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गुरु तेग़ बहादुर
नवम सिख गुरु थे। / From Wikipedia, the free encyclopedia
श्री गुरु तेग बहादुर जी सिखों के नौवें गुरु थे। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धान्त की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है। श्री गुरु तेग बहादुर जी विश्व मे प्रभावशील गुरू है।
"धरम हेत साका जिनि कीआ सीस दीआ पर सिरड न दीआ।" |
—एक सिक्ख स्रोत[1] |
गुरु तेग बहादुर | |
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ਗੁਰੂ ਤੇਗ਼ ਬਹਾਦਰ | |
![]() A mid-17th-century portrait of Guru Tegh Bahadur painted by Ahsan | |
धर्म | सिख धर्म |
अन्य नाम |
हिंद दी चादर ("Shield of India") Ninth Master Ninth Nanak Srisht-di-Chadar ("Shield of Humanity") |
व्यक्तिगत विशिष्ठियाँ | |
जन्म |
त्याग मल वैशाख कृष्ण पंचमी 21 April 1621 (1621-04-21) अमृतसर, Lahore Subah, Mughal Empire (present-day Punjab, India) |
निधन |
24 November 1675 (1675-11-25) (aged 54) Delhi, Mughal Empire (present-day India) |
जीवनसाथी | माता गुजरी |
बच्चे | गुरु गोबिन्द सिंह |
पिता | गुरु हरगोबिन्द सिंह |
पद तैनाती | |
कार्यकाल | 1665–1675 |
पूर्वाधिकारी | गुरु हरकृष्ण |
उत्तराधिकारी | गुरु गोविंद सिंह |
![]() |
सिख सतगुरु एवं भक्त |
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सतगुरु नानक देव · सतगुरु अंगद देव |
सतगुरु अमर दास · सतगुरु राम दास · |
सतगुरु अर्जन देव ·सतगुरु हरि गोबिंद · |
सतगुरु हरि राय · सतगुरु हरि कृष्ण |
सतगुरु तेग बहादुर · सतगुरु गोबिंद सिंह |
भक्त रैदास जी भक्त कबीर जी · शेख फरीद |
भक्त नामदेव |
धर्म ग्रंथ |
आदि ग्रंथ साहिब · दसम ग्रंथ |
सम्बन्धित विषय |
गुरमत ·विकार ·गुरू |
गुरद्वारा · चंडी ·अमृत |
नितनेम · शब्दकोष |
लंगर · खंडे बाटे की पाहुल |
उन्होने मुगलिया सल्तनत का विरोध किया। 1675 में मुगल शासक औरंगज़ेब ने उन्हे इस्लाम स्वीकार करने को कहा। पर गुरु साहब ने कहा कि सीस कटा सकते हैं, केश नहीं। इस पर औरंगजेब ने सबके सामने उनका सिर कटवा दिया। गुरुद्वारा शीश गंज साहिब तथा गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों का स्मरण दिलाते हैं जहाँ गुरुजी की हत्या की गयी तथा जहाँ उनका अन्तिम संस्कार किया गया था।
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/7/73/Gurus1700s.jpg/320px-Gurus1700s.jpg)
![](http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/2/2b/Interior-view-Gurudwara-Sis-Ganj-Sahib.jpg/640px-Interior-view-Gurudwara-Sis-Ganj-Sahib.jpg)
इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की रक्षा के लिए बलिदान दिया था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।
आततायी शासक की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतन्त्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुरजी का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। यह गुरुजी के निर्भय आचरण, धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता का उच्चतम उदाहरण था। गुरुजी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतन्त्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रान्तिकारी युग पुरुष थे।
11 नवम्बर, 1675 ई॰ (भारांग: 20 कार्तिक 1597 ) को दिल्ली के चांदनी चौक में काज़ी ने फ़तवा पढ़ा और जल्लाद जलालदीन ने तलवार करके गुरु साहिब का शीश धड़ से अलग कर दिया। किन्तु गुरु तेग़ बहादुर ने अपने मुँह से सी' तक नहीं कहा। आपके अद्वितीय बलिदान के बारे में गुरु गोविन्द सिंह जी ने ‘बिचित्र नाटक में लिखा है-
- तिलक जंञू राखा प्रभ ताका॥ कीनो बडो कलू महि साका॥
- साधन हेति इती जिनि करी॥ सीसु दीया परु सी न उचरी॥
- धरम हेत साका जिनि कीआ॥ सीसु दीआ परु सिररु न दीआ॥ (दशम ग्रंथ)