ यह भी हुआ कि जो कोई आज मैक्समूलर के वेद भाष्य को प्रामाणिक मानता है तथा वैसा प्रचार करता है, वह भी हिन्दू धर्म को जड़ से उखाड़ कर फैंक देना चाहता हूँ जैसा कि हम ईसाई मिशनरियों एवं कम्युनिष्टों के साहित्य व प्रचार कार्यों में देखते हैं !
उपरोक्त समर्पण पत्र में मैक्समूलर १८८२ में ‘ऋग्वेद’ और ‘सेक्रेड बुक्स ऑफ दी ईस्ट’ (अन्य धर्मों के ग्रंथों) के सम्पादन आदि के लिए अंग्रेजी के प्रति कृतज्ञता बार-बार प्रकट करता है !
”अंग्रेजों ने मैक्समूलर की व्यक्तिगत आवश्यकताओं की पूर्ति की, इसके बदले में मैक्समूलर ने अपनी आत्मा का ही बलिदान दिया !”
हालांकि मैक्समूलर के निधन को आज कई वर्ष हो गए हैं और अंग्रेजों का राज्य भी भारत में समाप्त हो गया है ! इस काल खंड में मैक्समूलर के सभी सिद्धान्तों की धज्जियाँ उड़ा दी गई हैं, परन्तु फिर भी केवल थोड़े से ही भारतीय मैक्समूलर के असली चेहरे को भली-भांति जानते होंगे ! अधिकांश बुद्धिजीवी, जो उसके कार्यों से सुपरिचित होने का दावा करते हैं ! वे अक्सर कही-सुनी अप्रामाणिक जानकारी पर दम्भ करते हैं जो कि सामान्यतया विरूपित होती है परन्तु हिन्दू विरोधी सेक्यूलरवादी आज भी योजनाबद्ध ढंग से उसे ही प्रचारित कर रहे हैं ! परिणामस्वरूप वे जाने-अनजाने मित्र और शत्रु में भेद करने में असफल रहे हैं !
Seamless Wikipedia browsing. On steroids.
Every time you click a link to Wikipedia, Wiktionary or Wikiquote in your browser's search results, it will show the modern Wikiwand interface.
Wikiwand extension is a five stars, simple, with minimum permission required to keep your browsing private, safe and transparent.