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भारतवर्ष में शकों के जो राज्य स्थापित हुए उनमें भी क्षत्रपीय राज्यव्यवस्था थी।[1] भारतीय क्षत्रपों के तीन प्रमुख वंश और एक राजवंश था-
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कपिशा, पुष्पपुर तथा अभिसार के क्षत्रपों का पता वहाँ से प्राप्त अभिलेखों से मिलता है। माणिक्याला अभिलेख में ग्रणव््ह्रयक के पुत्र किसी क्षत्रप का उल्लेख मिलता है। उसे कापिशिं का क्षत्रप बताया जाता है। ८३वें वर्ष (संवत् ?) के काबुल संग्रहालय अभिलेख में पुष्पपुर के तिरव्हर्ण नामक एक क्षत्रप का उल्लेख है। अभिसारप्रस्त से प्राप्त एक ताँबे की अंगूठी के आकार की मुद्रा पर क्षत्रप शिवसेन का नाम प्राप्त है।
पंजाब के क्षत्रप तीन वंशों से संबंध रखते हैं -
(ख) मणिगुल तथा उसका पुत्र जिहोनिक - मुद्राशास्त्रियों ने इन्हें अयस द्वितीय का, पुष्कलावती पर शासन करने वाला, क्षत्रप माना है। किंतु तक्षशिला से प्राप्त रजतपत्र अभिलेख (वर्ष १९१ संवत्?) के अनुसार जिहोनिक चुख्स जिले का क्षत्रप बताया गया है। इनका उत्तराधिकारी कुषुलकर कहा जाता है।
(ग) इंद्रवर्मन् का वंश - इस वंश में इंद्रवर्मन्, उसके पुत्र अस्पवर्मन् तथा अस्पवर्मन् के भतीजे सस आते है। अस्पवर्मन् ने अयस द्वितीय तथा गुदूफर दोनों के राजत्व काल में क्षत्रप का कार्य किया और सस ने गुदूफर तथा उसके उत्तराधिकारी पैकोरिज के राज्यकाल में क्षत्रप का कार्य किया।
इस वंश में सबसे पहला रजुवुल अथवा रंजुवुल था जिसने संभवत पहले साकल पर भी राज्य किया था। स्टेनकोनो ने उस वंश का इस प्रकार अनुमान किया है:
रजुवुल का नाम अभिलेखों तथा मुद्राओं में प्राप्त होता है। मोरा क्रूप अभिलेख में उसे महाक्षत्रप कहा गया है। किंतु उसकी मुद्राओं पर प्राप्त लेख में उसे राजाधिराज कहा गया है। रजुवुल (राजुल) का उत्तराधिकारी शुडस (अथवा शोडास) था। अभिलेखों में भी उसे महाक्षत्रप कहा गया है। इनके अभिलेखों में दिये गए वर्षों को कुछ विद्वान् शक और कुछ विक्रम संवत में मानते हैं। इस मतभेद को मिटाने का साधन अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। खरोष्ठ, कोनो के अनुसार, राजुवुल का श्वसुर तथा पलीट के अनुसार, दौहित्र था। एक अन्य मुद्रा पर खरोष्ठी लिपि में ‘क्षत्रपस प्रखर ओष्टस अर्टसपुत्रस’ लिखा हुआ मिलता है।
इन क्षत्रपों के मूलदेश के संबंध में विद्वानों में मतभेद है। कभी उन्हें पल्हाव, कभी शक देश से आया हुआ बताया जाता है। संभवत वे शक थे। फारस से होकर आने के कारण वे क्षत्रपीय शासन व्यवस्था से परिचित और उससे संबद्ध हो गये; इनके अतिरिक्त हगान और हगामश नामक दो क्षत्रपों की भी मुद्राएँ मथुरा से प्राप्त हुई हैं। जो रजुवुल वंश के पश्चात् मथुरा के शासक अनुमान किये जाते हैं। कुछ सिक्कों पर दोनों के संयुक्त नाम भी मिलते हैं। और कुछ पर केवल हगामश का ही। इनके पश्चात मथुरा में दो तीन क्षत्रप और हुए जिनके नाम भारतीय हैं। कदाचित् इस काल तक इन विदेशियों ने पूर्णरूप से भारतीयता ग्रहण कर ली थी।
