सौन्दर्यशास्त्र
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सौंदर्यशास्त्र(अंग्रेज़ी-Aesthetics) ,सौन्दर्य-मीमांसा, या सौन्दर्य का सिद्धांत, दर्शनशास्त्र की वह शाखा है जो सुंदरता, कला और रसात्मक अनुभव के स्वभाव के अध्य्यन तथा उनके सैद्धांतिक समीक्षा से संपृक्त है।[1] सौन्दर्यशास्त्र वह शास्त्र है जिसमें कलात्मक कृतियों, रचनाओं आदि से अभिव्यक्त होने वाला अथवा उनमें निहित रहने वाले सौंदर्य का तात्विक और मार्मिक विवेचन होता है। यह सौन्दर्यपरक मूल्यों पर विमर्श है, जो विशेषतः, रस की प्रसमिक्षा (judgement of taste) से अभिव्यंजित होता है।[2] इसे कला-दर्शनशास्त्र के नाम से भी जानते हैं, हांलाकि कुछ दार्शनिकों का मानना है कि इनमें कुछ भिन्नता हैं।[3]
सौंदर्यशास्त्र | |
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विद्या विवरण | |
अधिवर्ग | दर्शनशास्त्र,मूल्यमीमांसा |
विषयवस्तु | सुंदरता और रस का दार्शनिक अध्य्यन |
प्रमुख विद्वान् | अरस्तू, जोसेफ एडिसन, फ्रांसिस हचसन, डेविड ह्यूम, अलेक्जेंडर बॉमगार्टन, विलियम होगार्थ, इमैनुएल कांट, फ्रेडरिक शिलर, हेगेल, एडमंड बर्क, जॉर्ज संतायना, जॉन डेवी, बेनेडेटो क्रोस, एडुआर्ड हंसलिक, वाल्टर बेंजामिन, थियोडोर एडोर्नो, मार्टिन हाइडेगर, जीन बॉडरिलार्ड |
इतिहास | सौंदर्यशास्त्र का इतिहास |
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किसी वस्तु को देखकर हमारे मन में जो आनन्ददायिनी अनुभूति होती है उसके स्वभाव और स्वरूप का विवेचन तथा जीवन की अन्यान्य अनुभूतियों के साथ उसका समन्वय स्थापित करना इनका मुख्य उद्देश्य होता है। कला, संस्कृति और प्रकृति का प्रतिअंकन ही सौंदर्यशास्त्र है।[4] सौंदर्यशास्त्र की परिधि अनुभवों के प्राकृतिक और कृत्रिम दोनों स्रोतों को शामिल करती है और यह समीक्षा करता है कि हम उन स्रोतों के बारे में कैसा निर्णय बनाते हैं। सौंदर्यशास्त्र के प्रमुख प्रश्न हैं, "कला क्या है ?", "कला का काम क्या है?" और "क्या चीज,एक कला को अच्छी कला बनाती है?"