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राजस्थान का इतिहास
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पुरातत्व के अनुसार राजस्थान का इतिहास पूर्व पाषाणकाल से प्रारम्भ होता है। आज से करीब तीस लाख वर्ष पहले राजस्थान में मनुष्य मुख्यतः बनास नदी के किनारे या अरावली के उस पार की नदियों के किनारे निवास करता था। आदिम मनुष्य अपने पत्थर के औजारों की मदद से भोजन की तलाश में हमेशा एक स्थान से दूसरे स्थान को जाते रहते थे, इन औजारों के कुछ नमूने बैराठ, रैध और भानगढ़ के आसपास पाए गए हैं।
प्राचीन काल
सारांश
परिप्रेक्ष्य
अतिप्राचीनकाल में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान वैसा बीहड़ मरुस्थल नहीं था जैसा वह आज है। इस क्षेत्र से होकर सरस्वती और दृशद्वती जैसी विशाल नदियां बहा करती थीं। इन नदी घाटियों में हड़प्पा, ‘ग्रे-वैयर’ और 'रंगमहल' जैसी संस्कृतियां फली-फूलीं। यहां की गई खुदाइयों से खासकर कालीबंगा के पास, पांच हजार साल पुरानी एक विकसित नगर सभ्यता का पता चला है। हड़प्पा, ‘ग्रे-वेयर’ और रंगमहल संस्कृतियां सैकडों किलोमीटर दक्षिण तक राजस्थान के एक बहुत बड़े इलाके में फैली हुई थीं।[1][2]
इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि ईसा पूर्व चौथी सदी और उसके पहले यह क्षेत्र कई छोटे-छोटे गणराज्यों में बंटा हुआ था। इनमें से दो गणराज्य मालवा और शिवी इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने सिकंदर को पंजाब से सिंध की ओर लौटने के लिए बाध्य कर दिया था, उस दौरान शिवी जनपद का शासन भील शासकों के पास था , तत्कालीन भील शासकों की शक्ति का अंदाजा इस बात से भी लगाया का सकता है कि , उन्होंने विश्वविजेता सिकंदर को भारत में प्रवेश नहीं करने दिया । उस समय उत्तरी बीकानेर पर एक गणराज्यीय योद्धा कबीले यौधेयत का अधिकार था।
महाभारत में उल्लिखित मत्स्य महाजनपद पूर्वी राजस्थान और जयपुर के एक बड़े हिस्से पर शासन करते थे। जयपुर से 80 कि॰मी॰ उत्तर में बैराठ, जो तब विराटनगर कहलाता था, उनकी राजधानी थी। इस क्षेत्र की प्राचीनता का पता अशोक के दो शिलालेखों और चौथी पांचवी सदी के बौद्ध मठ के भग्नावशेषों से भी चलताहै।[3][4]
भरतपुर, धौलपुर और करौली उस समय सूरसेन जनपद के अंश थे जिसकी राजधानी मथुरा थी। भरतपुर के नोह नामक स्थान में अनेक उत्तर-मौर्यकालीन मूर्तियां और बर्तन खुदाई में मिले हैं। शिलालेखों से ज्ञात होता है कि कुषाणकाल तथा कुषाणोत्तर तृतीय सदी में उत्तरी एवं मध्यवर्ती राजस्थान काफी समृद्ध इलाका था। राजस्थान के प्राचीन गणराज्यों ने अपने को पुनर्स्थापित किया और वे मालवा गणराज्य के हिस्से बन गए। मालवा गणराज्य हूणों के आक्रमण के पहले काफी स्वायत्त् और समृद्ध था। अंततः छठी सदी में तोरामण के नेतृत्तव में हूणों ने इस क्षेत्र में काफी लूट-पाट मचाई और मालवा पर अधिकार जमा लिया। लेकिन फिर यशोधर्मन ने हूणों को परास्त कर दिया और दक्षिण पूर्वी राजस्थान में गुप्तवंश का प्रभाव फिर कायम हो गया। सातवीं सदी में पुराने गणराज्य धीरे-धीरे अपने को स्वतंत्र राज्यों के रूप में स्थापित करने लगे।[5]
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मध्यकाल

राजस्थान में प्राचीन सभ्यताओं के केन्द्र:
आधुनिक काल
ब्रिटिश राज में
राजस्थान में ब्रिटिश सत्ता का विरोध ज्यादातर आदिवासियों और राजपूतो ने किया, जिनमें भील प्रमुख जनजाति ब्रिटिश सरकार के खिलाफ खड़ी हुई। भीलो को नियंत्रण में लाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने भील सरदार वसावा, मराठा प्रमुख और राजपूत प्रमुख के साथ मिलकर एक बैठक की जिसमें यह निर्णय लिया कि भील और राजपूत बिना किसी रोक के खेती कर सकेंगे।
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात राजस्थान
सारांश
परिप्रेक्ष्य
राजस्थान का एकीकरण