उज्जैन के क्षत्रपों को पश्चिमी भारत के क्षत्रप के नाम से भी पुकारते है। ये क्षत्रप दो वंशों के प्रतीत होते हैं। पहला वंश भूमक और नहपान का था तथा दूसरा चष्टन का।भूमक के सिक्कों के अग्र भाग पर बाण , चक्र और वज्र के चिन्ह और पृष्ठ भाग पर ब्राम्ही व खरोष्ठी में 'क्षहरात क्षत्रप भूमक' अंकित लेख के साथ साथ धर्म चक्र सहित सिंहशीर्ष अंकित मिलता है। भूमक के उत्तराधिकारी नहपान का पता उसकी रजत एवं ताम्रमुद्राओं से ही नहीं वरन् उसके दामाद उषवदात के अभिलेखों से भी लगाया जाता है। नहपान ने पश्चिमी भारत के कुछ भाग पर भी राज्य किया था।नहपान(119ई.-125ई.) ने पश्चिमी भारत के कुछ भाग पर भी राज्य किया था।पेरिप्लस से ज्ञात होता है कि नहपान की राजधानी मीननगर थी। उसने सातवाहन के साम्राज्य का कुछ भाग भी जीत लिया था। इसके वंश को षहरात कहते है। षहरात वंश को रूद्रदामन् प्रथम ने समाप्त किया। गिरनार अभिलेख में उसे खखरात वसनिवसेस करस कहा गया है।
[क्षहरात वंश का अन्त लगभग 125ई. में सातवाहनों द्वारा हुआ। गौतम बलश्री के अभिलेख में गौतमीपुत्र शातकर्णी को 'क्षहरातों का नाश करने वाला' कहा है।] उज्जैन में शासन करने वाले द्वितीय वंश के क्षत्रपों में कार्दमकवंशीय चष्टन के पिता यस्मोतिक का नाम सर्वप्रथम आता है। चष्टन का पुत्र जयदामन् क्षत्रप था किंतु संभवत वह पिता के जीवनकाल में ही मर गया और उज्जैन पर चष्टन तथा रूद्रदामन् ने सम्मिलित रूप से शासन किया। जूनागढ़ अभिलेख में महाक्षत्रप रूद्रदामन् के संबंध में कहा गया है कि उसने महाक्षत्रप की उपाधि अर्जित की थी। प्रतीत होता है कि उसके वंश की राज्यश्री संभवत गौतमीपुत्र सातकर्णि ने छीन ली थी और रूद्रदामन् को महाक्षत्रप की उपाधि पुन उन प्रदेशों को जीतकर करनी अर्जित करनी पड़ी। जूनागढ़ अभिलेख में उसकी विजयों तथा उसके व्यक्तित्व की प्रशस्ति है। रूद्रदामन् प्रथम का उत्तराधिकारी उसका ज्येष्ठ पुत्र दामघसद (प्रथम) हुआ। उसके पश्चात् दामघसद का पुत्र जीवदामन् तथा उसका भाई रूद्रसिंह प्रथम उत्तराधिकारी हुए। इसी रूद्रसिंह के समय आभीरों ने पश्चिमी क्षत्रपों के राज्य का कुछ भाग हड़प लिया था। रूद्रसिंह प्रथम के उत्तराधिकारी उसके तीन पुत्र रूद्रसेन प्रथम, संघदामन् तथा दामसेन हुए। तदनंतर दामसेन के तीन पुत्र यशोदामन, विजयसेन तथा दामजदश्री महाक्षत्रप हुए। दामजदश्री का उत्तराधिकारी उसका भतीजा रुद्रसेन द्वितीय हुआ। इसके पश्चात् उसके पुत्र विश्वसिंह तथा भर्तृदामन् हुए। भर्तृदामन् के ही काल से उसका पुत्र विश्वसेन उसका क्षत्रप बना। भर्तृदामन् तथा विश्वसिंह का संबंध महाक्षत्रप रूद्रदामन द्वितीय से क्या था। यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। इस वंश का अंतिम क्षत्रप रुद्रसिंह तृतीय हुआ जिसने लगभग ३८८ ई. तक शासन किया। गुप्तवंश के चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य) ने उज्जैनी के क्षत्रपों का अंत कर उनके साम्राज्य को अपने साम्राज्य में मिला लिया और उनके सिक्कों के अनुकरण पर अपने सिक्के प्रचलित किये।
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