राजस्थान भारत का एक महत्वपूर्ण प्रान्त है। यह 30 मार्च 1949 को भारत का एक ऐसा प्रांत बना, जिसमें तत्कालीन राजपूताना की ताकतवर रियासतें विलीन हुईं। जाटों ने भी अपनी रियासत के विलय राजस्थान में किया था। राजस्थान शब्द का अर्थ है: 'राजाओं का स्थान' क्योंकि यहां राजपूतों ने पहले राज किया था इसलिए राजस्थान को राजपूताना कहा जाता था। भारत के संवैधानिक-इतिहास में राजस्थान का निर्माण एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।
ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत को आजाद करने की घोषणा करने के बाद जब सत्ता-हस्तांतरण की कार्यवाही शुरू की, तभी लग गया था कि आजाद भारत का राजस्थान प्रांत बनना और राजपूताना के तत्कालीन हिस्से का भारत में विलय एक दूभर कार्य साबित हो सकता है। आजादी की घोषणा के साथ ही राजपूताना के देशी रियासतों के मुखियाओं में स्वतंत्र राज्य में भी अपनी सत्ता बरकरार रखने की होड़ सी मच गयी थी, उस समय वर्तमान राजस्थान की भौगालिक स्थिति के नजरिये से देखें तो राजपूताना के इस भूभाग में कुल 19 देशी रियासतें, 3 ठिकाने व एक केंद्र शासित प्रदेश था।केन्द्र शासित प्रदेश का नाम अजमेर मेरवाडा था जो सीधे केन्द्र यानि अग्रेजों के अधीन था। इनमें एक रियासत अजमेर मेरवाडा प्रांत को छोड़ कर शेष देशी रियासतों पर देशी राजा महाराजाओं का ही राज था। अजमेर-मेरवाडा प्रांत पर ब्रिटिश शासकों का कब्जा था; इस कारण यह तो सीघे ही स्वतंत्र भारत में आ जाती, मगर शेष 19 रियासतों का विलय होना यानि एकीकरण कर 'राजस्थान' नामक प्रांत बनाया जाना था। सत्ता की होड़ के चलते यह बड़ा ही दूभर लग रहा था क्योंकि इन देशी रियासतों के शासक अपनी रियासतों के स्वतंत्र भारत में विलय को दूसरी प्राथमिकता के रूप में देख रहे थे। उनकी मांग थी कि वे सालों से खुद अपने राज्यों का शासन चलाते आ रहे हैं, उन्हें इसका दीर्घकालीन अनुभव है, इस कारण उनकी रियासत को 'स्वतंत्र राज्य' का दर्जा दे दिया जाए। करीब एक दशक की ऊहापोह के बीच 18 मार्च 1948 को शुरू हुई राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया कुल सात चरणों में एक नवंबर 1956 को पूरी हुई। इसमें भारत सरकार के तत्कालीन देशी रियासत और गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल और उनके सचिव वी. पी. मेनन की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी। इनकी सूझबूझ से ही राजस्थान के वर्तमान स्वरुप का निर्माण हो सका।
- राजस्थान एकीकरण से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण बातें-
- राजस्थान का एकीकरण कुल सात चरणों में 17/18 मार्च, 1948 से प्रारम्भ होकर 1 नवम्बर, 1956 को सम्पन्न हुआ, इसमें 8 वर्ष, 7 माह एवं 14 दिन या 3144 दिनका समय लगा।
- भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 की 8 वी धारा या 8 वें अनुच्छेद में देशी रियासतों को आत्म निर्णय का अधिकार दिया गया था।
- एकीकरण हेतु 5 जुलाई 1947 को रियासत सचिवालय की स्थापना करवाई गयी थी।
- इसके अध्यक्ष सरदार वल्लभ भाई पटेल व सचिव वी पी मेनन थे।
- रियासती सचिव द्वारा रियासतों के सामने स्वतंत्र रहने की निम्न शर्त रखी गई थी–
- जनसंख्या 10 लाख से अधिक होनी चाहिये।
- वार्षिक आय 1 करोड से अधिक होनी चाहिये।
- उपर्युक्त शर्तो को पूरा करने वाली राज. में केवल 4 रियासतें थी–जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर
इसी के साथ 1 नवम्बर, 1956 आज से राजस्थान का निर्माण या एकीकरण पूरा हुआ। जो राजस्थान के इतिहास का एक अति महत्ती कार्य था 1 नवंबर 1956 को राजप्रमुख का पद समाप्त कर राज्यपाल का पद सृजित किया गया था।
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इन्हें भी देखें
बाहरी कड़ियाँ
- राजस्थान का एकीकरण (राजस्थान एटलस - मानचित्रावली)
सन्दर्भ
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